Tribes
फोटो: विकास चौधरी

‘बुवेन-विविर’: विकल्पहीन घोषित दुनिया का विकल्प

‘बुवेन-विविर’ स्पेनिस शब्द है, जिसका अर्थ होता है- ‘अच्छा जीवन’, जो लैटिन अमेरिकन जनजातीय समाज के अन्य शब्दों से प्रेरित रहा है
Published on

अमेरिकी अभिनेता और पर्यावरणविद एड बेगले ने कहा था- “जब हम मानव-निर्मित चीजों को क्षति पहुंचाते हैं तो उसे विध्वंस कहते हैं, लेकिन जब प्रकृति निर्मित चीजों को तबाह करते हैं तो उसे प्रगति कहते हैं।” विकास का यह दौर ‘दोहनवाद’ (एक्सट्राएक्टाविजम) का है।

अगर देखें तो हम सच में प्रकृति निर्मित चीजों को बर्बाद कर रहे हैं। “विकास” के लिए असीमित पूंजी का निर्माण प्राकृतिक संसाधनों के दोहन के द्वारा ही किया जा रहा है। यह दोहन केवल तेल और कोयले तक ही सीमित नहीं है, बल्कि जंगल, कृषि, मछलीपालन, पशुपालन, जैसे अनगिनत पारंपरिक आजीविका के श्रोतों का भी वैश्विक और व्यावसायिक दोहन किया जा रहा है।

समकालीन अर्थव्यवस्था जरुरत की अर्थव्यवस्था नहीं, अपितु लालच का अर्थतंत्र है। इसने दुनिया के सामने अनगिनत समस्याओं को पैदा किया। इन समस्याओं से निकलने के लिए दुनिया ने “सतत-विकास” का भी नारा दिया, लेकिन यह नारा विरोधाभाषी है।

एक तरफ अर्थतंत्र उपभोक्तावाद को प्रोत्साहित करता है, दूसरी तरफ यह उपभोग के संतुलित और सीमित प्रयोग की वकालत करता है। इसलिए “सतत-विकास” के नारे “अकादमिक-मुशायरों” आदि के लिए तो ठीक है, लेकिन दुनिया के संकट को इससे कम नहीं किया जा सकता।

नव-उदारवादी मॉडल के भीतर “सतत विकास” कम से कम तीन कारणों से अपनी विफलता को प्रदर्शित कर चुके हैं- पहला कि यह बढ़ती हुई असमानता को नहीं रोक सका; दूसरा कि प्राकृतिक संसाधनों का सफाया तेजी से किया गया; और तीसरा कि यह मानवीय जीवन में खुशियों का संचार नहीं कर पाया।

भूख से मरने से अधिक शर्मनाक कुछ नहीं हो सकता, दुर्भाग्य से दुनिया में लगभग हरेक चार सेकण्ड में एक व्यक्ति की मौत भूख से होती है। दुनिया से, खासकर तीसरी दुनिया से जंगलों को काट डाला गया, पहाड़ों को नंगा कर दिया गया, और नदियों को प्यास से मार दिया गया, और इनके साथ ही साथ स्वाभाविक रूप से हुआ समुदायों का आर्थिक और सांस्कृतिक संहार।

अबतक दुनिया के साठ फीसदी पारिस्थितिकीतंत्र का नाश किया जा चुका है। वर्ष 2009 तक करीब नौ फीसदी स्तनधारी और अन्य जीव विलुप्त हो चुके थे और इस कतार में करीब एक हजार और जीव हैं जो जल्द गायब हो सकते हैं। धरती त्रस्त है। ऐसे में क्या मान लिया जाए कि इस दुनिया का कोई विकल्प नहीं?   

दुनिया विकल्पहीन नहीं है। हमने विकल्पों की तरफ देखा नहीं, या फिर कहें कि हमें देखने नहीं दिया गया- सोचने नहीं दिया गया। उत्तर-वैकासिक विमर्शों के साथ ही कई अन्य विचार दर्शन विकल्पों के रूप में सामने आ रहे हैं।

इन्हीं विकल्पों के बीच लैटिन अमेरिका के जनजातीय दर्शन से प्रेरित अवधारणा ‘बुवेन-विविर’ एक शानदार विकल्प के रूप में वैश्विक विमर्शों का हिस्सा बना है. जीवन को सम्पूर्णता में देखने का यह विचार दर्शन बोलीविया और इक्वाडोर जैसे देशों के नीति निर्माण में भी एक नियामक की भूमिका में लाया जा चुका है।

इक्वाडोर में इससे जुड़ा ‘बुवेन-विविर मंत्रालय’ भी बनाया गया है; यह एक सुखद प्रारंभिक पहल है. ‘बुवेन-विविर’ के विपरीत, “सतत-विकास” के साथ एक और बड़ी दिक्कत रही कि यह अपने मूल दर्शन में मनुष्य-केन्द्रित था, जिस कारण यह सामाजिक और पर्यावरणीय प्रश्नों पर ठीक से अपना परिणाम नहीं दे सका।

चीजों को इसने सम्पूर्णता में नहीं देखा और समस्याएं बढती गई। ‘बुवेन-विविर’ प्रकृति और मनुष्य को एक मानने का विचार है. इसके लिए ‘पचममा’ यानि ‘धरती माता’ की रक्षा करना ही मनुष्यता की रक्षा करना है।  

‘बुवेन-विविर’ स्पेनिस शब्द है, जिसका अर्थ होता है- ‘अच्छा जीवन’, जो लैटिन अमेरिकन जनजातीय समाज के अन्य शब्दों से प्रेरित रहा है, जैसे- ‘सुमक-कावसी’- ‘विविर-बेन’- ‘सुमाकुमाना’ आदि. जहाँ एक तरफ आधुनिक नव-उदारवाद ‘वन-साइज-फिट-ऑल’ थोपने पर आमादा है, तो इसके उलट यह विचार स्थानिकता और सन्दर्भों के साथ अपनी बात रखता है.  इसे निम्न बिन्दुओं के साथ समझा जा सकता है-

·         यह लोक-केन्द्रित है, जिसमें उन्हें ही अपने स्थानीय जीवन को निर्धारित और नियमित करने का अधिकार हो.

·         पहचान और जुडाव वाली सामुदायिकता, जिसमें अन्तर्निहित स्वीकार्यता के मूल्य हों.  

·         समुदाय के भीतर व्यक्ति की जिम्मेवार सहभागिता की सुनिश्चितता

·         संरचना के भीतर सबका सबके साथ संवाद.

·         समुदाय की एक सांस्कृतिक पहचान.

उपरोक्त बिन्दुओं के सन्दर्भ में देखें तो साफ़ दीखता है कि वर्तमान विकास में स्थानीय समुदाय निर्णय से वंचित किये जा रहें हैं, और उनकी सामुदायिकता का लगातार व्यक्तिगतकरण हो रहा है। एक तरफ जहाँ दुनिया में संचार के साधन तेजी से विकसित हुए हैं तो दूसरी तरफ समाज और संस्थाओं से संवाद गायब हो गए हैं. सांस्कृतिक पहचान अपने विकृत रूप में सामुदायिक, जातीय संघर्सों में तब्दील हो गए हैं।

‘बुवेन-विविर’ की कई धाराएँ हैं- जैसे देशज, समाजवादी, उत्तर-वैकासिक आदि, लेकिन ये सभी मूल रूप से पहचान, स्वामित्व/हिस्सेदारी और धारणीयता के इर्द-गिर्द ही घूमते हैं। जिस तरह सतत विकास के तीन स्तम्भ हैं- आर्थिक, सामाजिक, और पर्यावरणीय; ठीक उसी प्रकार इसके भी तीन स्तम्भ माने जाते हैं- सामाजिक, आध्यात्मिक, और भौतिक।

इसमें आध्यात्मिक होने का अर्थ मजहबी या धर्मांध होना नहीं है, बल्कि अपने परिवेश से भावनात्मक रूप से जुड़ना है. इसे और अगर स्पष्ट तरीके से देखा जाए तो इसे कम से कम पांच आयामों में रखा जा सकता है- स्वामित्व, सामाजिक जुड़ाव, धारणीयता, सशक्तीकरण , आजीविका, और सामर्थ्यता।

वर्तमान विकास को ‘बुवेन-विविर’ से क्या और सीखने की जरुरत है तो इसपर कुछ विद्वानों का मानना है कि उन्हें निम्न बातों को अपनी राजनीतिक और आर्थिक नीतियों का हिस्सा अनिवार्य रूप से बनाना होगा तभी “सुन्दर-जीवन” की संकल्पना सार्थक हो सकती है. और ये हैं- निरंतरता, सुरक्षा, भावनात्मक जुडाव, एक दूसरे की समझ, लोकतान्त्रिक सहभागिता, आराम, रचनात्मकता, पहचान, और स्वायत्ता।  

प्रकृति, समुदाय, संस्कृति और अर्थव्यस्था सबकों संयुक्त तरीके से देखने के विचार दर्शन के तौर पर ‘बुवेन-विविर’ अपने मूल में भले ही जनजातीय समाज से उभरी हो, लेकिन आज यह वर्तमान विकास को एक नयी जीवन-दृष्टि प्रदान कर रही है ताकि एक न्यायपूर्ण और सुन्दर दुनिया फिर से स्थापित की जा सके. वर्तमान संभ्यता जहाँ संचय, और चरम उपभोक्तवाद में डूबा हुआ है, तो दूसरी तरफ उनके जीवन दर्शन में जरूरतों का स्थान लालच नहीं ले सका है. संचय, लालच, भोग से निकलकर सुन्दर, सामुदायिक और प्रकृति के साथ जीने का विचार है- ‘बुवेन-विविर’. उनका विचार दर्शन कितना बड़ा है इसे उनके इस कथन से समझिए- “हमारे पास सोना है, यहाँ की नदियों में यह बहती है, लेकिन हमें इसकी जरुरत नहीं।”

Down to Earth- Hindi
hindi.downtoearth.org.in