दुनिया भर में जलवायु परिवर्तन से निपटने और लोक कल्याण की मंशा के साथ कई परियोजनाएं बनाई गई हैं। इन योजनाओं के इरादे भी नेक हैं और समाज के कुछ लोगों तक इनका फायदा भी पहुंच रहा है। लेकिन इन सबके बावजूद क्या वजह है कि यह परियोजनाएं पहले से ही संकटग्रस्त और हाशिए पर रह रहे समुदायों को फायदा पहुंचाने की जगह नई मुसीबतें पैदा कर रही हैं? इसी को समझने के लिए नॉर्वेजियन यूनिवर्सिटी ऑफ लाइफ साइंसेज और ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी द्वारा मिलकर एक शोध किया गया है।
इसके अनुसार जलवायु अनुकूलन को लेकर बनाई कुछ परियोजनाएं लोगों को जलवायु परिवर्तन के खिलाफ फायदे की जगह नुकसान पहुंचा रही हैं। गौरतलब है कि अंतर्राष्ट्रीय वित्त पोषित इन परियोजनाओं को जलवायु परिवर्तन और उसके परिणामों से निपटने के लिए तैयार किया गया था, लेकिन विकासशील देशों में यह परियोजनाएं नई समस्याओं को जन्म दे रही हैं।
समृद्ध वर्ग के कब्जे और योजनाओं में हेरफेर के साक्ष्य दुनिया भर से मौजूद हैं। ऐसे ही अनुकूलन परियोजनाओं से होने वाले फायदे पर कब्जे के कुछ साक्ष्य भारत, नेपाल और तंजानिया में भी देखने को मिले हैं। जहां अपेक्षाकृत धनी और प्रभावशाली समुदायों के लोग इन योजनाओं से होने वाले फायदे पर एकाधिकार रखते हैं और राजनैतिक साठ-गांठ से इन परियोजनाओं में अपनी जरुरत के मुताबिक फेरबदल कर रहे हैं।
इस शोध से जुड़ी शोधकर्ता लीसा शिपर के अनुसार चिंता की बात है कि अनुकूलन के लिए चलाई जा रही यह परियोजनाएं लोगों के लिए जलवायु सम्बन्धी खतरों को पहले से भी ज्यादा बढ़ा रही हैं। ऐसे में डर है कि कहीं यह योजनाएं लोगों के शोषण और शक्तियों के दुरूपयोग का साधन न बन जाएं। इस समस्या को समझने के लिए किया गया यह शोध जर्नल वर्ल्ड डेवलपमेंट में प्रकाशित हुआ है।
शोध के अनुसार ताकतवर्ग के हस्तक्षेप का सबसे बड़ा उदाहरण पुनर्वास सम्बन्धी नीतियां हैं। जो कमजोर वर्ग को और खतरे में डाल रही हैं। इनके चलते ग्रामीण और गरीब किसान वर्ग अपनी जमीन को छोड़ कर रोजी-रोटी के लिए दूसरे स्थानों पर जाने को मजबूर हो चुके हैं। ऐसे में उन लोगों पर भोजन और रोजगार का संकट कहीं ज्यादा गहरा गया है।
इसी तरह जिन स्थानों पर विकास के लिए चलाई जा रही मौजूदा परियोजनाओं की केवल छवि में बदलाव करके उन्हें जलवायु अनुकूलन परियोजना के रूप में पेश किया जाता है। वहां इन परियोजनाओं के लिए मिले वित्त के दुरुपयोग का सबसे ज्यादा खतरा है। साथ ही इससे जलवायु सम्बन्धी संकट कम होने की जगह और बढ़ जाता है। उदाहरण के लिए भारत में ग्रामीण विकास के लिए चलाई जा रही परियोजना महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम को ही ले लीजिए, जिसे अनुकूलन परियोजना के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। यह परियोजना ग्रामीणों को रोजगार देने में तो सफल रही है, लेकिन क्या यह लम्बी अवधि में अनुकूलन के लिए भी कारगर है यह एक बड़ा सवाल है।
ऐसा करने से पहले इसकी प्रक्रिया और तंत्र को अनुकूलन के हिसाब से तैयार करना होगा। इसके डिज़ाइन को पारम्परिक सामाजिक सुरक्षा ढांचे से ऊपर उठकर जलवायु परिवर्तन से लड़ने के खिलाफ तैयार करना होगा। इसके लिए व्यापक शोध जरुरी है। ऐसे ही इसके स्वरुप को बदला नहीं जा सकता। इससे जुड़े विभागों और लोगों में जलवायु के प्रति और उससे लड़ने के विषय में जागरूकता लानी होगी। साथ ही स्थानीय से लेकर राष्ट्रीय तक विभिन्न पैमानों पर जलवायु-विकास इंटरफेस को इस परियोजना में शामिल करना होगा।
किस कारण कारगर नहीं रही यह परियोजनाएं
अध्ययन के अनुसार इन अनुकूलन परियोजनाओं के नकारात्मक परिणामों के लिए निम्नलिखित चार कारण जिम्मेवार हैं:
इस शोध से जुड़े प्रमुख शोधकर्ता सिरी एरियन के अनुसार ऐसे में इन चुनौतियों से उबरने और सुनिश्चित करने के लिए फण्ड वास्तव में जरूरतमंदों की मदद कर रहा है, अंतराष्ट्रीय फंडिंग समुदाय को इस पर ध्यान देने की जरुरत है। यह जरुरी नहीं की अधिक फण्ड देना ही इस समस्या का समाधान है। यदि इन परियोजनाओं से केवल उच्च वर्ग का ही फायदा हो रहा है और सभी पर उनका कब्ज़ा रहता है तो ऐसे में जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए चलाई जा रही यह परियोजनाएं हाशिए पर खड़े लोगों की मदद करने की जगह खतरों को पहले से भी ज्यादा बढ़ा देंगी।
उनका मानना है कि जब तक अनुकूलन का पुनः मूल्यांकन नहीं किया जाता तब तक नई परियोजनाओं में उन्हीं समस्याओं को दोहराने की संभावना है जो जलवायु परिवर्तन से जुड़ी खतरे को बढ़ा सकती हैं। ऐसे में पिछले दशकों की भूलों और उनकी आलोचनाओं से सीखने की जरुरत है। जिससे इस समस्या से बेहतर ढंग से निपटा जा सके।