ऐसे समय में, जब हम जिंदगी को ऑनलाइन और ऑफलाइन के पैमानों पर देखने को मजबूर हैं, हम एक ऐसी वैश्विक दुनिया का सामना कर रहे हैं, जैसी वह पहले कभी नहीं थी।
दिल्ली में एक कम्प्यूटर बेचने वाले से बातचीत में एक खरीदार को इसका एहसास तब हुआ, जब चीन से आपूर्ति में देरी के चलते वह अपनी पसंद का लैपटॉप नहीं खरीद सका। बाद में एक सिगरेट बेचने वाले से बात करने पर उसने पाया कि देश में गैस वाले लाइटरों की भी कमी हो गई है।
इसकी वजह यह थी कि देश ऐसे लाइटरों का आयात ही कम कर रहा है, जिसके चलते स्थानीय दुकानदारों के पास इनकी मांग बढ़ रही थी। कम्प्यूटर बेचने वाले की भाषा में ही कहें तो, “अब ऐसा कुछ नहीं है, जिसे देसी कहा जाए और ऐसा कोई सामान नहीं है, जो चीन की मदद के बिना बन सके।”
चीन इस दौर और हम सबके जीवन की नई धुरी है। नए वैश्विक बदलावों पर गौर करें तो दुनिया एक बार फिर से दो-ध्रुवीय हो रही है।
पिछली बार की तरह इस बार अमेरिका और सोवियत संघ, दो ध्रुव नहीं है बल्कि इस बार का विभाजन चीन और बाकी सारी दुनिया है, खासकर चीन बनाम वे देश जो विश्व के भू-राजनीतिक परिदृश्य में दबदबा रखते हैं।
बाकी बचे देश बाद में अपनी स्थिति के मुताबिक इस दो-ध्रुवीय हो रही वैश्विक संरचना में अपना पक्ष चुन सकते हैं। यह नया ध्रुवीकरण साफतौर पर पर्यावरण को अपनी सुविधानुसार इस्तेमाल करने की गलत नीतियों का परिणाम है, जिसमें कम से कम नुकसान उठाकर ज्यादा से ज्यादा लाभ कमाने पर जोर दिया जाता है।
चीन ने वैश्विक ताकत बनने की अपनी इच्छा को कभी नहीं छिपाया। हालांकि उसका रास्ता बाकी दुनिया द्वारा दिखाए गए आर्थिक मॉडल ने ही तय किया।
अमीर देशों ने वैश्विक दुनिया में उपनिवेशी व्यापार की खातिर चीन को सामानों की सस्ती फैक्ट्री बनाने की नीति बनाई थी। वे चाहते थे कि वे खुद को पर्यावरण को नुकसान न पहुंचाते हुए नैतिकता दर्शाते रहें बल्कि साफ-साफ कहें तो उनकी मंशा अपना उत्सर्जन और प्रदूषण चीन को आयात कर खुद को पर्यावरण के पैमानों पर खरा दिखाए रखने की थी।
इसका नतीजा यह रहा कि चीन ने इसके बदले में अपने सामरिक शास्त्रागार तैयार की रणनीति बनाई। उसने बाकी सारी दुनिया को अपने पर इस कदर निर्भर बना लिया कि आज अगर उसका जहाज आने में कुछ दिनों की देरी हो जाती है तो भारत में गैस वाले लाइटरों की कमी होने लगती है।
यानी निर्विवाद रूप से वह द्वि-ध्रुवीय दुनिया का ऐसा स्तंभ बन चुका है, जिसका बाकी दुनिया को या तो जबाव देना है या फिर जिसके साथ संतुलन बिठाना है। उसकी जड़ें विश्व अर्थव्यवस्था में इतनी मजबूत हो चुकी हैं और उसका विघटन इतना विनाशकारी है कि कोई भी देश वर्तमान में उसे केंद्र में रखे बगैर दुनिया की कल्पना नहीं कर सकता।
दूसरी ओर जलवायु संकट जैसे पर्यावरण के मुद्दों पर भी दुनिया दो-ध्रुवीय हो रही है, जिसने विकसित देशों को गुनाहगार और विकासशील देशों को भुक्तभोगी के तौर पर आमने-सामने खड़ा कर दिया है। ऐतिहासिक रूप से इस तथ्य के बावजूद कि विकसित देश पहले कॉर्बन के बड़े उत्सर्जक रहे हैं, चीन अब सबसे ज्यादा कॉर्बन उत्सर्जन करने वाला देश है।
ऐसे कई वैश्विक सम्मेलन हो चुके हैं, जिनमें समुद्र से लेकर भूमि तक जैव-विविधता के मुद्दे शामिल रहे हैं लेकिन अब ऐसे हर सम्मेलन में चीन सहित विकसित और विकासशील देशों के बीच ध्रुवीकरण होता है। हाल ही में चीन ने धरती के स्वास्थ्य और इसके लिए अपनी जिम्मेदारी लेने के बारे में बात करना शुरू किया है। वह 2060 तक खुद को शून्य-कॉर्बन वाला देश बनाना चाहता है। आर्थिक क्षेत्रों की तरह, चीन पर्यावरणीय संबंधी मामलों में भी एक ताकत के रूप में उभर रहा है।
हालांकि खुद को कई पैमानों पर उच्च दर्जे का मानने के बावजूद विकसित देश भी पर्यावरण के मामले में कोई शूरवीर नहीं हैं। फिर भी इस दिशा में अब चीन एक नेतृत्वकर्ता की भूमिका में आगे बढ़ रहा है और आने वाले समय में वह सोलर पैनल व इलेक्ट्रिक वाहनों के क्षेत्र में वह पावरहाउस के तौर पर उभर सकता है।
भले ही यह एक आर्थिक गतिविधि के तौर पर अपनी ताकत को और मजबूत करने के लिए हो, चीन हरित ऊर्जा के मामले में भी वैश्विक परिवर्तनों का नेतृत्व कर सकता है। यही वजह है कि नई द्वि-ध्रुवीय दुनिया में नए स्तंभ के तौर पर चीन का खड़ा होने का गहरा आर्थिक और पारिस्थितिक महत्व है।
इस दुनिया में विकसित और विकासशील देशों के बीच संतुलन बनाना काफी मुश्किल होगा, क्योंकि इसमें एक ध्रुव के तौर वह चीन भी शामिल होगा, जिसने पारिस्थितिकी की हमारी नासमझी और गैर-जिम्मेदारी के चलते ताकत जुटाई है।