अस्कोट-आराकोट अभियान 2024: जड़ों से जोड़ती एक पदयात्रा

पहली अस्कोट-आराकोट यात्रा 25 मई 1974 को पिथौरागढ़, अल्मोड़ा, चमोली, टिहरी, देहरादून और उत्तरकाशी जिलों के करीब 350 गांवों से होकर गुजरी
अस्कोट अराकोट यात्रा के यात्री। फाइल फोटो
अस्कोट अराकोट यात्रा के यात्री। फाइल फोटो
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आशुतोष उपाध्याय*

साल 1974। तब के उत्तर उत्तर प्रदेश के पहाड़ी क्षेत्र और आज के उत्तराखंड के कुछ उत्साही और संवेदनशील छात्र पिंडारी ग्लेशियर की पदयात्रा से लौटे थे। इन छात्रों में देश के जाने-माने हिमालयविद पद्मश्री शेखर पाठक और प्रख्यात सामाजिक आंदोलनकारी स्व. शमशेर सिंह बिष्ट भी थे। पिंडर घाटी की यात्रा पर आधारित उनकी एक रपट एक स्थानीय समाचार पत्रिका में छपी थी।

दुर्गम पहाड़ी जीवन की विवशताओं की झलक देती इस रपट पर प्रख्यात पर्यावरण कार्यकर्ता सुंदर लाल बहुगुणा की नजर पड़ी। तब वह स्वयं उत्तराखंड की 120 दिनों की पदयात्रा पर थे। बहुगुणा जी ने अल्मोड़ा कॉलेज में पढ़ रहे इन युवाओं से मुलाकात की और उन्हें उत्तराखंड के गांवों की वस्तविक समझ बनाने के लिए अस्कोट से आराकोट की पदयात्रा करने की सलाह दी।

साथ में यह भी सुझाया कि इस यात्रा में गढ़वाल के दो अन्य युवा कुँवर प्रसून व प्रताप 'शिखर' भी उनके साथ रहेंगे। अस्कोट उत्तराखंड के पूर्वी छोर पर नेपाल सीमा पर बसा एक छोटा सा क़स्बा है और आराकोट उत्तराखंड की पश्चिमी सीमा पर हिमाचल की सीमा से लगा एक गाँव। उत्तर प्रदेश के पहाड़ी क्षेत्र को उसकी चौड़ाई में नापने वाला करीब 1000 किमी लंबा यह दुर्गम पैदल मार्ग ऊंचे इलाकों में बसे लगभग 350 गांवों से गुजरने वाला था। और इस चुनौती को स्वीकार करने वाले यात्री अपने जीवन का सबसे मूल्यवान सबक सीखने जा रहे थे।

इस तरह 1974 में उत्तराखंड के चार उत्साही युवा- शेखर पाठक, शमशेर सिंह बिष्ट, कुँवर प्रसून और प्रताप 'शिखर'- सुंदर लाल बहुगुणा की प्रेरणा से पहली अस्कोट-आराकोट यात्रा पर निकल पड़े। यात्रा के दौरान बीच-बीच में अनेक सहयात्री आते और जाते रहे।

उस यात्रा को याद करते हुए शेखर पाठक कहते हैं, "हम चाहते थे कि अपने गर्मिर्यों के अवकाश को उत्तराखंड के उन गाँवों में बितायें जहाँ न कोई नेता जाता है, न अधिकारी और न ही कोई कर्मचारी। मोटर सड़कों तक तो सब ठीक दीखता है। फिर लोग घर से बाहर बनठन कर भी निकलते हैं। इसलिये अभाव और गरीबी का दर्शन करने के लिये हमने गाँव घूमने का कार्यक्रम बनाया। हमारा मकसद था वहाँ के लोगों के प्रत्यक्ष संपर्क में जा कर उन के सुख-दुःख में एक रात शामिल होना। शराबबंदी, जंगलों की सुरक्षा, स्त्री शक्ति जागरण तथा युवा शक्ति का रचनात्मक उपयोग हमारे जनसंपर्क के प्रमुख विषय थे।"

आगे वह बताते हैं, "उत्तराखंड के बारे में पहले तक हम युवकों के मन में दूसरा ही दृष्टिकोण था। किंतु इस यात्रा के बाद वह मिट गया। एक नये दृष्टिकोण ने जन्म लिया। खास कर हम इसी को ढूँढना चाहते थे। पैसा साथ में न रखने का निश्चय हुआ था, ताकि ग्रामीण जीवन और जन से अधिक जुड़ पायें। भोजन जिस गाँव में गये वहीं किया। हर ग्रामवासी से एक रोटी देने का निवेदन था। जब एक दम अकेले पथों में जाना पड़ा तो ग्रामवासियों ने हमारे लिये सत्तू बांध दिया। कुछ आवश्यकताएँ, जैसे रेडियो के सैल, कैमरे की रीलें, टॉर्च के सेल या अन्य छोटी-छोटी आवश्यकताएँ स्थानीय लोगों से ही पूरी करवाते थे।”

पहली अस्कोट-आराकोट यात्रा तत्कालीन पिथौरागढ़, अल्मोड़ा, चमोली, टिहरी, देहरादून और उत्तरकाशी जिलों से गुजरते हएु करीब 350 गांवों को छूकर निकली। यात्रा की शुरुआत 25 मई 1974 को हुई और 45 दिन बाद 8 जुलाई 1974 को आराकोट में इसका समापन हुआ। इस यात्रा ने न केवल गांवों के बारे में यात्री दल के सदस्यों का नजरिया बदला बल्कि उनके भावी जीवन की दिशा भी तय कर दी। कालांतर में इन सभी ने अपने सामाजिक योगदान के कारण देश-दुनिया अपनी खास पहचान बनाई।

पहली यात्रा की प्रेरणा से ‘पहाड़’ जैसे हिमालयी सरोकारों वाली संस्था का जन्म हुआ, जिसने कालांतर में ‘अस्कोट-आराकोट अभियान’ को प्रत्येक दस वर्ष के अन्तराल में दोहराने का निर्णय लिया। इस तरह 1984, 1994, 2004, और 2014 में क्रमशः दूसरा, तीसरा, चौथा और पाँचवाँ ‘अस्कोट-आराकोट अभियान’ सम्पन्न हुआ। इन अभियानों का मकसद मूल यात्रा मार्ग पर पड़ने वाले गांवों को 10 वर्ष के अंतराल में देखना और इन दौरान हो रहे बदलावों को समझने का प्रयास करना था। हालांकि दूसरे ‘अस्कोट-आराकोट अभियान’ से यात्रा का शुरुआती बिन्दु अस्कोट के बजाय पांगू कर दिया गया, लेकिन नाम में कोई बदलाव नहीं हुआ। अलबत्ता यात्रामार्ग की लंबाई बढ़कर 1150 किमी हो गयी।

हर बार 'अस्कोट-आराकोट अभियान' में कुछ नए युवा और उत्साही जुटते और बेहद विनम्रता से की जाने वाली 45 दिन की इस कठिन हिमालय यात्रा से अपने जीवन के लिए कुछ मूल्यवान सबक़ लेकर लौटते। सामाजिक बदलाव के लिहाज से एक दशक कम समय नहीं होता है। इतने वर्षों के बीच उत्तराखंड राज्य का निर्माण हुआ और नाजुक हिमालय के इस मध्य भाग ने इंसानी छेड़छाड़ के कारण आपदाओं सैकड़ों विभीषिकाओं का सामना किया। दूर-दराज गांवों तक पहुंची सड़कों ने पहुंचना थोड़ा आसान जरूर किया, मगर सड़कों के साथ पहुंचने वाली संस्कृति ग्रामीण जीवन की निश्छलता को लील गई। रोजगार, स्वास्थ और शिक्षा की बदहाली ने पलायन के रूप में उत्तराखण्ड को एक बड़ी बीमारी दी है। अभियान के मार्ग में पड़ने वाले गाँव भी इससे अछूते नहीं हैं। यह यात्रा बदलाव की इस आंधी के बरक्स विकास के जारी मॉडल को समझने का भी मौक़ा देती है।

2014 की पांचवें ‘अस्कोट-आराकोट अभियान’ में नौ राज्यों और विदेशों के 260 से अधिक यात्रियों ने हिस्सेदारी की। इनमें 4 दर्जन से ज्यादा महिलाएं शामिल थीं। यात्रियों ने अपने-अपने ढंग से अपने अनुभवों को समेटा और प्रस्तुत किया।

इस वर्ष 2024 में छठा ‘अस्कोट-आराकोट अभियान’ आगामी 25 मई 2024 से शुरू होगा। अभियान का यह पचासवां यानी स्वर्ण जयंती साल भी है। इस बार अभियान की प्रमुख थीम 'स्रोत से संगम' रखी गई है ताकि नदियों से समाज के रिश्ते को गहराई से समझा जा सके और उनकी सेहत पर पड़ रहे दबावों को सामने लाया जा सके।

अभियान में उत्तराखण्ड की अनेक सामाजिक संस्थाओं के कार्यकर्ता; विभिन्न विश्वविद्यालयों के शोधार्थी और प्राध्यापक, उत्तराखंड-हिमाचल के इंटर कालेजों, हाईस्कूलों के विद्यार्थी और शिक्षक, पत्रकार, लेखक, रंगकर्मी, सामाजिक कार्यकर्ताओं के अलावा देश-विदेश के हिमालय प्रेमी भी शिरकत करेंगे। मुख्य यात्रा के अलावा इस बार अनेक टोलियाँ दूसरे मार्गों से अपनी नदी अध्ययन यात्राएं आयोजित करेंगी। स्कूल-कॉलेज के विद्यार्थी अपने-अपने इलाके की नदियों की सेहत का जायजा लेने के लिए छोटी अध्ययन यात्राएं निकालेंगे और अपने परिवेश की वास्तविक समस्याओं पर चिंतन करने की शुरुआत करेंगे।

यात्रा मार्ग

विभिन्न अभियान दलों में पूरी या आंशिक हिस्सेदारी के लिए यह अभियान हर उस साथी का स्वागत है, जो पहाड़ की जिंदगी को जानने और उसमें सकारात्मक परिवर्तन करने या ठहराव तोड़ने में दिलचस्पी रखता हो। यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि ‘अस्कोट-आराकोट अभियान’ मनोरंजन अथवा सैर-सपाटे के लिए नहीं, बल्कि वर्चुअल दुनिया में कैद रूह को अपने जड़ों से जोड़ने का एक माध्यम है।

* लेखक 'पहाड़' के सम्पादक मंडल के सदस्य हैं।

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