विश्व पर्यावरण दिवस विशेष: एक और सामूहिक विलुप्ति से कितनी दूर है धरती?

वैज्ञानिकों का कहना है कि हम एंथ्रोपोसीन में हैं और मानव गतिविधियों ने धरती के वजूद को संकट में डाल दिया है
इलेस्ट्रेशन: सोरित/सीएसई
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अपने अस्तित्व के 450 करोड़ साल के कालखंड में धरती पर सामूहिक विलुप्ति (मास एक्सटिंक्शन) की पांच बड़ी घटनाएं हुई हैं। आखिरी विलुप्ति करीब 6.6 करोड़ साल पहले हुई जब विशाल डायनासोर विलुप्त हो गए्,  लेकिन स्तनधारियों समेत कई कशेरुकी प्राणियों का अस्तित्व बच पाया। साढ़े छह करोड़ साल बाद आज धरती एक बार फिर अपने अस्तित्व से सबसे बड़े संकट को देख रही है और वैज्ञानिक यह अंदाजा लगाने की कोशिश कर रहे हैं कि छठी सामूहिक विलुप्ति कितना दूर हो सकती है।  

क्लाइमेट साइंटिस्ट कहते हैं कि हम एंथ्रोपोसीन में हैं यानी जब मानव गतिविधियों और कार्यकलापों का पृथ्वी के धरातल और पर्यावरण पर स्पष्ट और बड़ा प्रभावी असर दिखने लगे। विशेषज्ञ बताते हैं कि पिछले 5 सामूहिक विलुप्तियों के विपरीत छठा मास एक्सटिंक्शन पूरी तरह से मानव गतिविधियों (भूमि, जल और अन्य संसाधनों के अंधाधुंध प्रयोग) के कारण होगा

18वीं शताब्दी के आखिरी वर्षों में औद्योगिक क्रांति की शुरुआत हुई और पिछले 150 सालों में धरती का चेहरा ही बदल गया है। मशीनों का इस्तेमाल और जीवाश्म ईंधन के अत्यधिक प्रयोग ने तरक्की का अद्भुत अध्याय लिखने के साथ धरती को विनाश के कगार पर भी ला खड़ा किया है। 

विश्व मौसम विज्ञान संगठन की ताज़ा रिपोर्ट हमें बताती है कि अगले 5 सालों में धरती की तापमान वृद्धि  1.5 डिग्री के बैरियर को पार कर जाएगी, जिसके बाद अति विनाशकारी आपदाओं को नहीं रोका जा सकेगा। अगले पांच सालों में कम से कम एक साथ धरती के इतिहास में रिकॉर्ड तापमान वाला होगा। अब अर्थ कमीशन (जो कि पर्यावरण और समाजविज्ञानियों का समूह है और जिसके 5 अतिरिक्त विशेषज्ञ कार्य समूह हैं) की ताजा रिपोर्ट में कहा गया है कि विभिन्न प्रजातियों के अस्तित्व के लिये और धरती के बचे रहने के लिये जरूरी 8 में 7 लक्ष्मण रेखाएं पार हो गई हैं। अर्थ कमीशन की यह रिपोर्ट नेचर साइंस जर्नल में ऐसे वक्त में प्रकाशित हुई है, जब जर्मनी के बोन शहर में दुनिया के सभी देश महत्वपूर्ण क्लाइमेट वार्ता के लिये इकट्ठा हुए हैं। 

क्लाइमेट विज्ञान की भाषा में इन आठ लक्ष्मण रेखाओं को अर्थ सिस्टन बाउंड्री या ईएसबी कहा जाता है। इन सीमाओं में सुरक्षित और सामान्य जलवायु की तापमान सीमा, सर्फेस वॉटर (नदी, तालाब इत्यादि), भू-जल, नाइट्रोजन, फास्फोरस और एरोसॉल का स्तर और सुरक्षित लेकिन असामान्य जलवायु की तापमान सीमा शामिल हैं। सुरक्षित लेकिन सामान्य जलवायु के लिए अधिकतम तापमान वृद्धि 1 डिग्री है जबकि धरती की तापमान वृद्धि 1.2 डिग्री हो चुकी है और यह लक्ष्मण रेखा मानव तोड़ चुका है। इसी तरह बाकी पैमानों पर भी सुरक्षित स्तर का उल्लंघन हो चुका है केवल सुरक्षित लेकिन असामान्य जलवायु (जिसकी सीमा 1.5 डिग्री तापमान वृद्धि है) ही एक पैरामीटर है जिसका उल्लंघन नहीं हुआ है। 

भौगोलिक रूप से देखा जाये तो इनमें से कई लक्ष्मण रेखाओं का  बड़ा व्यापक उल्लंघन हुआ है। वैज्ञानियों ने अपनी रिसर्च में कहा है कि इन आठ अर्थ सिस्टम बाउंड्री में से दो या तीन का उल्लंघन धरती के 52% भौगोलिक क्षेत्रफल में हुआ है और दुनिया की कुल 86% आबादी पर उसका प्रभाव है। वैज्ञानिकों द्वारा उपलब्ध कराये गये नक्शे से पता चलता है कि भारत उन देशों में है जहां क्लाइमेट से जुड़ी इन रेड लाइंस का सबसे अधिक उल्लंघन हुआ है। संवेदनशील हिमालय के निचले क्षेत्र में 5 सीमाओं को तोड़ा गया है। 

रिपोर्ट को तैयार करने वाले वैज्ञानिकों का कहना है कि यह वो समय है जब मानव ने धरती के अस्तित्व को गहरे में संकट में डाल दिया है। अर्थ कमीशन के संयुक्त-अध्यक्ष जोहन रॉकस्टॉर्म कहते हैं, “हम एंथ्रोपोसीन के दौर में पहुंच गये हैं जब हमने पूरे ग्रह के स्थायित्व और पुनर्जीवन क्षमता को खतरे में डाल दिया है।” 

रॉक स्टॉर्म कहते हैं कि इस भयावह हालात के कारण ही पहली बार वैज्ञानिक अपनी इस रिपोर्ट में मापने योग्य संख्यायें प्रस्तुत कर पा रहे हैं। इसके अलावा अब एक ठोस वैज्ञानिक आधारशिला प्रस्तुत की गई है जिससे न केवल अर्थ सिस्टम के स्थायित्व और पुनर्जीवन क्षमता बल्कि मानव कल्याण और इक्विटी/ न्याय के संदर्भ में हमारे ग्रह की सेहत का आकलन हो सकता है। 

इन वैज्ञानिक जानकारियां और डाटाबेस से हमें खतरे की गंभीरता का तो पता चलता है लेकिन दुनिया के सभी देश इस आसन्न संकट के बावजूद ईमानदारी से कदम उठाने को तैयार नहीं हैं। कोयले और गैस का बढ़ता प्रयोग अब भी दुनिया के तमाम देशों के लिए ऊर्जा और इकोनॉमी का ज़रिया है। दुनिया के कुल कार्बन इमीशन का करीब 40% बिजली क्षेत्र से होता है और इतने बड़े संकट के बावजूद विकसित देश बड़ी-बड़ी ऑयल और गैस कंपनियों के कब्जे में दिखते हैं।

धरती के अस्तित्व के लिए जरूरी है कि उसका 50 से 60 प्रतिशत क्षेत्रफल अपने स्वाभाविक प्राकृतिक रूप में संरक्षित रहे लेकिन अर्थ कमीशन की रिसर्च में बताया गया है कि धरती का 40 प्रतिशत हिस्सा भी संरक्षित नहीं रहा और जो बचा है उसकी पुनर्जीवन क्षमता क्षीण हो चुकी है। स्पष्ट तौर पर यह जैवविविधता के लिये सबसे बड़ा संकट है। दो साल पहले ही सेंटर फॉर साइंस एंड इंवारेंमेंट (सीएसई) ने अपने विश्लेषण बताया कि भारत अपने जैव विविधता प्रचुर (बायो डायवर्सिटी हाट-स्पॉट) क्षेत्रों  का 90% खो चुका है और  इन क्षेत्रों में 25 प्रजातियां विलुप्त हो गई हैं। 

जैव विविधता को लेकर एक दूसरा विश्लेषण बताता है कि 1996 से 2008 के बीच पूरी दुनिया में पक्षियों और स्तनधारियों की प्रजातियों में हुई 60% कमी 7 देशों में केंद्रित रही जिसमें अमेरिका, चीन और ऑस्ट्रेलिया के साथ भारत भी शामिल है।   पिछले 50 सालों में धरती पर जंतुओं की दो-तिहाई आबादी  मानव गतिविधियों के कारण कम हो चुकी है। यह सारे संकेत अगर सामूहिक विलुप्ति न भी कहें तो एक बड़े आसन्न संकट का स्पष्ट प्रमाण हैं। 

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