यह निर्विवाद सत्य है कि मानव गतिविधियां ही जलवायु परिवर्तन की वजह बन रही हैं। लगातार और पहले से ज्यादा घातक गर्म हवाएं, अतिवृष्टि और सूखे समेत जलवायु से जुड़ी चरम घटनाएं इसी से पैदा हो रही हैं। 9 अगस्त को जब इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) ने अपने नए वैज्ञानिक आकलन में यह बात कही तो जलवायु परिवर्तन पर काम करने वाली इस संस्था का यह भरोसा वैज्ञानिकों के छोटे समूह से मिला था जो पिछले दो दशकों में बिना थके और स्वेच्छा से मौसम की चरम घटनाओं और ग्रीनहाउस गैस के उत्सर्जन के बीच जुड़ाव के सबूत जुटा रहे हैं।
इन वर्षों के दौरान उन्होंने वास्तव में विज्ञान के एक उभरते हुए क्षेत्र एक्स्ट्रीम वेदर एट्रीब्यूशन को स्थापित करने के लिए अपने शोध तैयार किए है। जलवायु विज्ञान को मान्यता दिलाने में उनके योगदान को स्वीकार करते हुए रिपोर्ट कहती है,“हालिया जलवायु परिवर्तन पर मानव के प्रभाव के प्रमाण आईपीसीसी की दूसरी आकलन रिपोर्ट (1995 में) से लेकर एआर-5 (2013-14 में) तक लगातार सशक्त हुए हैं और क्षेत्रीय पैमानों व चरम सीमाओं को शामिल करते हुए ताजा मूल्यांकन में और भी ज्यादा मजबूत बने हैं।”
पहली बार यह विचार 2003 में तब सामने आया था, जब ब्रिटेन की ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में भौतिकी विभाग के माइल्स एलन ने टेम्स के पानी को दक्षिणी इंग्लैंड में अपने घर में घुसते देखा, जो एक ऐसा इलाका था, जहां पहले कभी बाढ़ नहीं आई थी। इस घटना ने उन्हें यह सवाल पूछने के लिए प्रेरित किया कि क्या इस घटना के लिए जलवायु परिवर्तन को जिम्मेदार ठहराना संभव है, अगर हां, तो इसकी जिम्मेदारी कौन उठाएगा? इसके बाद एलन ने साइंस पत्रिका “नेचर” में एक लेख लिखा, जिसका शीर्षक था,“क्या कभी जलवायु को नुकसान पहुंचाने के लिए किसी पर मुकदमा करना संभव होगा?”
इसी लेख में उन्होंने यह आकलन करने की पद्धति का ब्यौरा दिया कि कौन सी और किस हद तक बाहरी शक्तियां किसी खास चरम घटना की संभावनाओं में परिवर्तन कर सकती हैं। उसके बाद वेदर एट्रिब्यूशन साइंस ने एक सैद्धांतिक संभावना भर से बाहर निकलकर जलवायु विज्ञान के एक उपक्षेत्र में प्रवेश किया और दुनिया भर के वैज्ञानिकों ने मौसम की अलग-अलग चरम घटनाओं में मानवजनित जीएचजी उत्सर्जन की भूमिका का विश्लेषण करते हुए 350 से अधिक वैज्ञानिक लेख और आकलन प्रकाशित कराए हैं।
25 फरवरी, 2021 को समाचार पोर्टल कार्बन ब्रीफ की ओर से किए गए एक विश्लेषण से पता चलता है कि वैज्ञानिकों ने पाया है कि 2003 के बाद घटित हुई मौसम की 405 चरम घटनाओं और रुझानों में से 70 प्रतिशत घटनाओं की संभावना या उनके गंभीर होने के पीछे मानव-जनित जलवायु परिवर्तन ही कारण रहा। सभी घटनाओं में 79 प्रतिशत पर कुछ न कुछ मानवीय प्रभाव जरूर रहा (देखें, स्पष्ट संबंध,)।
ब्रिटेन की ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में क्लाइमेट चेंज इंस्टीट्यूट के फ्रेडरिक ओटो बताती हैं, जलवायु परिवर्तन स्पष्ट रूप से मानवजनित जीएचजी उत्सर्जन से जुड़ा है, चूंकि जलवायु प्रणाली में प्राकृतिक परिवर्तनशीलता के कारण मौसम की चरम घटनाएं हो सकती हैं, इसलिए जलवायु परिवर्तन के साथ उसका संबंध बहुत कम स्पष्ट है। वह एट्रिब्यूशन साइंस के क्षेत्र में शुरुआती शोधकर्ताओं में से एक हैं और वर्ल्ड वेदर एट्रिब्यूशन (डब्ल्यूडब्ल्यूए) पहल का नेतृत्व करती हैं, जो यूरोप, अमेरिका, दिल्ली में भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) के वैज्ञानिकों और दुनिया भर में रेड क्रॉस/रेड क्रिसेंट क्लाइमेट सेंटर (आरसीसीसी) के जलवायु प्रभावों के अध्ययन से जुड़े वैज्ञानिकों के बीच एक साझेदारी है।
जलवायु मॉडल और विश्लेषण में सुधारों ने वैज्ञानिकों को बारिश, तापमान और अन्य कारकों के रिकॉर्ड देखकर जलवायु परिवर्तन पर मानवों के प्रभावों के “फिंगरप्रिंट्स” की पहचान करने में सक्षम बनाया है। अमेरिका के कैलिफोर्निया में लॉरेंस बर्कले नेशनल लेबोरेटरी के वरिष्ठ वैज्ञानिक माइकल वेनर का कहना है, तब इन फिंगरप्रिंट्स को अल नीनो में बदलाव जैसे प्राकृतिक कारकों से अलग किया जा सकता है। कृष्णा अच्युताराव, जो आईआईटी दिल्ली के सेंटर फॉर एटमॉस्फेरिक साइंसेज के प्रमुख हैं, और नई आईपीसीसी रिपोर्ट के प्रमुख योगदानकर्ताओं में से एक हैं, डाउन टू अर्थ को बताते हैं कि विज्ञान कैसे काम करता है।
वह कहते हैं, “सीमित आंकड़ों के कारण, आप यह नहीं कह सकते हैं कि मौसम में कोई खास चरम घटना पहले कभी नहीं हुई थी, 200 साल पहले भी, जब जलवायु पर मानवों का प्रभाव बहुत कम था। इसीलिए घटना के विश्लेषण में, हम यह समझने की कोशिश करते हैं कि क्या ये चरम घटनाएं लगातार हो रही हैं या इनकी सघनता ज्यादा है”।
वह बताते हैं कि इसके लिए वैज्ञानिक सांख्यिकीय तकनीक का उपयोग करते हैं जो पिछली चरम घटनाओं का पता लगाने और समय के साथ उनमें आए परिवर्तनों का विश्लेषण करने के लिए उस क्षेत्र के लिए उपलब्ध पुराने आंकड़ों का मूल्यांकन करती है। फिर हजारों वर्ष की मौसमी स्थितियों का प्रतिरूप बनाने वाले जलवायु मॉडल का उपयोग करके वर्तमान में ऐसी घटनाओं की संभावनाओं को आंका जाता है, जब वातावरण उच्च तापमान और जीएचजी उत्सर्जन (तथ्यात्मक कहा जाता है) और जलवायु परिवर्तन शुरू होने (प्रति-तथ्यात्मक) से पहले की घटना की संभावनाओं से भरा हुआ है।
वह बताते हैं, “तथ्यात्मक और प्रति-तथ्यात्मक के बीच का अंतर ऐसे समय में आपको बताता है कि जलवायु परिवर्तन के कारण क्या एक चरम घटना की संभावना बढ़ गई है? यदि हां, तो उसका विस्तार क्या है।” पश्चिमी-उत्तर अमेरिका में हालिया गर्म हवाओं का विश्लेषण करते हुए, डब्ल्यूडब्ल्यूए टीम ने पाया कि प्रति-तथ्यात्मक या काउंटरफैक्चुअल में ऐसी कोई घटना नहीं हुई थी, जलवायु परिवर्तन के अभाव में मॉडल इस क्षेत्र में ऐसी घटना का प्रतिरूप नहीं बना सके। इस आधार पर उन्होंने कहा कि तापमान में रिकॉर्ड बढ़ोतरी मानव-प्रेरित जलवायु परिवर्तन का ही नतीजा था।
अत्याधुनिक जलवायु मॉडल और हाल के वर्षों में वैज्ञानिकों के बीच बढ़ते तालमेल ने उन्हें रियल टाइम आधार पर जुड़ावों को परखने में सक्षम बनाया है, जबकि लोग अब भी एक आपदा से प्रभावित हो रहे हैं। पश्चिमी- उत्तर अमेरिका में गर्म हवाएं चलने के दौरान, अलग-अलग टाइम जोन के कुछ 10 शोधकर्ताओं ने चौबीसों घंटे काम किया और आठ महीने में होने वाले काम को आठ दिनों में पूरा कर डाला, ताकि यह तय किया जा सके कि वैश्विक तापमान ने उस स्थिति को तेज करने में क्या भूमिका निभाई?
अच्युताराव ने कहा कि इस तरह के त्वरित एट्रिब्यूशन का उद्देश्य उस घटना पर केंद्रीय ध्यान को भुनाना है, ताकि आपकी बात वास्तव में लोगों तक पहुंचाई जा सके। इसका अन्य उद्देश्य अदालतों में चलने वाले मामलों के लिए साक्ष्य तैयार करने में सहायता करना है। इसमें “प्रदूषकों के भुगतान” सिद्धांत के तहत जीएचजी उत्सर्जन को स्वास्थ्य और अन्य नुकसानों से जोड़ने वाली याचिकाओं को देखा जा सकता है। ऐसे अध्ययन वैज्ञानिकों को उनके क्लाइमेट मॉडल सिमुलेशन को जांचने और सुधार लाने में भी मदद करते हैं।
आईआईटी गांधीनगर में पीएचडी की छात्र नंदीता जेएस कहती हैं कि पहले एट्रिब्यूशन स्टडीज सिर्फ अत्यधिक वर्षा और तापमान की घटनाओं पर केंद्रित थी, लेकिन वे अब तूफानी लहरों, चक्रवातों और जंगल में लगने वाली आग को भी शामिल करने के लिहाज से उन्नत हो चुकी हैं। वह 2020 में हुए एक अध्ययन की सह-लेखिका थीं, जिसमें भारत में 2010 में भीषण गर्मी के लिए मानवजनित तापमान बढ़ोतरी को जिम्मेदार ठहराया गया था। बेहतर अस्थायी समाधान के साथ, मॉडल में प्रति घंटे के हिसाब से जलवायु के आकलन भी होते हैं, जो एट्रिब्यूशन स्टडीज के लिए महत्वपूर्ण होते हैं। आईआईटी गांधीनगर की जल और जलवायु प्रयोगशाला के विमल मिश्रा कहते हैं, “बारिश के दैनिक औसत आंकड़े आपको पूरी कहानी नहीं बता सकते। एक घंटे तक बहुत तेज बारिश हो सकती है और फिर बाकी के 23 घंटे सूखे रह सकते हैं।” यह अत्यधिक वर्षा की घटनाओं के लिए उपयोगी है, जिनकी दर में बढ़ोतरी भारत को प्रभावित कर रही है।