एक श्रद्धांजलि- शीतला सिंह, सहकारिता को बनाया था पत्रकारिता का आधार

जन के मोर्चे पर आखिरी सांस तक डटा रहा पत्रकार
तारिक अजीज / सीएसई
तारिक अजीज / सीएसई
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पूंजी कुछ लोगों के हाथों में सीमित है यह बड़ा सच है। लेकिन उससे बड़ा सच यह है कि जनता की शक्ति असीमित है। पत्रकारिता के बाजार में हमें पहला सच तो बार- बार याद कराया जाता है, लेकिन दूसरे सच को भूल जाने का माहौल बनाया जाता है।

दूसरा सच, यानी जनता की असीमित शक्ति। पिछले दिनों शीतला सिंह से जब भी बात होती थी, वे इसी दूसरे भुलाए जा रहे सच को बार- बार याद दिलाने की कोशिश करते थे।

शीतला सिंह का कहना था कि सहकारिता के पास एक ही पूंजी है विश्वनीयता की। जैसे ही जनता की पूंजी की जगह बाजार की पूंजी लगी पत्रकारिता की जनता के प्रति जिम्मेदारी नहीं रही। बाजार की पूंजी से निकला अखबार सिर्फ जनता के साथ होने का दिखावा कर सकता है, असल में जनता के साथ होता नहीं है।

शीतला सिंह हमेशा याद दिलाते थे कि भारत के संविधान में अखबार निकालने को सार्वजनिक सेवा माना गया है। इसलिए अखबार के छापेखाने को निजी पूंजी के हवाले नहीं होना चाहिए। प्रेस की मशीन की स्याही जनता के पैसे से आएगी तभी उससे जनता के हित लिखे जा सकेंगे।

मंगलवार 16 मई 2023 को भी शीतला सिंह जनमोर्चा के दफ्तर पहुंचे थे। वहीं तबीयत खराब हुई और अस्पताल ले जाने के दौरान अंतिम सांस ली। उन्होंने अपनी कलम तो सरोकार के लिए समर्पित की ही थी, अपनी देह का भी दान एक मेडिकल कॉलेज को कर दिया था। अपनी देह को भी मानवता की भलाई के लिए छोड़ गए।

अयोध्या फैजाबाद राम-मंदिर के साथ-साथ पत्रकारिता के मंदिर जनमोर्चा के लिए भी जाना जाता रहा है। शीतला सिंह उन पत्रकारों में थे जिनकी बाबरी मस्जिद विध्वंस की रिपोर्टिंग याद की जाती है।

इस मुद्दे पर उन्होंने “अयोध्या रामजन्म भूमि का सच” नाम से किताब भी लिखी। केंद्र से लेकर राज्य सरकार तक ने उनकी कलम को रोकने की काफी कोशिश की, लेकिन वे डटे रहे।

जब मैंने उनसे आखिरी बार फोन पर ही बात की थी तब भले वे कमजोर लग रहे थे; लेकिन उनकी कलम और उनकी दहाड़ में कहीं कमी नहीं थी। उन्होंने चेतावनी भरे स्वर में कहा था कि केवल मेरा साक्षात्कार लेकर अपने काम से इतिश्री नहीं मान लेना। जो बोल रहा हूं उस पर चलने की कोशिश भी करना।

शीतला सिंह से मेरी पहली मुलाकात 1997 में उनके अखबार जनमोर्चा के दफ्तर में हुई थी। तब मैं अयोध्या कवर करता था और लखनऊ से लगभग रोज ही फैजाबाद जाना पड़ता था। स्वामी अग्निवेश के एक कार्यक्रम को कवर करने गया था तो शीतला सिंह से मिलने उनके अखबार के दफ्तर गया।

मुझे देखते हुए बोले कि कब तक पूंजीपतियों के अखबारों में काम करते रहोगे? मैं और मेरे साथी चुपचाप उनके सामने बैठ गए।

उन्होंने पूछा, आप लोग कहां ठहरे हैं? हमने कहा कि एक होटल में रुक जाएंगे, अभी रुके नहीं है। इस पर वह बोले- "अरे भाई होटल में क्यों पैसा खर्च करते हो। दिन में तो आप फील्ड में रहेंगे। रात में भी तो आधी रात के बाद ही आपका काम खत्म होता है। ऐसे में आप लोग रात को यहीं दफ्तर में आ जाना। खाना बाहर से खा लेना और यहां दो टेबल जोड़कर सो जाना"।

वह आगे बोले- "मैं ऐसा इसलिए कह रहा हूं कि बिना कष्ट सहे जन-पत्रकारिता के कष्ट नहीं समझ पाएंगे। दूसरों के साथ साझेदारी कर ही सहकारिता का महत्व समझ पाएंगे। इन चीजों में हम और आप जितना कम खर्च करेंगे उतना ही हम अपने आसपास के परिवेश को बचा पाएंगे। मैं आपको होटल में रुकने से इसलिए मना नहीं कर रहा हूं कि आपके पैसे बचेंगे। इसलिए कह रहा हूं कि आप होटल में रुकेंगे तो आपके ऊपर केवल पैसा ही खर्च नहीं होगा, बल्कि आपके ऊपर पानी से लेकर कपड़े धोने के लिए उपयोग किए जाने वाला पानी भी जाया होगा। पानी जब आराम से मिलता है तो यह मानवीय गुण है कि वह अधिक पानी का उपयोग करता है, लेकिन जब पानी कुएं या हैंडपंप से निकालना हो तो अपने आप ही पानी की खपत कम हो जाती है।" दरअसल वह यह समझाना चाह रहे थे कि  रिपोर्टिंग के वक्त आरामतलबी में ज्यादा पैसे खर्च होना रिपोर्टिंग को बाजार की राह पर ले जाना है।

हम तीन दिन तक जनमोर्चा अखबार के दफ्तर में रहे। रात में काम खत्म हो जाने के बाद दो टेबल को जोड़कर पलंग बना लेते थे।

सहकारिता पर आधारित अखबार निकालने वाले वे अकेले शख्स थे, जो अब तक यह अखबार चला रहे थे। उन्होंने कहा था कि कहने के लिए देश में सहकारिता आधारित 350 से अधिक अखबार शुरू हुए थे। लेकिन धीरे धीरे सभी ने दम तोड़ दिया। उन्होंने साबित किया कि सहकारिता के ढांचे में सरोकारी पत्रकारिता हो सकती है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण जनमोर्चा ही है जो 1958 में 75 रुपए के निवेश के साथ जन इंडिया के स्वामित्व वाले एक सहकारी उद्यम के रूप में शुरू हुआ था। जनमोर्चा आज भी अयोध्या, लखनऊ और बरेली से निकल रहा है। शीतला सिंह का जाना जन के मोर्चे पर डटे सिपाही का जाना है।

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