हिमालय बचाने का संकल्प: ‘गांव बसाओ–जीवन बचाओ’ यात्रा से ग्रामीण पुनर्जीवन की नई राह
उत्तराखंड के पौड़ी गढ़वाल में 'गांव बसाओ–जीवन बचाओ' यात्रा का आयोजन किया गया
हिमालयी गांवों के पुनर्वास के लिए 'गांव बसाओ–जीवन बचाओ' यात्रा ने नीतिगत हस्तक्षेपों की आवश्यकता पर जोर दिया।
पलायन के कारणों को समझते हुए, इस पहल ने ग्रामीण अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ करने और प्रवासियों को गांव लौटने के लिए व्यवहार्य विकल्प प्रदान करने की दिशा में कदम उठाने की आवश्यकता बताई।
उत्तराखण्ड के पौड़ी गढ़वाल स्थित पोखड़ा ब्लॉक में 10–16 नवंबर 2025 के बीच प्रवासी व स्थानीय बुद्धिजीवियों, लेखकों, पत्रकारों तथा सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा एक जनसंवाद यात्रा आयोजित की गई। “गांव बसाओ–जीवन बचाओ” शीर्षक से संचालित इस पहल का उद्देश्य हिमालयी गांवों के पुनर्जीवन को वैज्ञानिक, सामाजिक और पर्यावरणीय दृष्टि से समझना था।
हिमालय और आबादी: संरक्षण का वैज्ञानिक आधार
हिमालयी पारिस्थितिकी का दीर्घकालिक संरक्षण सीधे ग्रामीण आबादी के स्थायित्व पर निर्भर है। पर्वतीय गांवों के खाली होने से खेत बंजर होते हैं, वर्षाजल का भू-गर्भ में समावेश कम होता है, जलस्रोत सूखते हैं और स्थानीय नदी-तंत्र कमजोर पड़ता है। इसके विपरीत, आबादी के लौटने पर खेतों की सक्रियता जल पुनर्भरण, पारिस्थितिक उत्पादकता और जैव विविधता—तीनों को पुनर्जीवित करती है। अतः हिमालयी गांवों का पुनर्वास केवल सामाजिक आवश्यकता नहीं, बल्कि पारिस्थितिकी संरक्षण का एक अनिवार्य वैज्ञानिक सिद्धांत है।
पलायन की सामाजिक–आर्थिक पृष्ठभूमि
पलायन से उजड़ चुके हिमालयी गांवों के पुनर्वास का समाधान उन सामाजिक-आर्थिक प्रक्रियाओं में निहित है, जिनके कारण 30–40 वर्ष पहले यह पलायन शुरू हुआ। उस समय सरकारी नीतियों और केंद्रीकृत आर्थिक व्यवस्था ने शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार तथा पानी, बिजली और रसोई गैस जैसी बुनियादी सेवाओं को मुख्यतः महानगरों में केंद्रित कर दिया। प्रश्न
यह है कि क्या ग्रामीण प्रवासियों को वास्तव में ये सुविधाएं शहरों में प्राप्त हुईं? अधिकांश मामलों में उत्तर नकारात्मक है—कई लोग अत्यधिक श्रम, कम आय और झुग्गी जैसी अमानवीय परिस्थितियों में जीवनयापन कर रहे हैं। इस परिप्रेक्ष्य में आवश्यक है कि नीतिगत हस्तक्षेपों के माध्यम से इस “शहरी मृगमरीचिका” में फंसे लोगों को सुरक्षित आजीविका के साथ गांव लौटने के व्यवहार्य विकल्प प्रदान किए जाएं, ताकि ठहरी हुई स्थानीय अर्थव्यवस्थाएं पुनर्जीवित होकर आत्मनिर्भर बन सकें।
उत्तराखण्ड: प्रवासन संरचना और नीतिगत अंतराल
उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों से हुए पलायन के पीछे विविध सामाजिक-आर्थिक कारण के अतिरिक्त नीतिगत कारण भी रहे हैं। निसंदेह कुछ लोगों ने मजबूरीवश भी पलायन किया, लेकिन अधिकांश ने प्रवासन की सामाजिक प्रवृत्ति का अनुसरण किया।
हालांकि एक बड़ा वर्ग बुनियादी सेवाओं की कमी के कारण बेहतर भविष्य की तलाश में महानगरों तक पहुंचा, और उसने अपेक्षित सफलता भी प्राप्त कर ली है। जो प्रवासी अपेक्षित सफलता प्राप्त कर सके हैं, वे शहरी जीवन में अपेक्षाकृत सुरक्षित हैं। परंतु बड़ी संख्या ऐसे श्रमिकों की है जो 10–15 हजार रुपए मासिक आय पर 16–18 घंटे श्रम करते हुए अमानवीय परिस्थितियों में जीवन यापन कर रहे हैं।
इस समूह के लिए नीतिगत हस्तक्षेप आवश्यक हैं या तो ग्रामीण अर्थव्यवस्था में निवेश बढ़ाकर स्थानीय आजीविका को सुदृढ़ किया जाए, या ऐसे प्रवासियों को गांव लौटने हेतु व्यवहार्य आर्थिक विकल्प प्रदान किए जाएं। इससे ठहरी हुई पर्वतीय अर्थव्यवस्था को नई गति मिल सकती है।
नीतिगत हस्तक्षेप: ग्रामीण पुनर्जीवन के वैज्ञानिक आधार
1. मनरेगा का वास्तविक क्रियान्वयन
मनरेगा के अंतर्गत 100 दिनों के रोजगार की वास्तविक गारंटी सुनिश्चित हो। इससे एक औसत परिवार को वर्ष में लगभग 25,000 रुपए की न्यूनतम आर्थिक सुरक्षा प्राप्त होगी। शेष अवधि में वे अन्य आर्थिक गतिविधियों में संलग्न होकर स्थानीय अर्थव्यवस्था में भागीदारी बढ़ा सकेंगे।
2. मनरेगा को कृषि से जोड़ना
मनरेगा कार्यों को स्थानीय कृषि से जोड़ने तथा ब्लॉक स्तर पर योजनाओं के निर्माण और क्रियान्वयन की स्वायत्तता बढ़ाने से खेतों की सक्रियता, भूमि संरक्षण और वर्षा जल संचयन में वृद्धि होगी। इससे जलस्रोतों और गैर-हिमानी नदियों के पुनर्भरण पर प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ेगा।
3. विद्यालय उपस्थिति-आधारित प्रोत्साहन
सरकारी विद्यालयों में पढ़ने वाले बच्चों को प्रति उपस्थिति कम से कम 100 रुपए का प्रोत्साहन दिया जाए। कई प्रवासी परिवार बच्चों की शिक्षा के कारण महानगरों की ओर पलायन करते हैं, किंतु अंततः वे वहीं सरकारी विद्यालयों पर निर्भर रहते हैं। यह नीति परिवारों को गांव लौटने हेतु प्रोत्साहित करेगी तथा शिक्षा गुणवत्ता और स्थानीय अर्थव्यवस्था—दोनों को सुदृढ़ करेगी।
4. उच्च शिक्षा में सहभागिता और गुणवत्ता बढ़ाना
डिग्री कॉलेजों में परिवहन अभाव और उच्च यात्रा-व्यय (150–200 रुपए प्रतिदिन) के कारण विद्यार्थी विशेषकर लड़कियाँ नियमित रूप से कॉलेज नहीं पहुँच पातीं। इससे उच्च शिक्षा का स्तर प्रभावित होता है और समाज को “डिग्री-धारी परंतु कौशलहीन” युवा प्राप्त होते हैं।
यदि उपस्थिति आधारित 200 रुपए प्रतिदिन का प्रोत्साहन दिया जाए, और उपस्थिति दिन में दो बार दर्ज की जाए, तो विद्यार्थी पूरे दिन कॉलेज में रुककर अध्ययन कर सकेंगे। जिन विद्यार्थियों का घर/ गांव दूर है वे कॉलेज के आसपास ही घर लेकर, पढाई करेंगे इससे कॉलेजों के आसपास अध्ययन-परक वातावरण और स्थानीय अर्थव्यवस्था दोनों को प्रोत्साहन मिलेगा।
5. किसानों को “पारिस्थितिकी सेवक” के रूप में मान्यता
पर्वतीय क्षेत्रों में सीमांत किसानों ने विभिन्न कारणों, वर्षा की कमी या अधिकता, वन्य जीवों द्वारा खेतों को नुकसान पहुँचाने, के कारण खेती छोड़ दी है क्योंकि वे लाभकारी कृषि करने में असमर्थ हैं। खेत खाली होने से जल पुनर्भरण, जैव विविधता और पारिस्थितिक संतुलन पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।
इसलिए किसानों को पारिस्थितकी सेवक (“इकोलॉजिकल सोशल सर्वेंट”) मानते हुए हल चलाने और बीज बोने जैसी मूल कृषि क्रियाओं के लिए प्रत्यक्ष प्रोत्साहन दिया जाए। सक्रिय खेत:
वर्षाजल को भूमि में समाहित करते हैं,
कुओं, पंदेरों और पारंपरिक जलस्रोतों को पुनर्जीवित करते हैं।
तितलियों, पक्षियों और अन्य जीवों के लिए आवास व खाद्य प्रदान करते हैं।
यह वही पारिस्थितिक लाभ उत्पन्न कर सकता है जिसकी अपेक्षा बड़े स्तर के नदी- पुनर्जीवन कार्यक्रमों, जैसे “नमामि गंगे”, से की जाती है।
6. वन पंचायतों का सशक्तिकरण
वन पंचायतों को स्वायत्त बनाते हुए वनों को स्थानीय आजीविका से जोड़ने की नीति अपनाई जानी चाहिए। स्थानीय समुदाय आधारित प्रबंधन से वन स्वास्थ्य, जैव विविधता और ग्रामीण अर्थव्यवस्था—तीनों को एक साथ लाभ हो सकता है।
निष्कर्ष
‘गांव बसाओ–जीवन बचाओ’ यात्रा यह रेखांकित करती है कि हिमालयी पारिस्थितिकी और ग्रामीण समाज दोनों की स्थिरता के लिए गांवों का पुनर्जीवन अनिवार्य है। पलायन को केवल भावनात्मक नहीं, बल्कि वैज्ञानिक, आर्थिक और नीतिगत ढाँचे में समझने की आवश्यकता है।
हिमालय तभी बचेगा- जब गांव बसेंगे।
और गांव तभी बसेंगे-जब विज्ञान, नीति और समाज एक साथ आगे बढ़ेंगे।


