पर्यावरणवाद के 76 साल

पर्यावरण आंदोलन ने नीतियों और विकास के तरीकों को आकार देने में जो भूमिका निभाई है, उसका जायजा लेने का सही समय यही है।
इलस्ट्रेशन : योगेन्द्र आनंद / सीएसई
इलस्ट्रेशन : योगेन्द्र आनंद / सीएसई
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हाल ही देश ने अपनी आजादी का 76वां वर्ष मनाया। पर्यावरण आंदोलन ने नीतियों और विकास के तरीकों को आकार देने में जो भूमिका निभाई है यह उसका जायजा लेने का सही समय है। इस आंदोलन की  तीन अलग-अलग धाराएं हैं जिनकी छाप हम अपने इतिहास पर देख सकते हैं। पहली, जहां पर्यावरणीय कार्रवाई ने प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन के लिए विकासात्मक रणनीति को परिभाषित करने में भूमिका निभाई है। दूसरी, जहां विकासात्मक परियोजनाओं का विरोध हुआ जिसके फलस्वरूप इस कार्रवाई के संदर्भ में आम राय बनी है। तीसरी धारा प्रदूषण और मानव स्वास्थ्य के क्षेत्र में है जहां पर्यावरण आंदोलन नीतियों में बदलाव लाने में सफल हुआ है।

इस आंदोलन की “प्रकृति” जटिल रही है। पिछले 75 वर्षों में हमारा पर्यावरणवाद विकास और संरक्षण के मुद्दों पर विभाजित रहा है। यह विभाजन 1970 के दशक में इस आंदोलन के जन्म के समय से ही मौजूद रहा है। हमारी सरकार ने 1973 में संरक्षण की पश्चिमी अवधारणा के आधार पर प्रमुख प्रजातियों के लिए अभयारण्यों की भूमि की पहचान करने के लिए प्रोजेक्ट टाइगर कार्यक्रम की शुरुआत की थी। लगभग उसी समय, हिमालय में महिलाओं ने चिपको आंदोलन के दौरान लकड़हारों की कुल्हाड़ियों पर लगाम लगाई थी। उनका आंदोलन संरक्षण के लिए नहीं था, उन्हें अपने जीवन यापन के लिए पेड़ों की आवश्यकता थी और इसलिए, वे उन्हें काटने और उन्हें उगाने का अधिकार चाहते थे। यह अंतर हमारी उन नीतियों में सामने आया है जो प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुंध उपयोग और संरक्षण के बीच झूलती रहती हैं। इस सब में समुदायों के अधिकारों को दरकिनार कर दिया  गया है।

प्रोजेक्ट टाइगर के लिए  सबसे बुरा समय 2004 का था जब राजस्थान के सरिस्का राष्ट्रीय उद्यान ने अपने सारे बाघ खो दिए थे। इसके बाद टाइगर टास्क फोर्स द्वारा सुधार के लिए एजेंडा तय किया, जिसमें रिजर्व की सुरक्षा को मजबूत करना और कोर क्षेत्रों से ग्रामीणों का स्थानांतरण शामिल था। तब से जंगल में बाघों की संख्या स्थिर हो गई है। हालांकि, यह सवाल बना हुआ है कि क्या स्थानीय समुदायों को इस संरक्षण प्रयास से लाभ हो रहा है।

इसी प्रकार, चिपको आंदोलन ने देश को वन संरक्षण और वनीकरण के लिए प्रेरित किया। 1980 के दशक तक वन संरक्षण अधिनियम लागू किया जा चुका था जिसके अनुसार केंद्र की अनुमति के बिना वन भूमि का उपयोग वर्जित था। इस कानून ने कुछ हद तक वन परिवर्तन की प्रवृत्ति को रोकने का काम किया है, लेकिन इससे स्थानीय समुदाय उन वनों से बिछड़ गए हैं जिनकी देखभाल वे पहले किया करते थे। आज सवाल यह है कि जंगल कैसे उगाए जाएंगे, फिर काटे जाएंगे और फिर उगाए जाएंगे ताकि भारत एक लकड़ी आधारित अर्थव्यवस्था की ओर बढ़ सके जिससे  स्थानीय लोगों को भी फायदा हो।

1980 के दशक में, नर्मदा नदी पर बांध बनाने की परियोजना इस  “विनाशकारी” विकास का केंद्र बनकर उभरी थी। वर्ष 1983  में केरल  के उपोष्णकटिबंधीय जंगलों की समृद्ध जैव विविधता की रक्षा के लिए साइलेंट वैली जलविद्युत परियोजना को रोकने के निर्णय के बाद यह हुआ। नर्मदा परियोजना के मामले में, जंगलों के नुकसान और विस्थापित गांवों के पुनर्वास का मुद्दा भी शामिल था। इस आंदोलन को तारीफ और निंदा दोनों का सामना समान रूप से करना पड़ा लेकिन इसने नीति और फिर, सबसे महत्वपूर्ण, व्यवहार में पर्यावरण और विकास के बीच संतुलन कैसे बनाया जाए, इस मुद्दे को उठाया।

1980 के दशक की इन हाई-प्रोफाइल परियोजनाओं की बदौलत 1990 के दशक में पर्यावरणीय प्रभाव मूल्यांकन और मंजूरी की साज-सज्जा की स्थापना हुई। लेकिन संतुलन बनाने का यह  कार्य अभी चल ही रहा है। यह 1980 के दशक के उत्तरार्द्ध का सूखा था जिसने हमारे सहयोगी और पर्यावरणविद् अनिल अग्रवाल को जल प्रबंधन के प्रतिमान को एक नयी दृष्टि से देखने के लिए प्रेरित किया। डाइंग विजडम  पुस्तक में हमने विभिन्न पारिस्थितिक तंत्रों में पारंपरिक जल प्रबंधन की तकनीकी सरलता को दिखाया है। इसने विकेंद्रीकृत और समुदाय-आधारित जल संरक्षण के विचार पर जोर दिया, जिसके बाद जलाशयों के पुनर्जनन की नीति में बदलाव आया और आजीविका में सुधार एवं जल संरक्षण की दिशा में काम हुआ।

दिसंबर 1984 में  भोपाल स्थित यूनियन कार्बाइड की फैक्ट्री से गैस लीक हुई और हजारों लोग तुरंत मारे गए जिसके फलस्वरूप  औद्योगिक दुर्घटनाओं से निपटने के लिए कानूनों में सुधार हुआ और, कुछ हद तक, कंपनियों की तैयारियों में सुधार हुआ। लेकिन हम उन लोगों को न्याय दिलाने में विफल रहे हैं जो अभी भी स्वास्थ्य समस्याओं से पीड़ित हैं और जिनके  पास आजीविका के साधनों अभाव है।

1990 के दशक में दिल्ली में स्वच्छ हवा के अधिकार की लड़ाई शुरू हुई। इस लड़ाई से ईंधन और प्रौद्योगिकी की गुणवत्ता में सुधार हुआ जिसके बाद दिल्ली सरकार ने तुलनात्मक रूप से स्वच्छ सीएनजी को अपनाया।  लेकिन जैसे-जैसे सड़कों पर वाहन और गंदे ईंधन का दहन बढ़ता गया, वैसे-वैसे वायु प्रदूषण में भारी वृद्धि हुई। अच्छी खबर यह है कि आज, प्रदूषण और स्वास्थ्य पर इसके प्रभावों के खिलाफ व्यापक राय बनी है। बुरी खबर यह है कि हम यातायात प्रणालियों को सुदृढ़ करने के लिए पर्याप्त प्रयास नहीं कर रहे हैं, उद्योग, बिजली या खाना पकाने के लिए गंदे ईंधन के उपयोग को रोकना भी आवश्यक है।

ऐसी कई अन्य घटनाएं हैं जिन्हें पर्यावरण इतिहास डायरी में अवश्य दर्ज किया जाना चाहिए। हालांकि, भारत के पर्यावरण आंदोलन का सबसे महत्वपूर्ण लाभ है अपने नागरिकों की मांगों का उठाना। यही आंदोलन की आत्मा है। 

पर्यावरणवाद का मकसद लोकतंत्र को मजबूत करना है, कोई तकनीकी सुधार नहीं।

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