साल 2019 के अंत में नेशनल सैंपल सर्वे ऑफिस की उपभोग रिपोर्ट मीडिया में लीक हो गई। इस रिपोर्ट में ग्रामीण क्षेत्रों में उपभोग में गिरावट का इशारा है। प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से कृषि पर निर्भर ग्रामीण आबादी ने कम उपभोग किया है। उपभोग के आंकड़े बताते हैं कि ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले भारतीय इतना भी नहीं कमा पाते कि वह अपनी मूलभूत उपभोग की जरूरतों पर खर्च कर सकें। हालांकि सरकार ने इस रिपोर्ट को खारिज कर दिया है।
साल 2020 में भारत की गरीबी चर्चा में रहेगी। यह इसलिए नहीं कि राजनेता इस मामले को उठा रहे हैं बल्कि इसलिए कि राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में इसका वीभत्स रूप दिखाई देगा। इससे आर्थिक विकास दर औंधे मुंह गिरेगी।
हाल के वर्षों में कृषि क्षेत्र जहां एक तरफ सरकार की उदासीनता से जूझ रहा है, वहीं दूसरी तरफ प्रकृति की मार भी इस पर पड़ी है। सरकारी नीतियां किसानों को उपज का उचित मूल्य देने में नाकाम रही हैं, जबकि अतिशय मौसम की घटनाओं से उपज को बड़े पैमाने पर नुकसान पहुंचा है। किसान परिवार के स्तर पर इसका है सीधा सा मतलब है जीडीपी का शून्य विकास। बिना आमदनी आर्थिक गतिविधियों की उम्मीद नहीं की जा सकती।
भारत के अधिकांश गरीब अपनी आजीविका के लिए कृषि पर निर्भर हैं। पिछले चार साल से गिरावट का ऐसा ही चलन देखा जा रहा है। सरकारी सर्वेक्षण में अब उपभोग में गिरावट के इसी चलन की झलक मिली है। जिस अर्थव्यवस्था में व्यापार की शर्तें किसानों के पक्ष में नहीं होतीं, वहां आय में लगातार गिरावट होती रहती है, इसीलिए आगे भी गरीबी बढ़ेगी। 2020 में यह टिपिंग प्वाइंट पर पहुंच सकती है जिससे लाखों लोग कर्ज और गरीबी के भंवर में फंस जाएंगे।
इस गिरावट का सबसे ज्यादा प्रभाव राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था पर दिखाई देगा। राष्ट्रीय जीडीपी पर कृषि का महत्वपूर्ण योगदान नहीं है लेकिन यह बहुसंख्यकों को जीवित रखती है। इसलिए कृषि से संबंधित आर्थिक गतिविधियों का एक महत्वपूर्ण हिस्सा इससे प्रभावित होता है, भले ही वह संपत्ति का सृजन न करे। एक बार जब यह बहुसंख्यक आबादी उपभोग कम कर देती है तो राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की गति भी ठहर जाती है। यही वजह है कि साल 2020 में उपभोग और ग्रामीण गरीबी सुर्खियां बटोरेगी। ऐसे में सवाल यह भी है कि सरकार इससे कैसे उबरेगी?
सबसे पहले सरकार को यह देखना होगा कि उपभोग को कैसे बढ़ाया जाए। साधारण शब्दों में कहें तो वह लोगों को खर्च करने के लिए पैसे देगी। कारपोरेट और व्यक्तिगत स्तर पर कर में छूट से उपभोग में आंशिक बढ़ोतरी होगी। राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के विकास में सकारात्मक प्रभाव डालने के लिए ग्रामीण परिवारों को अधिक उपभोग करना होगा। इसे फलीभूत करने के लिए सरकार को कल्याणकारी योजनाओं के साथ रोजगार के सृजन के लिए आधारभूत ढांचे पर बहुत अधिक खर्च करना होगा।
लेकिन सरकार के पास पर्याप्त धन नहीं है। इस कारण सरकार के सामने प्रत्यक्ष टकराव की स्थिति पैदा होगी और उसे निवेश की प्राथमिकताएं तय करनी पड़ेंगी। ऐसे में क्या सरकार को कारपोरेट और व्यक्तिगत कर में छूट देनी चाहिए? यह अभी नहीं हो सकता क्योंकि सरकार को ग्रामीण क्षेत्रों पर खर्च करने के लिए धन चाहिए। सरकार मध्यम व उच्च वर्ग के मतदाताओं के गुस्से का भी सामना कर रही है। अर्थव्यवस्था में मंदी के दौर में उन्हें भी कारोबार और जीवनस्तर को बनाए रखने के लिए पैसों की जरूरत है।
निर्विवाद रूप से साल 2020 में राष्ट्रीय बहस अर्थव्थवस्था पर ही केंद्रित रहेगी। हम देख रहे हैं कि टकराव की स्थिति में गरीबों और अमीरों के बीच धुव्रीकरण बेहद तेजी से हो रहा है। इससे देश में गहराई से जड़ें जमा चुकी असमानता फिर चर्चा में आएगी। ग्रामीण क्षेत्र पर खर्च होने वाले हर अतिरिक्त रुपए पर एक होड़ होगी। इसके प्रत्युत्तर में ग्रामीणों के पक्षधर समूह इसे इक्विटी का मुद्दा बना देंगे। इस परिप्रेक्ष्य में कहा जा सकता है कि 2020 निश्चित रूप से ऐसा साल होगा जब भारत में गरीबी फिर से मुद्दा बनेगी। नए साल के लिए यह एक अच्छी खबर है।