इलस्ट्रेशन: योगेन्द्र आनंद / सीएसई
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पुस्तक समीक्षा: शिक्षा की दुनिया का अक्षर देखा हाल

स्कूल और शिक्षण की दुनिया में क्या और कैसे बदलाव हो रहा है, इसका एक मुकम्मल दस्तावेज समेटती है यह किताब
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शिक्षक और स्कूल दुनिया बदल सकते हैं...। सुनने में यह एक आदर्श वाक्य लगता है। बहुत बार अलग-अलग तरह से इसे विगत में कहा भी कहा गया है। अनुराग बेहर अपनी किताब “ए मैटर आॅफ द हार्ट : एजुकेशन इन इंडिया” में जब ये बात कहते हैं तो यह उन यात्राओं से हासिल ईमानदार उद्गार हैं जो उन्होंने देश के स्कूलों का किया। बकौल अनुराग बेहर, भारत में शैक्षणिक सुधारों का एक केंद्रीय सवाल होता है कि इसे कैसे करेंगे? इसी सवाल का जवाब देता है अनुराग के लेखों का संकलन जो अखबार में नियमित स्तंभ के रूप में छप चुके हैं।

अनुराग बेहर अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी के मुख्य कार्यकारी अधिकारी हैं। लोक से जुड़े जीवन और शिक्षा को लेकर इस संस्थान ने जो काम किया है, उसकी भी एक झलक हमें इन लेखों से मिलती है। नई दुनिया में जब एक तबका पुराने संसाधनों के साथ अटका पड़ा है तो उसके समाधान के लिए भी नई पद्धति लानी होगी। यह नई पद्धति उतनी ही पुरानी है, जितना मानव का इतिहास, यानी सामूहिकता। समूहों का प्रयास वृहत्तर स्तर पर कितना सार्थक हो सकता है, अनुराग इसकी भी तस्वीर खींचते हैं।

क्यों और कैसे जैसे कई मुश्किलों का जवाब खोजने में यात्राएं सहायक होती हैं। शिक्षा के बारे में लिखना हमेशा शब्दश: शिक्षा के बारे में लिखना नहीं होता है। शहर से गांव तक के स्कूल पहुंचने के रास्ते कैसे हैं? गांव पहुंच कर, स्कूल तक कैसे पहुंचा गया? क्या अन्य संस्थाओं की तरह स्कूल की इमारत भी विराट और भव्य थीं या चार कमरों में ही एक संस्थान खत्म हो रहा था? स्कूल आने वाले बच्चों के अभिभावक स्कूल के बारे में क्या सोचते हैं?

स्कूल और शिक्षकों से उनकी क्या उम्मीदें हैं? शैक्षणिक विकास बनाम संसाधनों तक पहुंच तो बुनियादी सवाल है ही। इन सबकी बात करते हुए अनुराग बेहर के लेख भारत में शिक्षा व्यवस्था का पूरा खांका खींच देते हैं। अगर आप कमजोर और वंचित क्षेत्रों के शैक्षणिक संस्थानों में समय बिताते हैं तो इसका जवाब आसानी से मिल जाएगा कि शिक्षा के क्षेत्र में क्यों और कैसे करना है। अपने लेखों में अनुराग इसी नतीजे पर पहुंचते हैं कि अच्छाई आज के समय में तो मायने रखती ही है। उनका अनुभव है कि सहानुभूति से ज्यादा अनुभूति का साहचर्य (इंपैथी) भी मायने रखता है।

जब देश की शिक्षा व्यवस्था के बारे में बात करनी हो तो क्या 1,475 की जनसंख्या वाले गांव की बात की जा सकती है? किताब के शुरुआती लेख “लाइट इन अगस्त” की बात करने के बाद पाठकों को इसका जवाब हां में मिलता है। कर्नाटक के मंडया जिले के पांडवपुरा ताल्लुक का छोटा सा गांव कनिवेकोप्पलू तक पहुंचने के लिए लेखक लंबी दूरी तो तय कर लेते हैं। लेकिन, ऐसे गांवों, वहां के स्कूलों तक बिजली आज भी मुश्किल से पहुंचती है।

142 विद्यार्थियों के साथ छह शिक्षकों वाले सरकारी विद्यालय में चार कमरों को देखने के साथ ही स्कूल के “इंस्पेक्शन” को पूरा मान लिया जा सकता है। लेकिन, यह स्कूल तो शुरू ही इन चार कमरों के बाहर से होता है। ऐसे शिक्षक हैं जिनके लिए स्कूल सिलेबस में वंचित तबकों के बच्चों की समस्या से जूझना भी होता है। यहां सिर्फ बच्चे नहीं अभिभावक भी हैं। “स्कूल डेवलपमेंट एंड माॅनिटरिंग कमिटी” के सदस्य के तौर पर शिक्षक और अभिभावक उन्हें इज्जत से देखते हैं।

आम तौर पर स्कूल के समय की अवधारणा सुबह की है। शाम में कैसा लगता है विकास की आस लगाए बैठा स्कूल। उन्हें शाम छह बजे का वक्त मिला है, क्योंकि यही वह समय है जब सभी लोग एक साथ आ सकते हैं। अनुराग के जरिए मिलते हैं उम्मीदों की इस दुनिया से।

शाम में पेट्रोमेक्स की रोशनी में शिक्षकों और ग्रामीणों के लिए गर्व का विषय है, स्कूल में निर्माणाधीन लड़कियों का शौचालय। एक और शिक्षक व कंप्यूटर की मांग की गई है। बातचीत में अभिभावक बताते हंै कि उन्होंने निजी स्कूल से हटा कर अपने बच्चे को यहां इसलिए डाला क्योंकि यहां बच्चों का ध्यान रखा जाता है। अभिभावक इसे “हमारा स्कूल” कहते हैं क्योंकि उनके बच्चे यहां पर पढ़ते हैं।

इस स्कूल की यात्रा लेखक को उम्मीदों से रोशनख्याल करती है कि भारत जैसे देश में जहां ज्यादातर स्कूलों में बिजली तक नहीं पहुंची है, कोई भी शैक्षणिक सुधार स्थानीय सहभागिता के बिना नहीं हो सकता। स्थानीय लोगों के साथ मिलजुलकर काम करें तो शैक्षणिक सुधार नामुमकिन नहीं हैं।

वहीं उत्तराखंड में उधम सिंह नगर के रेलवे स्टेशन पर जब उन्हें बुजुर्ग महिला कहती है कि हवा में एक प्रतिरोध है, जो अच्छा नहीं है तो वे असमंजस में आ जाते हैं कि “प्रतिरोध” को कैसे देखें और समझें। बुजुर्ग की इस बात के विपरीत वहां के स्कूल की कक्षा में एक बच्चा कहता है, “सबकी अपनी एक राय होती है, सबको सुनना चाहिए।”

अनुराग सोचते हैं, ग्यारह साल का बच्चा ऐसा कैसे कह सकता है। यह पुलवामा युद्ध के बाद का समय है। मुकम्मल संसाधनों की पहुंच स्कूल तक पहुंची हो या नहीं, युद्ध का उन्माद पहुंच चुका है। कोई बच्चा दुश्मन की हड्डियां तोड़ने की बात कहता है तो कोई आवाज गूंजती है, शहीद तो दोनों तरफ होंगे। इससे बचना चाहिए।

अनुराग बेहर जब छोटे स्कूलों के अंदर जाते हैं तो पता चलता है कि एक स्कूल खड़ा करना कितना नायकत्व से भरा काम है। एक स्कूल का ढांचा ही उसकी कहानी और संघर्ष बता देता है। स्कूल की मांग करने पर डूब क्षेत्र की जमीन दे दी गई। जो मिला उसे स्वीकार कर, स्कूल की इमारत को इस तरह डिजाइन किया गया ताकि वह माॅनसून की बारिश में न डूबे।

एक स्कूल बनने और उसे बुनियादी चीजें मुहैया करवाने वाले शिक्षकों के भी कितने आयाम हैं। किताब में इन कहानियों को पढ़ कर हम भावुक हो सकते हैं, कि यह कितना बड़ा काम है। लेकिन अपने बारे में बात करने पर शिक्षक यह कह कर भावुक होते हैं, “यह तो हमारा ही काम है, हमें ही करना है। जैसे भी करना है।” शिक्षक अपना प्रशिक्षण कैसे कर पाता है, उसकी कितनी जरूरत है, यह शिक्षकों के अनुभवों से ही सामने आता है।

स्कूलों के अलग-अलग अनुभव, हर क्षेत्र के संघर्ष को देखने के बाद अनुराग बेहर इतिहासकार इएच कार से आश्वस्ति पाते हैं कि इतिहास एक नहीं होता है। वह कई हो सकता है। जिस तरह लेखक को इएच कार राहत देते हैं उसी तरह से इस संकलन के लेख हमें वह राहत मुहैया कराती है जो सामूहिक प्रयासों से मिलती है। स्कूल का उद्देश्य शिक्षा प्रदान करना होता है। यह एक सामाजिक संस्थान होता है। स्कूलों में दिखी सामाजिकता भविष्य को लेकर यही आश्वस्ति देती है कि हां शिक्षक और स्कूल दुनिया बदल सकते हैं। बदल भी रहे हैं अपने-अपने हिस्से की। स्कूल शिक्षण की दुनिया में क्या और कैसे बदल रहा, उसका एक मुकम्मल दस्तावेज है अनुराग की यह किताब।

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