बॉन जलवायु परिवर्तन सम्मेलन से क्या हुआ हासिल, सीएसई का आकलन

सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट (सीएसई) ने 10 दिन तक चली जलवायु वार्ताओं के निष्कर्षों का मूल्यांकन किया
Photo: live.staticflickr
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संघर्षों, व्यापार युद्धों और जलवायु प्रभावों से जूझ रही दुनिया की छाया 16 जून से 26 जून 2025 के दौरान जर्मनी के बॉन शहर संपन्न संयुक्त राष्ट्र के मध्यवर्षीय जलवायु वार्ताओं (क्लाइमेट टॉक्स) पर स्पष्ट रूप से दिखाई दी।

बातचीत की शुरुआत ही मुश्किल माहौल में हुई, जब विकासशील देशों को जलवायु वित्तीय दायित्वों और यूरोपीय संघ जैसे विकसित देशों के एकतरफा व्यापार उपायों, जैसे कार्बन सीमा कर (बॉर्डर टैक्स) के प्रभावों पर चर्चा के लिए मजबूर किया गया, लेकिन उन्हें विकसित देशों के विरोध का सामना करना पड़ा।

सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट (सीएसई) ने इन वार्ताओं के निष्कर्षों का मूल्यांकन किया और पाया कि बॉन की यह बैठक भी चिर-परिचित टकरावों और कई मुद्दों पर धीमी प्रगति की शिकार हो गई।

सीएसई की एक टीम ने इस सम्मेलन में भाग लिया और इसकी रिपोर्टिंग की। बॉन से बोलते हुए सीएसई की क्लाइमेट चेंज प्रोग्राम मैनेजर अवंतिका गोस्वामी ने कहा: “हम विकसित देशों की ओर से बहुपक्षीयता (मल्टीलेटरलिज्म) को निभाने की कोई गंभीर इच्छा नहीं देख रहे हैं, और बॉन की बैठक ने इसे स्पष्ट कर दिया। अनुच्छेद 9.1  पर गहराई से चर्चा करने से इनकार किया गया और विकासशील देशों द्वारा उठाए गए एकतरफा व्यापार उपायों की चिंताओं को नजरअंदाज किया गया, जो इस क्षेत्र में मौजूद शक्ति के असंतुलन का प्रतीक है। हालांकि "जस्ट ट्रांजिशन" जैसे मुद्दों पर सिविल सोसायटी लगातार आगे बढ़ रही है, लेकिन बाकी सभी मंच इस वजह से ठप हैं, क्योंकि अमीर देशों (ग्लोबल नॉर्थ) ने अब भी अपने ऐतिहासिक जिम्मेदारियों के अनुसार बाकी दुनिया को जलवायु कार्रवाई के लिए जरूरी मदद, फंडिंग और समर्थन देने से इनकार कर रखा है।”

जस्ट ट्रांजिशन कार्यक्रम में आंशिक प्रगति, लेकिन मतभेद कायम

यूएई जस्ट ट्रांजिशन वर्क प्रोग्राम (जेटीडब्ल्यूपी) के तहत विकासशील देशों ने जलवायु परिवर्तन से जुड़ी एकतरफा व्यापारिक नीतियों, जैसे यूरोपीय संघ का कार्बन बॉर्डर एडजस्टमेंट मैकेनिज़्म (सीबीएएम) जैसी व्यापार-प्रतिबंधक नीतियों के प्रभावों को प्राथमिकता से उठाया। वहीं, विकसित देशों ने जस्ट ट्रांजिशन के रास्तों को 1.5 डिग्री सेल्सियस के लक्ष्य के अनुरूप ढालने और उन्हें उन राष्ट्रीय जलवायु लक्ष्यों में शामिल करने पर ज़ोर दिया जिन्हें संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन फ्रेमवर्क कन्वेंशन (एयूएनएफसीसीसी) को सौंपा जाता है।

बॉन में एक मसौदा वार्तापत्र (ड्राफ्ट नेगोशिएटिंग टेक्स्ट) तैयार किया गया, जिसमें “जस्ट ट्रांजिशन के लिए संपूर्ण-अर्थव्यवस्था दृष्टिकोण” अपनाने, “सभी के लिए स्वच्छ, भरोसेमंद, किफायती और टिकाऊ ऊर्जा तक सार्वभौमिक पहुंच” सुनिश्चित करने, तथा ऊर्जा संक्रमण के लिए विविध रास्तों को मान्यता देने पर ज़ोर दिया गया।

इस मसौदे में कुछ क्षेत्रों में सहमति बनी, जिनमें सिविल सोसायटी द्वारा रखे गए कई प्रस्ताव भी शामिल हैं। यह मसौदा अब बेलेम (ब्राज़ील) में होने वाले कॉप30 में औपचारिक वार्ताओं के लिए भेजा जाएगा।

ग्लोबल साउथ पर बोझ बढ़ाते हैं एकतरफा व्यापारिक उपाय

‘समान विचार वाले देशों (एलएमडीसी) द्वारा शुरू में एक स्वतंत्र एजेंडा आइटम के रूप में प्रस्तावित किए गए एकतरफा व्यापारिक उपाय (यूनिलेटरल ट्रेड मेजर्स-यूटीएम) अंततः जस्ट ट्रांजिशन वर्क प्रोग्राम और रिस्पॉन्स मेजर्स फोरम के तहत चर्चा के विषय बने। विकासशील देशों ने इन व्यापार-प्रतिबंधक उपायों के उन नकारात्मक प्रभावों को रेखांकित किया, जो आर्थिक असमानता को बढ़ावा देते हैं और ग्लोबल साउथ पर अतिरिक्त बोझ डालते हैं।

जेडीडब्ल्यूपी में देशों ने इन प्रभावों से निपटने के लिए अंतरराष्ट्रीय सहयोग और समर्थन की आवश्यकता पर ज़ोर दिया, जिसमें चीन ने विश्व व्यापार संगठन के साथ एक संयुक्त कार्यक्रम आयोजित करने का प्रस्ताव रखा। वहीं, रिस्पॉन्स मेजर्स ट्रैक में जी-77 और चीन ने कातोविचे समिति के कार्यों में यूटीएम को प्राथमिकता देने की मांग की, लेकिन यूरोपीय संघ और अन्य विकसित देशों ने इसका विरोध किया और सुझाव दिया कि यह विषय व्यापार-विशेष मंचों में सुलझाया जाना चाहिए।

ग्लोबल स्टॉकटेक पर चर्चा जानबूझकर अटकाई गई

ग्लोबल स्टॉकटेक (जीएसटी) के क्रियान्वयन पर यूएई डायलॉग को लेकर हुए अनौपचारिक विचार-विमर्श बिना किसी आम सहमति के समाप्त हो गए। विकसित देशों ने जीएसटी के क्रियान्वयन की निगरानी के लिए हर वर्ष एक समेकित (सिंथेसिस) रिपोर्ट तैयार करने का प्रस्ताव रखा, जबकि विकासशील देशों ने ज़ोर दिया कि प्राथमिकता राष्ट्रीय जलवायु लक्ष्यों को लागू करने पर होनी चाहिए, न कि इस संवाद को एक रिपोर्टिंग तंत्र में बदलने पर।

विकासशील देशों ने यह भी मांग की कि पेरिस समझौते के अनुच्छेद 9.1 का हवाला दिया जाए, ताकि इस डायलॉग के उद्देश्य और दायरे को स्पष्ट किया जा सके।

अनुकूलन पर बातचीत रुकी

ग्लोबल गोल ऑन अडैप्टेशन (जीजीए) पर बातचीत मुख्य रूप से इस बात पर अटक गई कि विकासशील देशों द्वारा जलवायु प्रभावों के अनुरूप ढलने के लिए जिन संसाधनों की आवश्यकता है, उनकी प्रगति को मापने के लिए कौन से सूचकांक (इंडिकेटर्स) अपनाए जाएं।

दुबई में कॉप28 के दौरान तय हुए जीजीए ढांचे के तहत विभिन्न लक्ष्यों पर प्रगति मापने के लिए संकेतक विकसित किए जाने हैं। माध्यमों की उपलब्धता में मुख्य रूप से वित्त शामिल है, लेकिन इसमें प्रौद्योगिकी और क्षमतावर्धन जैसे घटक भी आते हैं। विकासशील देश चाहते हैं कि इन संसाधनों की उपलब्धता को मापने के स्पष्ट और न्यायसंगत मानदंड तय किए जाएं, जबकि इस पर सहमति नहीं बन सकी है।

जीजीए वार्ता में अन्य विवादास्पद मुद्दे भी बने गतिरोध का कारण

ग्लोबल गोल ऑन अडैप्टेशन (जीजीए) के मसौदे में कई अन्य विवादास्पद मुद्दे भी सामने आए, जिनमें परिवर्तनकारी अनुकूलन (transformational adaptation) से जुड़ी भाषा,  हर दो साल में जारी होने वालीपारदर्शिता रिपोर्ट्स और अनुच्छेद 9 शामिल हैं।

इन मुद्दों पर आम सहमति नहीं बन सकी और चर्चा में गतिरोध बना रहा। बॉन में तैयार किए गए एक अनौपचारिक नोट के आधार पर अब इन वार्ताओं को कॉप30 (बेलेम, ब्राज़ील) में आगे बढ़ाया जाएगा।

एक बार फिर जलवायु वित्त पर गहराया विभाजन

बकू से बेलेम तक की रोडमैप (1.3 ट्रिलियन डॉलर तक पहुंचने की योजना)’ पर होने वाली वार्ताओं के दौरान जलवायु वित्त को लेकर विकसित और विकासशील देशों के बीच एक बार फिर तीखा मतभेद देखने को मिला। विकासशील देशों ने समानता और सरकारी अनुदान-आधारित वित्तपोषण की आवश्यकता पर जोर दिया। जी77 और चीन ने ऊंची पूंजी लागत और एकतरफा व्यापार उपायों  को दूर करने की मांग की, और चेताया कि इनका बोझ ग्लोबल साउथ पर न डाला जाए।

सिविल सोसायटी संगठनों ने इस रोडमैप में पारदर्शिता और पेरिस समझौते के अनुच्छेद 9 के अनुरूप वित्तीय दायित्वों को शामिल करने की मांग की। इसके विपरीत, यूरोपीय संघ, कनाडा, जापान और ऑस्ट्रेलिया जैसे विकसित देशों ने निजी वित्त की भूमिका पर बल दिया।

कॉप30 की प्रेसिडेंसी अब इस रोडमैप दस्तावेज को सेविल (स्पेन) में होने वाले विकास के लिए वित्तपोषण सम्मेलन में जारी करेगी।

शर्म अल-शेख डायलॉग में एक बार फिर केंद्र में रहा समानता और वित्त

शर्म अल-शेख डायलॉग के तहत हुई बैठकों में ऐसे वित्तीय ढांचे बनाने पर चर्चा हुई जो जलवायु कार्रवाई और लचीलापन को समर्थन दे सकें। इस संवाद के तहत तीन विषयगत सत्र आयोजित हुए, जिनमें चर्चा के प्रमुख विषय थे। वित्तीय क्षेत्र के विकास के लिए क्षमता निर्माण, निम्न-उत्सर्जन और जलवायु-संवेदनशील विकास के लिए ट्रांजिशन प्लानिंग औरअनुच्छेद 2.1(सी) के जरिए नई सामूहिक मात्रात्मक वित्तीय लक्ष्य (एनसीक्यूजी) को लागू करने के उपाय।

विकासशील देशों ने ज़ोर देकर कहा कि विभिन्न राष्ट्रीय परिस्थितियों को मान्यता दी जानी चाहिए और यह सुनिश्चित किया जाए कि पारदर्शिता और जोखिम से जुड़े नियम कमजोर देशों को दंडित न करें। साथ ही, अनुकूलन  को समर्थन देने के लिए सार्वजनिक वित्त की आवश्यकता को हर सत्र में प्रमुखता से उठाया गया।

उत्सर्जन कटौती पर उद्देश्य और महत्वाकांक्षा को लेकर कोई सहमति नहीं

मिटिगेशन वर्क प्रोग्राम (एमडब्ल्यूपी) के उद्देश्य और महत्वाकांक्षा को लेकर देशों के बीच गहरा मतभेद बना हुआ है। विकसित देश इसे विकासशील देशों से अधिक कड़े जलवायु प्रतिबद्धताओं की मांग का एक उपकरण मानते हैं, जबकि विकासशील देश इस पर ज़ोर देते हैं कि यह कार्यक्रम राष्ट्रीय प्राथमिकताओं का सम्मान करे और माध्यमों की उपलब्धता पर केंद्रित हो।

कुछ देशों, विशेषकर यूरोपीय संघ  ने एमडब्ल्यूपी की गतिविधियों को ग्लोबल स्टॉकटेक की खोजों के अनुरूप ढालने की मांग की। वहीं, अन्य देशों ने चेताया कि एमडब्ल्यूपी  को ऐसा मंच न बना दिया जाए, जहां राजनीतिक दबाव डाला जाए या गुपचुप तरीके से नई प्रतिबद्धताएं थोपी जाएं।

वार्ता में इस बात पर भी विचार हुआ कि एमडब्ल्यूपी को किस तरह एक ‘सुरक्षित मंच’ के रूप में विकसित किया जा सकता है जहां देश बाधाओं की पहचान कर सकें और समाधानों को साझा कर सकें।

साथ ही, चर्चा का एक महत्वपूर्ण हिस्सा इस बात पर केंद्रित रहा कि एक डिजिटल प्लेटफॉर्म कैसे विकसित किया जाए — जो उत्सर्जन कटौती की कार्रवाइयों को साझा करने और संसाधनों व साझेदारियों के लिए ‘मिलान मंच’ (का कार्य कर सके। इस प्लेटफॉर्म को बेलेम में कॉप30 के दौरान लॉन्च किया जाना प्रस्तावित है।

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