वैश्विक स्तर पर जिस तरह से जलवायु के पैटर्न में बदलाव आ रहे हैं, उसके चलते शहरों को जल्द ही एक नए खतरे का सामना करना पड़ सकता है। यह नया खतरा है दीमक। एक छोटा सा कीड़ा, जो धीरे-धीरे आपके घरों में सेंध लगाता है, लेकिन यदि एक बार इसने डेरा जमा लिया तो इसे वहां से हटाना आसान नहीं होता।
भले ही देखने में यह छोटा लग सकता है, लेकिन आपको जानकार हैरानी होगी कि आक्रामक दीमकों की वजह से हर साल दुनिया को 3,33,715 करोड़ रुपए (4,000 करोड़ डॉलर) से ज्यादा का नुकसान हो रहा है।
दीमकों को लेकर की गई एक नई रिसर्च से पता चला है कि जैसे-जैसे जलवायु के पैटर्न में बदलाव आ रहा है, उसकी वजह से दुनिया के अधिकांश शहर इस छोटे लेकिन विनाशकारी कीट की चपेट में आ सकते हैं। इसके कोई फर्क नहीं पड़ता कि वो शहर ठन्डे क्षेत्रों में हैं या गर्म, क्योंकि बढ़ता तापमान ठंडे क्षेत्रों में भी शहरों को दीमकों के अनुकूल बना रहा है।
धरती पर अविश्वसनीय रूप से बड़ी संख्या में दीमक मौजूद हैं, जो उष्णकटिबंधीय जंगलों के लिए पारिस्थितिकीय रूप से बेहद महत्वपूर्ण होते हैं। हालांकि इनकी कुछ प्रजातियां शहरों के लिए बड़ा सिरदर्द बन चुकी हैं, जो हर साल करोड़ों रुपए का नुकसान कर रही हैं। इनके विनाशकारी प्रभावों के बावजूद केवल कुछ आक्रामक प्रजातियों का ही गहन अध्ययन किया गया है। उसमें भी व्यापार, परिवहन और आबादी जैसे कारकों पर विचार नहीं किया गया है।
ऐसे में इस नए अध्ययन में शोधकर्ताओं ने इनके संभावित प्रसार की जानकारी हासिल करने के लिए विशेष कंप्यूटर मॉडल का उपयोग किया है। साथ ही अपने अध्ययन में शोधकर्ताओं ने जलवायु परिस्थितियों, भूमि उपयोग में आते बदलाव, ऊंचाई, शहरीकरण, मानव आबादी, शहरों तक पहुंच और उनके बीच कनेक्टिविटी जैसे विभिन्न कारकों का भी विश्लेषण किया है।
साथ ही शोधकर्ताओं ने जलवायु और सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन के विभिन्न परिदृश्यों पर भी विचार किया है, ताकि यह समझा जा सके कि भविष्य में चीजें कैसे बदल सकती हैं। इस अध्ययन के नतीजे जर्नल नियोबायोटा में प्रकाशित हुए हैं।
इस अध्ययन के जो नतीजे सामने आए हैं उनसे पता चला है कि वैश्विक स्तर पर जिस तरह जलवायु में बदलाव आ रहे हैं और दुनिया गर्म हो रही है उसके कारण यह आक्रामक जीव उन शहरों के लिए हकीकत बन सकते हैं, जहां पहले इनका नामों निशान नहीं था।
इन शहरों में मियामी, साओ पाउलो, लागोस, जकार्ता और डार्विन जैसे गर्म स्थानों के साथ-साथ पेरिस, ब्रुसेल्स, लंदन, न्यूयॉर्क और टोक्यो जैसे ठंडे समशीतोष्ण क्षेत्र भी इसकी जद से बाहर नहीं होंगे।
बदलती जलवायु के साथ बढ़ रहा आक्रामक विदेशी प्रजातियों का खतरा
देखा जाए तो यह दीमक कहां पाए जाते हैं यह काफी हद तक जलवायु और दूसरे क्षेत्रों के साथ जुड़ाव पर निर्भर करता है। रिसर्च के मुताबिक आक्रामक दीमक प्रजातियां उष्ण और उपोष्णकटिबंधीय जैसे गर्म क्षेत्रों में बड़े शहरी के साथ-साथ कुछ हद तक ठंडे समशीतोष्ण क्षेत्रों में भी अच्छा प्रदर्शन कर सकते हैं। हालांकि जलवायु में आते बदलावों और शहरी विकास के साथ-साथ यह जीव नए क्षेत्रों को भी निशाना बना सकते हैं।
रिसर्च में विशेष रूप से जीवाश्म ईंधन आधारित विकास के साथ-साथ इनके प्रसार में विस्तार देखा गया है। हालांकि दूसरी तरफ कुछ प्रजातियों के क्षेत्र में गिरावट आ सकती है, फिर भी वे उन क्षेत्रों को अपना विस्तार कर सकते हैं जहां शहरीकरण की दर और कनेक्टिविटी अधिक है। ऐसे में शोधकर्ताओं का अनुमान है कि इन दीमकों से जुड़े जोखिम और खर्च भविष्य में और बढ़ सकते हैं।
लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि आमतौर पर उष्णकटिबंधीय जलवायु में पनपने वाले यह दीमक, अपने प्राकृतिक आवास से दूर शहरों में कैसे घुसपैठ कर लेते हैं? अध्ययन में शोधकर्ताओं ने भी इस बात पर प्रकाश डाला है कि कैसे बढ़ती कनेक्टिविटी और जलवायु में आता बदलाव भविष्य में आक्रामक दीमकों के व्यापक प्रसार में मददगार होगा। इसका उत्तर हमारी आधुनिक दुनिया के अंतर्संबंधों में निहित है। बड़े शहर, जहां घनी आबादी और व्यस्त व्यापार हैं, वो दीमकों के प्रसार और उनकी नई कॉलोनियां की बसावट को सहज बनाते हैं।
इसके साथ ही, निजी जहाजों द्वारा दूर-दराज के क्षेत्रों में भेजे जाने वाले लकड़ी के फर्नीचर सहित अन्य सामान और इनकी वैश्विक आवाजाही, इन मूक आक्रमणकारियों को न चाहते हुए भी हमारे घरों में घुसपैठ की इजाजत दे देती है।
एक सवाल यह भी है कि यह दीमक लकड़ियों को ही अपना निशाना क्यों बनाते हैं? तो बता दें कि इसकी सबसे बड़ी वजह सेल्यूलोज होता है, जो दीमकों का मुख्य आहार भी है। सेल्यूलोज पेड़, पौधे, लकड़ी, घास आदि में प्रचुर मात्रा में पाया जाता है। इसकी वजह से दीमक लकड़ी के भीतर अपना बसेरा करते हैं।
दीमकों के मुंह की बनावट ऐसी होती है कि उनके लिए लकड़ी और इस तरह की चीजों को खाना आसान होता है। इसके साथ ही इनके पाचन तंत्र में बेहद सूक्ष्मतत्व मौजूद होते हैं जो सेल्यूलोज को पचाना आसान बना देते हैं। साथ ही इससे दीमकों को दूसरे जरूरी पोषक तत्व भी मिल जाते हैं।
अध्ययन से जुड़े शोधकर्ताओं ने प्रेस विज्ञप्ति के हवाले से कहा है कि "लकड़ी के एक छोटे से टुकड़े में बसी एक अकेली दीमक कॉलोनी, वेस्ट इंडीज से आपके अपार्टमेंट तक गुप्त रूप से यात्रा कर सकती है।" यात्रा के बाद एक बार जब दीमकों के राजा, रानियां प्रकाश की ओर आकर्षित होते हैं तो वो अपनी आबादी बढ़ाना शुरू कर देते हैं। यह बच्चे बड़े होकर जमीन पर नई बस्तियां बसाने लगते हैं।
हाल ही में किए दूसरे शोधों में इस तरह की आक्रामक प्रजातियों के खतरे को उजागर करते हुए जानकारी दी है कि इनकी वजह से दुनिया को 125.14 लाख करोड़ रुपए की चपत लग चुकी है।
जैव विविधता और पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं पर आधारित अंतर सरकारी मंच यानी आईपीबीईएस ने अपनी एक रिपोर्ट "द असेसमेंट रिपोर्ट ऑन इनवेसिव एलियन स्पीशीज एंड देयर कंट्रोल" में विदेशी आक्रामक प्रजातियों के खतरे को उजागर किया है। इसके मुताबिक दुनिया में 60 फीसदी पौधों और जानवरों के विलुप्त होने के लिए यह विदेशी आक्रामक प्रजातियां जिम्मेवार हैं। इतना ही नहीं यह विदेशी आक्रामक प्रजातियां हर साल वैश्विक अर्थव्यवस्था को 35 लाख करोड़ रुपए (42,300 करोड़ डॉलर) से ज्यादा का नुकसान पहुंचा रही हैं। वहीं यदि 1970 के बाद से देखें तो नुकसान की यह दर हर दशक चार गुना तेजी से बढ़ रही है।
ऐसे में शोधकर्ताओं ने नीति निर्माताओं और आम लोगों से इस समस्या पर तत्काल कार्रवाई करने का आग्रह किया है। उनके अनुसार प्रमुख शहरों चाहे वो किसी भी जलवायु क्षेत्र में हों उन्हें दीमकों को नियंत्रित करने और घरों एवं बुनियादी ढांचे की सुरक्षा के लिए दीमक को नियंत्रित करने के उपायों को सख्ती से लागू करने की जरूरत है।
उनकी सलाह है कि आम लोग दीमकों का पता लगाने और उनके बारे में दूसरों को बताने के लिए 'आईनेचुरलिस्ट' ऐप्स जैसी तकनीक का उपयोग कर सकते हैं। इससे हर किसी को पर्यावरण पर नजर रखने में मदद मिलती है। साथ ही एक आम आदमी भी अपने पर्यावरण को बचाने में मददगार हो सकता है।
इसमें कोई शक नहीं कि आज हम तेजी से बदलती जलवायु और उससे जुड़ी चुनौतियां का सामना कर रहे हैं, ऐसे आक्रामक दीमकों के खतरे से निपटने के लिए पहले से जागरूक होना और सक्रिय उपाय, इनके खिलाफ सुरक्षा का सबसे बेहतर हथियार है।