इंटरगवर्नमेन्टल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) की हाल ही में जारी रिपोर्ट ने साफ कर दिया है कि वैश्विक तापमान (ग्लोबल वार्मिंग) किसी भी स्तर पर सुरक्षित नहीं है। पेरिस समझौते में बनी सहमति के अनुसार वैश्विक तापमान को पूर्व औद्योगिक काल के तापमान से 1. 5 डिग्री सेल्सियस के भीतर रखना है। इस समझौते में शामिल देशों के पास अब केवल 12 वर्ष शेष हैं। शेष बचे समय में अर्थव्यवस्था और समाज में आमूलचूल परिवर्तन किए जाने की आवश्यकता है। आईपीसीसी द्वारा इस विषय पर प्रस्तुत की गई “स्पेशल रिपोर्ट ऑन 1. 5 डिग्री सेल्सियस (एसआर 1.5)” साफ तौर पर चेतावनी देती है कि यदि वर्ष 2050 तक कुल कार्बन उत्सर्जन शून्य तक नहीं आया तो 1. 5 डिग्री सेल्सियस से अधिक तापमान का बढ़ना अवश्यम्भावी है।
आईपीसीसी रिपोर्ट पर भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) दिल्ली के सेंटर फॉर ऐट्मस्फेरिक(वायुमंडलीय) साइंस की प्रमुख प्रोफेसर मंजू मोहन ने डाउन टू अर्थ को बताया कि भारत पर पूर्व में किए गए कई अध्ययनों ने तापमान वृद्धि की पुष्टि की है। इसके अलावा पिछले कुछ दशकों से लगातार बढ़ रहे मौसम के प्रकोप से हम समझ सकते हैं कि आईपीसीसी की अंतरिम रिपोर्ट क्या कहती है। सतत विकास की दिशा में सारे प्रयासों को तेज किया जाएगा ताकि 2050 और उसके बाद अपूरणीय क्षति से बचा जा सके।
हालांकि इस रिपोर्ट को उत्तराखंड के क्लाइमेट एक्शन प्लान के प्रमुख आर.एन. झा यह कहते हैं कि हालात इतने खराब नहीं होंगे जितने का भय है। इसका उदाहरण देते हुए वह बताते हैं कि जलवायु परिवर्तन का प्रभाव भारत की जीडीपी में कमी के रूप दिखाई दे सकता है, पर यह भी सही है कि सरकार दुनियाभर के निवेशकों को बुला रही है। इससे जीडीपी बढ़ेगी। वह बताते हैं कि इस रिपोर्ट को तैयार करने वाले वैज्ञानिकों की पहुंच बहुत सीमित है। वह कहते हैं कि जलवायु परिवर्तन का हल तो आम जनता ही निकालेगी। इसके लिए पेरिस समझौता या दूसरे समझौते का कोई मतलब नहीं है।
2015 में पेरिस समझौते पर हस्ताक्षर किए जाने के बाद से इस रिपोर्ट पर काम चल रहा है और इस दौरान पूरी दुनिया यह पता करने में लगी है कि आखिर वे कौन सी चीजें हैं, जिनके भरोसे 1. 5 और 2 डिग्री सेल्सियस के लक्ष्य निर्धारित किए गए थे। तब से लेकर अब तक कुल मिलाकर 224 लेखकों और समीक्षकों ने 6 हजार से अधिक वैज्ञानिक प्रकाशनों को बारीकी से पढ़ा। यह मेहनत-मशक्कत दुनिया के मौसम की हकीकत जानने के लिए की गई। पूरी दुनिया से आई कुल 1,113 समालोचनाओं के बाद इस रिपोर्ट को सार्वजनिक कर दिया गया।
इस रिपोर्ट को दक्षिणी कोरिया के इंचियोन शहर में 130 देशों से आए प्रतनिधियों और 50 वैज्ञानिकों की एक टीम द्वारा हफ्ते भर के विचार विमर्श के बाद 8 अक्टूबर को सार्वजनिक कर दिया गया। इस रिपोर्ट को आईआईटी दिल्ली के प्रोफेसर कृष्णा अच्युतराव बहुत अच्छी मान रहे हैं। वास्तव में पिछले ढाई दशकों से आईपीसीसी आत्महत्या की ओर तेजी से अग्रसर इस दुनिया के लिए अंधे की लाठी का काम कर रही है।
पूर्व-औद्योगिक काल से तुलना की जाए तो विश्व का तापमान 1.2 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ चुका है और इसका असर भी दिख रहा है। मौसम में तीव्र परिवर्तन, समुद्र के जलस्तर में वृद्धि और आर्कटिक सागर में पाई जाने वाली बर्फ की मात्रा में कमी जैसे कुछ संकेत बिलकुल साफ हैं। अकेले साल 2018 में ही कई देशों को मौसम का प्रकोप झेलना पड़ा है। चाहे वह यूरोप और चीन में चल रही लू और सूखा हो, अमेरिका के जंगलों में लगी आग हो, भारत में हुई अभूतपूर्व आंधी-बारिश (केरल में आई ऐतिहासिक विनाशकारी बाढ़) हो या जापान और उसके जैसे अन्य द्वीपीय देशों (आइलैंड नेशंस) में हो रही सामान्य से अधिक बारिश। चेतावनी भी दी गई है कि तापमान में 0.5 डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी होने का अंदेशा है।
आशंका है कि वैज्ञानिकों ने जैसे अनुमान लगाए थे, हालात उससे भी बदतर होने वाले हैं। इस बात की पुष्टि करते हुए आईआईटी गांधीनगर के प्रोफेसर विमल मिश्रा ने डाउन टू अर्थ को बताया कि भारत को गर्म जलवायु से होने वाली घटनाओं से ज्यादा खतरा है। उच्च जनसंख्या घनत्व, तेजी से विकासशील आधारभूत संरचना और कृषि आधारित अर्थव्यवस्था, ये सभी कारक भारत को बेहद कमजोर बनाते हैं। उन्होंने कहा, हमने पहले ही दिखाया है कि तापमान में 1.5 डिग्री की बढ़ोतरी होने से भारत में गर्म हवाओं में कई गुना वृद्धि हुई है। इसलिए, भविष्य में गर्म हवाओं की वजह से मृत्यु दर में काफी वृद्धि हो सकती है।
खतरे का निशान
धरती के तापमान में 1.5 डिग्री सेल्सियस की बढ़त का मतलब है समुद्रों के जलस्तर में वृद्धि, बढ़ा हुआ तापमान, बारिश की आवृत्ति तीव्रता में वृद्धि, बाढ़, सूखे और गर्म धूलभरी आंधियां। 1.5 डिग्री सेल्सियस की इस वृद्धि के बाद धरती कुछ ऐसी सीमाओं को पार कर जाएगी, जिससे प्राकृतिक पारिस्थितिक तंत्रों में ऐसे परिवर्तन आ सकते हैं, जिनसे उबरने में सदियां लग सकती हैं। यही नहीं, स्थायी नुकसान भी संभव है।
भारत मुख्यत: कृषि पर निर्भर है। यहां बाढ़, सूखा, पानी और भोजन के उत्पादन में कमी जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है। इस वजह से आबादी का एक बड़ा हिस्सा गरीबी, भुखमरी और बेरोजगारी की चपेट में आ सकता है।
1.5 और 2 डिग्री सेल्सियस के बीचे के अंतर का बुरा प्रभाव यहीं समाप्त नहीं हो जाता। फसल उत्पादकता एवं अनाज के पोषण में कमी और कोरल एवं कीटों के विलुप्त होने की दर में पचास प्रतिशत तक की वृद्धि हो सकती है।
कार्बन बजट
भविष्य की गर्म दुनिया कैसी दिखेगी, इसका अनुमान लगाने के अलावा आईपीसीसी को एक और महत्वपूर्ण जिम्मा सौंपा गया था। पैनल को कार्बन बजट की वह सीमा भी निर्धारित करनी थी जो विश्व को 1.5 डिग्री सेल्सियस से अधिक गर्म होने से बचा सकती है। एसआर 1.5 में कुछ सिम्युलेशन भी शामिल हैं जो दर्शाते हैं कि अगर ग्लोबल मीन सर्फेस टेम्प्रेचर की बात की जाए तो हमें पता लगेगा कि पृथ्वी का बचा हुआ कार्बन बजट केवल 770 गीगाटन कार्बन डाइऑक्साइड का है। यह सिम्युलेशन वर्ष 2018 की शुरुआत से 1.5 डिग्री सेल्सियस का आंकड़ा पार करने की स्थिति दर्शाता है। उत्सर्जन के वर्तमान स्तर पर अगर वातावरण से कार्बन डाइऑक्साइड को हटाया न जाए तो यह बजट वर्ष 2040 तक खत्म हो जाएगा। रिपोर्ट यह चेतावनी भी देती है कि कार्बन बजट का यह अनुमान असल मात्रा से काफी भिन्न हो सकता है क्योंकि पृथ्वी की प्रणालियों, तापमान में समय के साथ हुआ परिवर्तन और ग्रीनहाउस गैसों (कार्बन डाइऑक्साइड के अलावा) के आंकड़े हमेशा विश्वसनीय नहीं रहते।
भारत के लिए मुश्किल हो रही डगर
एसआर 1. 5 रोडमैप का पालन तभी संभव है जब सारे राष्ट्र पेरिस समझौते के अंतर्गत निर्धारित की गई अपनी नेशनल डिटर्मिन्ड कंट्रिब्यूशंस (एनडीसी) में बदलाव करने को राजी हों क्योंकि वर्तमान लक्ष्यों को लेकर चला जाए तो धरती का तापमान 3 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ सकता है। भारत के लिए यह एक बड़ा खतरा साबित हो सकता है क्योंकि हमारा देश बड़ा उत्सर्जक होने के साथ-साथ मौसम की अनिश्चितताओं का भी शिकार रहा है।
हमारे देश की ऊर्जा खपत और उत्सर्जन का स्तर 2030 तक अपने चरम पर पहुंचेगा लेकिन अनुमान है कि अभी से ही भारत प्रतिवर्ष अपनी जीडीपी का लगभग डेढ़ प्रतिशत हिस्सा खराब मौसम की वजह से खोता आया है। यही नहीं, वैश्विक तापमान में 1 डिग्री सेल्सियस की इस वृद्धि के फलस्वरूप कृषि क्षेत्र में भी सालाना 4 से 9 प्रतिशत तक की कमी दर्ज की गई है। अगर तापमान 1.5 डिग्री से ज्यादा बढ़ा तो भारत में भीषण गरीबी की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता।
मौसम को लेकर चल रही इस बहस में भारत का पास यह मौका है कि वह वैश्विक स्तर पर नेतृत्व प्रदान करे और दुनिया को बताए कि वह जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर गंभीर है। भारत को अपने घरेलू संसाधनों को फौरन बचाव एवं संरक्षण की दिशा में लगाना चाहिए। हालांकि विकसित देशों से तकनीकी और आर्थिक सहयोग की आवश्यकता होगी।
एसआर 1.5 में उत्सर्जन को फौरी तौर पर कम करने की आवश्यकता पर जोर दिया गया है। इसमें कोई दो राय नहीं है लेकिन रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि वातावरण से कार्बन को निकालने की जरूरत है। रिपोर्ट बताती है कि दुनियाभर में इस सदी के अंत तक कार्बन डाइऑक्साइड हटाने का लक्ष्य 100-1000 GTCO2eq तक होना चाहिए। हालांकि इस रास्ते में कई अड़चनें हैं फिर भी लेखकों ने कार्बन डाइऑक्साइड हटाने के 6 तरीके सुझाए हैं। इसमें पौधे लगाने और जैविक कचरे का इस्तेमाल करने जैसे पारम्परिक सुझाव शामिल हैं। इसमें कार्बन कैप्चर एंड स्टोरेज (सीसीएस) जैसी नई तकनीकों की ओर भी ध्यान आकर्षित किया गया है। इस तकनीक के दो तरीकों पर रिपोर्ट में विचार किया गया है। पहली, बायो एनर्जी विथ सीसीएस, जो सीधा कारखानों से कार्बन इकठ्ठा करती है और दूसरी डायरेक्ट एयर सीसीएस जो सीधा वातावरण से कार्बन डाइऑक्साइड खींचकर उसे संग्रहित करती है। इन दोनों तरीकों को मिला दिया जाए तो हर साल लगभग 10 GTCO2 कार्बन का उपचार किया जा सकता है लेकिन इसके पीछे आनेवाला खर्चा ढाई ट्रिलियन डॉलर का होगा। रिपोर्ट ने इस सदी के अंत तक सीडीआर (CO रिमूवल) का लक्ष्य 1000 GTCO2 निर्धारित किया है लेकिन वर्तमान अनुमान बताते हैं कि 2050 तक केवल 25 GTCO2 लक्ष्य ही प्राप्त किया जा सकता है जिसकी लागत 4.7 ट्रिलियन डॉलर होगी। इन कारकों की वजह से सीडीआर के भविष्य को लेकर अनिश्चितता का माहौल बना हुआ है। इसके अलावा, रिपोर्ट यह भी कहती है कि सीसीएस अधिकांश एनडीसी से गायब है और इसमें निवेश की संभावना भी कम है।
1000 GTCO2 के लक्ष्य को कम करने की जरूरत है। इसके लिए सभी देशों को अपने उत्सर्जनों में भारी कटौती करनी होगी। अगर हम 1.5 डिग्री सेल्सियस के इस लक्ष्य को पाने में नाकामयाब रहते हैं और बाद में डी-कार्बनाइजेशन की प्रक्रिया अपनाती पड़ेगी और सीडीआर का महत्व बढ़ जाएगा। हालांकि इस विषय में जागरुकता की कमी है। तापमान नियंत्रण की दिशा में नेट नेगेटिव एमिशन्स का अत्यधिक महत्त्व है। वैज्ञानिक जगत अपना फैसला सुना चुका है जो इस रिपोर्ट में दिखाई भी देता है। पेरिस समझौते में निर्धारित की गई सीमाओं का टूटना तय है। इसे तभी रोका जा सकता है जब सरकारें इस दिशा में पूर्व निर्धारित लक्ष्यों से कहीं ठोस और अभूतपूर्व कदम उठाएं। आईपीसीसी की वर्किंग ग्रुप-3 के सह-अध्यक्ष जिम स्की ने कई बार यह दोहराया भी है कि आईपीसीसी का काम सुझाव देना है। उन पर कदम उठाना सरकार का काम है। सर्वप्रथम एनडीसी के लक्ष्यों को बढ़ाए जाने की आवश्यकता है। इसके अलावा एक ऐसी पेरिस रूलबुक बनाए जाने की जरूरत है जो आवश्यकताओं को रिपोर्ट किए जाने को बढ़ावा दे। इन दोनों ही प्रक्रियाओं को इस वर्ष के अंत तक पूरा कर लिए जाने की जरूरत है। फिलहाल तो सबकी निगाहें दिसंबर में केटोवीसा में होने वाली कॉन्फ्रेंस ऑफ दि पार्टीज 24 पर है।
एक्शन प्लान
भारत सरकार 2008 में ही नेशनल एक्शन प्लान ऑन क्लाइमेट चेंज (एनएपीसीसी) का गठन कर चुकी है लेकिन आज दस साल बाद भी इस दिशा में कोई खास काम नहीं हो पाया है। ग्लोबल क्लाइमेट रिस्क इंडेक्स ऑफ 2018 के अनुसार, जिन देशों पर जलवायु परिवर्तन का सबसे बड़ा खतरा है, भारत उनमें 12वें स्थान पर है। वैसे भी, एनएपीसीसी विनियामक संस्था न होकर महज एक राजनैतिक संदेह भर रह गया है जो सरकार ने विकसित देशों को भेजा था। यह मिशन कितना सफल हो पाया, यह देखने वाली बात है।
बहुत महत्वाकांक्षी (शुरुआती आवंटन 20,000 करोड़ का जिसमें से 2015 तक केवल 2.16 करोड़ खर्च हो पाए थे) होने के बावजूद यह मिशन अब तक ढंग से शुरू ही नहीं हो पाया है। लक्ष्य निर्धारित कर लिए गए हैं लेकिन उन्हें प्राप्त करने की कोई रणनीति निर्धारित नहीं की गई है। नहरों एवं वाटर ट्रीटमेंट प्लांट के निर्माण की प्रक्रिया भी कछुए की चाल से चल रही है। राज्यों को अपने हिसाब से स्टेट स्पेसिफिक एक्शन प्लान बनाने थे लेकिन अब तक एक भी राज्य ने ऐसा नहीं किया है।
नेशनल मिशन फॉर सस्टेनिंग हिमालयन इकोसिस्टम (एनएमएसएचई) एवं नेशनल मिशन फॉर स्ट्रैटेजिक नॉलेज ऑन क्लाइमेट चेंज (एनएमएसकेसीसी) का लक्ष्य नई जानकारी इकठ्ठा करने के साथ-साथ वैज्ञानिकों, नीति-निर्माताओं एवं नेताओं के बीच की कड़ी बनना भी है। एनएमएसएचई के अंतर्गत हिमालयन पारिस्थिितक तंत्र पर काम कर रहे संस्थानों और सिविल सोसाइटी संस्थाओं की मैपिंग की गई जबकि एनएमएसकेसीसी के अंतर्गत पर्यावरण की दृष्टि से महत्वपूर्ण आर्थिक क्षेत्रों जैसे कृषि, जल, ऊर्जा, जंगल इत्यादि की। दोनों ही मिशनों ने अपने-अपने क्षेत्रों में शोध को बढ़ावा दिया है लेकिन उसका कोई खास जमीनी असर नहीं हुआ है। इसके अलावा संसाधनों की भी कमी रही है। हालांकि केंद्र सरकार के विज्ञान एवं तकनीकी विभाग के प्रमुख अखिलेश गुप्ता का दावा है कि हमने पिछले 7 सालों में वैज्ञानिक शोध किए हैं और आने वाले समय में इनका विस्तार से अध्ययन किया जाएगा। अब तक हमारी सबसे बड़ी कामयाबी यह है कि इन दोनों मिशनों के अंतर्गत 55,000 सरकारी कर्मचारियों को प्रशिक्षण दिया है।
जलवायु परिवर्तन के इस दौर में अक्षय ऊर्जा के स्रोतों पर खासा जोर दिया जा रहा है और उसी कड़ी में इस मिशन की शुरुआत 2010 में की गई। इसका लक्ष्य वर्ष 2022 तक 100 गीगावाट सालाना ऊर्जा पैदा करना है। मिशन का बजट (2010 में 350 करोड़ से 2018 में 9187 करोड़) भी समय के साथ बढ़ा है। हालांकि 2015 में निर्धारित किए गए ताजा लक्ष्यों की बात करें तो काफी काम बचा है। सोलर पार्क स्थापित करने की भी योजना थी लेकिन उसमें राज्यों ने कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। इस मिशन के समन्वयक दिलीप निगम कहते हैं कि हमने अपने लक्ष्य को फिर से संशोधित किया है। उनका कहना है कि इस क्षेत्र की सबसे बड़ी समस्या नवीकरणीय ऊर्जा के संग्रहण की है। इस दिशा में नई प्रौद्योगिकी की मदद ले रहे हैं। नेशनल मिशन फॉर एन्हांस्ड एनर्जी एफिशिएंसी मिशन का मूलमंत्र परफॉर्म, अचीव एंड ट्रेड रहा है। इसका कार्यान्वयन चार चरणों में किया जा रहा है। पहले चरण में ऊर्जा की अधिक खपत (थर्मल पावर प्लांट, लोहा एवं इस्पात, सीमेंट इत्यादि) वाले क्षेत्रों को रखा गया है जबकि दूसरे चरण में रेलवे और रिफाइनरी हैं। पहले चरण की सफलता से सरकार काफी खुश है लेकिन सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट (सीएसई) द्वारा प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार, इस योजना में अंतरक्षेत्रीय संबंधों की कमी है, जिस पर नीति आयोग भी टिप्पणी कर चुका है। नेशनल मिशन ऑन सस्टेनेबल हैबिटाट मिशन का लक्ष्य ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करना है। यह कार्यालयों एवं घरों की ऊर्जा कार्यक्षमता को बढ़ाकर या सार्वजनिक यातायात के साधनों के प्रयोग से हो सकता है। किसी भी प्रकार के उत्सर्जन का केंद्र मुख्यतः शहरी क्षेत्र ही होते हैं। 2011 में विश्व बैंक के अनुमान के मुताबिक, शहरों में कुल ऊर्जा खपत का दो-तिहाई से भी ज्यादा हिस्सा लगता है जबकि कुल उत्सर्जन में उनका हिस्सा 70 प्रतिशत के लगभग है। हालांकि शुरुआत के 8 साल बाद भी इस मिशन को फंड का आवंटन नहीं हुआ है। दरअसल बाकी शहरी विकास योजनाओं के लिए यह एक “अम्ब्रेला टर्म” (यह मिशन कई कई योजनाओं का समूह) भर बनकर रह गया है।
नेशनल मिशन फॉर सस्टेनेबल एग्रीकल्चर मिशन के चार मुख्य भाग हैं जिनका उद्देश्य भूमि की उर्वरता की पड़ताल से लेकर नए पेड़ लगाने व जलवायु परिवर्तन से बचाव के नए मॉडल बनाना है। कृषि भारत की लगभग आधी आबादी के लिए आजीविका का साधन है और जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभाव सर्वप्रथम इसी क्षेत्र पर पड़ने की आशंका है। इस मामले में भारत के सामने एक दोहरी चुनौती है-जलवायु परिवर्तन के असर से बचते हुए उत्सर्जन की मात्रा को कम करना। हालांकि सरकार यहां भी अपना बजट खर्च कर पाने में अक्षम रही है। ग्रीन इंडिया की शुरुआत 2011-12 में ही होनी थी लेकिन आवंटन में देरी की वजह से 2014 तक का इंतजार करना पड़ा। मिशन का उद्देश्य वनाच्छादित भूमि को बढ़ाना व जंगलों पर निर्भर समुदायों की संख्या बढ़ाना है लेकिन सरकारी देरी व बजट में कटौती से योजना अपने लक्ष्य से कहीं पीछे चल रही है। यही नहीं, यह मिशन जनता को वैकल्पिक ईंधन प्रदान करने के लक्ष्य में भी सफल नहीं हो पाया है। 2015 -16 के आंकड़ों के मुताबिक, कुल लक्ष्य का केवल एक चौथाई ही हासिल हो पाया है।
2009 में राज्यों एवं केंद्र शासित प्रदेशों को स्थानीय आवश्यकताओं के हिसाब से स्टेट एक्शन प्लान ऑन क्लाइमेट चेंज (एसएपीसीसी ) बनाने को कहा गया था। कुल 32 राज्यों ने अपने मसौदे केंद्र सरकार को भेजे। उनके विश्लेषण से कई खामियां सामने आई हैं। उदाहरण के लिए उत्तराखंड और मिजोरम की एसएपीसीसी में कहीं भी वल्नरेबिलिटी असेसमेंट का जिक्र नहीं था जो इस मिशन का एक मुख्या पहलू रहा है। इसके अलावा राज्य बजट को लेकर भी पशोपेश की स्थिति में हैं। साथ ही साथ जनता और वैज्ञानिक समुदाय में सामंजस्य की भी भारी कमी है।
(साथ में आशीष सेनापति, जितेंद्र, ईशान कुकरेती, अनुपम चक्रवर्ती और अब्दुल सलम)
असर पर नजरआईपीसीसी की रिपोर्ट में भारत के कई राज्यों में बाढ़, लू और सूखे के साथ समुद्री जलस्तर बढ़ने का अनुमान लगाया गया है। कई जगह वैश्विक तापमान का असर महसूस भी किया जाने लगा है औसत से अधिक बािरशपिछले कुछ वर्षों में राजस्थान के कुछ इलाकों में औसत से कहीं अधिक बारिश हो रही है। इसके फलस्वरूप फसलों को भारी नुकसान पहुंचा है और बाढ़ जैसे हालात बन चुके हैं। वर्षा में वृद्धि की वजह से कीटों की संख्या बढ़ी है और इसका शिकार दालों से लेकर गेहूं जैसी रबी फसलें भी हुई हैं। यही नहीं, इलाके की मिट्टी में पानी आसानी से अंदर नहीं जाता जिसके फलस्वरूप खेतों में जलजमाव की समस्या होती है। मौसम की इस अनिश्चितता की वजह से किसान अब बागवानी की तरफ रुख कर रहे हैं। इसमें सिंचाई के लिए ड्रिप इरिगेशन जैसे वैकल्पिक साधन इस्तेमाल में लाए जा रहे हैं। हालांकि केवल अमीर किसान ही ऐसा कर पा रहे हैं। छोटे और मझोले किसानों ने पशुपालन का सहारा लिया है। पारंपरिक खान-पान पर असरबदलते मौसम का असर अब असम की परंपरा और वहां के खान-पान पर भी पड़ रहा है। नामसिंग नाम की एक स्थानीय व्यंजन जो किसी जमाने में इस इलाके की पहचान और रोजमर्रा के भोजन का हिस्सा हुआ करती थी, अब केवल कभी-कभार ही परोसी जाती है। बारिश के स्वरूप में परिवर्तन की वजह से मछलियों के प्रजनन पर असर पड़ा है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार, 1951 से 2010 के बीच राज्य में हुई सालाना बारिश में 2.96 मिलीमीटर प्रतिवर्ष की कमी आई है, वहीं तापमान में 0.01 सेल्सियस प्रति वर्ष की दर से वृद्धि हुई है। यही नहीं, कभी-कभी तो सूखा व अचानक बाढ़ साथ आ रहे हैं। इस पानी में गाद की भारी मात्रा होती है जिसका मत्स्यपालन पर बुरा प्रभाव पड़ा है। |
समुद्र में चार गांव समा गएबंगाल की खाड़ी ने ओडिशा के सतभैया गांव का नक्शा ही बदलकर रख दिया है। केंद्रपाड़ा जिले की सतभैया ग्राम पंचायत में पहले 7 गांव हुआ करते थे जिनमें से अब केवल 3 बचे हैं। किसी जमाने में यहां धान व नारियल की खेती होती थी लेकिन 1971 के चक्रवाती तूफान के बाद से लेकर अब तक करीब 2,400 हेक्टेयर की कृषि योग्य भूमि समुद्र में समा गई है। इस गांव के 12 किलोमीटर लम्बे समुद्रतट का पूरे राज्य में सबसे तेजी से क्षरण हो रहा है। इसके मद्देनजर राज्य सरकार ने वर्ष 2016 में राज्य की पहली पुनर्वास परियोजना यहां से 12 किमी दूर स्थापित की थी। अप्रैल, 2018 तक इस गांव के कुल 650 में से 577 परिवारों को पुनर्वासित किया जा चुका है लेकिन नई जगह पर रोजगार की कमी है और चारागाह भी नमकीन हो रहे हैं। |
हिमपात के स्वरूप में बदलावहिमाचल की गद्दी जनजाति सदियों से पशुपालन में लगी है। उनका कहना है कि पिछले दशकों में चारागाहों की संख्या में भारी कमी आई है। भारतीय मौसम विभाग के अनुसार 2004 से ही कांगड़ा में औसत से कम बारिश होती आ रही है। बारिश व हिमपात के स्वरूप में परिवर्तन की वजह से घास की उपलब्धता पर असर पड़ा है और इन घुमंतू जनजातियों का जीवन प्रभावित हुआ है। अधिक चराई की वजह से भूस्खलन भी हुए हैं। गद्दी अब पहाड़ों की ऊंचाइयों का रुख करने लगे हैं क्योंकि अब ऊपर भी घास होने लगी है। पहले नवंबर से लेकर मार्च तक हिमपात हुआ करता था लेकिन अब यह केवल दिसंबर-जनवरी तक सिमट गया है। बारिश और हिमपात की कमी से माहौल गर्म हुआ है, इससे लंटाना खरपतवार पहाड़ों की ऊंचाइयों तक फैलने लगी है। |
लगातार बारिश से चारागाहों में जंगली घासमालधारी, भारत के सबसे पुराने चरवाहा समुदायों में से हैं और 5 सदियों से गुजरात के बन्नी चारागाह में घुमंतू जीवन बिता रहे हैं। पारम्परिक रूप से इस इलाके में हर चौथे साल बारिश होती आई है लेकिन वर्ष 2000 से लगातार हर साल बारिश के चलते प्रोसोपिस जूलीफ्लोरा नामक जंगली पेड़ ने चारागाहों पर कब्जा जमा लिया। कुछ मालधारियों ने खेती शुरू की जिसका कुछ अन्य ने कड़ा विरोध भी किया है। मई में बन्नी ब्रीडर्ज एसोसिएशन ने एनजीटी में अर्जी डालकर खेती पर रोक लगवा दी। मालधारी चिंतित हैं क्योंकि सरकार ने उन्हें 2006 के वनाधिकार कानून के अंतर्गत मिलने वाले सामुदायिक वन अधिकार भी नहीं दिए। यहां गर्मी में तेज हवाएं चलती हैं और खेती के लिए जोती गई जमीन से भू-क्षरण का खतरा भी बराबर बना रहता है। |
विलुप्तता का खतरालक्षद्वीप पर विलुप्त होने का खतर मंडरा रहा है। एक गैर-आबादी वाला द्वीप पराली-1 को तो समुद्र निगल भी चुका है। आईपीसीसी की 5वीं असेसमेंट रिपोर्ट कह चुकी है कि जलवायु परिवर्तन का सबसे बड़ा दुष्प्रभाव तटीय इलाकों पर ही होगा। लक्षद्वीप में पिछले 20 वर्षों में समुद्र का जलस्तर 60 सेंटीमीटर तक बढ़ गया है। हालांकि इस द्वीप के लिए कटाव चिंता का एकमात्र विषय नहीं है। यह कोरलों के ऊपर बसा है जो 1998, 2010 और 2016 के अल-नीनो प्रभाव के फलस्वरूप क्षतिग्रस्त हो चुके हैं और कोरलों की संख्या में 40 प्रतिशत तक की कमी आई है। जस्टिस आरवी रवींद्रन की टीम द्वारा सुप्रीम कोर्ट में प्रस्तुत की गई एक रिपोर्ट के अनुसार इसके लिए कुछ हद तक मानवीय गतिविधियां और निर्माण कार्य भी जिम्मेदार हैं। |