खाद्य पदार्थों को स्टोर करने के लिए कितना तापमान है सही, क्या तीन डिग्री सेल्सियस से पड़ेगा असर?

रिपोर्ट के मुताबिक फ्रोजन फूड को स्टोर करने के लिए तापमान के तय मानकों में तीन डिग्री सेल्सियस की वृद्धि से हर साल करीब 25 टेरावाट-घंटे ऊर्जा की बचत होगी
हर साल करीब 13 फीसदी खाद्य उत्पादन रिटेल दुकानों तक पहुंचने से पहले ही खराब  हो जाता है; फोटो: आईस्टॉक
हर साल करीब 13 फीसदी खाद्य उत्पादन रिटेल दुकानों तक पहुंचने से पहले ही खराब हो जाता है; फोटो: आईस्टॉक
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क्या आप जानते हैं कि फ्रोजन फूड को स्टोर करने के लिए कितना तापमान खाद्य गुणवत्ता, पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन के नजरिए से सही है। इस बारे में प्रकाशित एक नई रिपोर्ट का कहना है कि खाद्य पदार्थों को स्टोर करने के लिए रेफ्रिजरेशन के दशकों पुराने मानकों में महज तीन डिग्री सेल्सियस का इजाफा पर्यावरण और जलवायु के लिहाज से बेहद फायदेमंद साबित हो सकता है।

गौरतलब है कि वैश्विक स्तर पर जमे हुए खाद्य पदार्थों यानी फ्रोजन फूड को स्टोर करने के लिए -18 डिग्री सेल्सियस का मानक तय किया गया था। हालांकि बता दें कि फ्रोजन फूड को स्टोर करने के लिए तापमान की यह माप 1930 के दशक में तय की गई थी, जिसे बदलने के लिए वैज्ञानिकों और उद्योग जगत मांग करते रहे हैं।

“थ्री डिग्री ऑफ चेंज” नामक नामक इस रिपोर्ट के मुताबिक मानकों में तीन डिग्री सेल्सियस का इजाफा खाद्य उद्योग के कार्बन उत्सर्जन को सीमित करने में मददगार साबित हो सकता है। रिपोर्ट के निष्कर्ष बताते हैं कि तापमान को -18 डिग्री सेल्सियस से -15 डिग्री सेल्सियस करने से हर साल इसकी वजह से हो रहे कार्बन उत्सर्जन में भारी कमी हो सकती है। अनुमान है कि यह कमी करीब 38 लाख कारों को सड़क से हटाने के बराबर है।

रिपोर्ट के मुताबिक इससे हर वर्ष करीब 25 टेरावाट-घंटे ऊर्जा की बचत होगी, जोकि केन्या की कुल ऊर्जा खपत की दोगुनी और यूके की कुल वार्षिक ऊर्जा खपत के करीब 8.63 फीसदी के बराबर है। जो स्पष्ट तौर पर दर्शाता है कि इससे न केवल पर्यावरण को बल्कि आर्थिक रूप से भी सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा।

यह रिपोर्ट पेरिस स्थित इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ रेफ्रिजरेशन, क्रैनफील्ड यूनिवर्सिटी, सेंटर फॉर सस्टेनेबल कूलिंग - बर्मिंघम यूनिवर्सिटी, लंदन साउथ बैंक यूनिवर्सिटी और नीदरलैंड में वैगनिंगन यूनिवर्सिटी और हेरियट वाट यूनिवर्सिटी से जुड़े शोधकर्ताओं द्वारा तैयार की गई है। इस रिपोर्ट में दुनिया की जानी मानी लॉजिस्टिक्स फर्म डीपी वर्ल्ड ने भी सहयोग दिया है।

विशेषज्ञों का कहना है कि तीन डिग्री सेल्सियस का यह प्रस्तावित बदलाव खाद्य सुरक्षा या उसकी गुणवत्ता से समझौता नहीं करेगा। उनके मुताबिक इससे फ्रोजन फ़ूड के भण्डारण और परिवहन के तरीके में बदलाव के अवसर पैदा होंगें। बता दें कि डीपी वर्ल्ड ने वैश्विक स्तर पर फ्रोजन फूड के स्टोरेज के तापमान मानकों पर पुनर्विचार करने के उद्देश्य से "ज्वाइन द मूव टू -15 डिग्री सेल्सियस" नामक गठबंधन की शुरूआत भी की है।

रिपोर्ट के मुताबिक इंसानों की खपत के लिए हर साल जितना भी भोजन उत्पादित किया जाता है, उसका करीब 12 फीसदी तापमान को उचित तरह से नियंत्रित न करने की वजह से खराब हो जाता है। जो हर साल 100 करोड़ लोगों का पेट भरने के लिए पर्याप्त है।

जिस तरह से वैश्विक आबादी बढ़ रही है, उसे देखते हुए खाद्य पदार्थों की मांग भी लगातार बढ़ रही है, ऊपर से जलवायु में आता बदलाव खाद्य उत्पादन पर असर डाल रहा है। ऐसे में इस नुकसान को दूर करके न केवल किसानों को फायदा पहुंचाया जा सकता है साथ ही इससे खाद्य सुरक्षा के मुद्दे में भी मदद मिलेगी।

रिपोर्ट के मुताबिक हर दिन करीब 25,000 लोग खाने की कमी से जान गंवा रहे हैं, जबकि बड़ी मात्रा में खाद्य पदार्थ ऐसे ही बर्बाद हो जाते हैं। इतना ही नहीं खाने की वजह से पैदा होती बीमारियां हर साल 40 करोड़ लोगों की जान ले रही हैं, जबकि औसतन 60 करोड़ लोग इन बीमारियों की चपेट में आ रहे हैं।

थाली में पहुंचने से पहले ही बड़े पैमाने पर बर्बाद हो जाता है खाद्य उत्पादन

इतना ही नहीं रिपोर्ट में इस बात का भी जिक्र किया है कि 2050 तक कृषि उत्पादकता 30 फीसदी तक कम हो जाएगी। हालांकि इसके बावजूद विडम्बना देखिए कि हर साल करीब 13 फीसदी खाद्य उत्पादन रिटेल दुकानों तक पहुंचने से पहले ही खराब  हो जाता है, जबकि एक अन्य अनुमान के मुताबिक करीब 17 फीसदी खाद्य उत्पादन घरों, फूड सप्लाई और रिटेल में बिक्री के दौरान खराब हो जाता है।

खाद्य उत्पादन की यह बर्बादी पर्यावरण पर भी भारी दबाव डाल रही है। अनुमान है कि जितने खाद्य उत्पादन का नुकसान या बर्बादी हो रही है वो खाद्य प्रणाली के कुल ऊर्जा उपयोग का करीब 38 फीसदी खर्च कर रहा है।

यह बड़े पैमाने पर होते उत्सर्जन के साथ-साथ सालाना 250 घन किलोमीटर ताजे पानी का भी उपयोग कर रहा है। इतना ही नहीं इसके उत्पादन के लिए  140 करोड़ हेक्टेयर कृषि भूमि की भी जरूरत पड़ती है जो वैश्विक स्तर पर कुल कृषि भूमि का करीब 30 फीसदी है।

इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ रेफ्रिजरेशन (आईआईआर) के मुताबिक रेफ्रिजरेशन से हर साल करीब 180 करोड़ टन खाद्य पदार्थों को फायदा होगा। लेकिन यह रेफ्रिजरेशन पर्यावरण और आर्थिक रूप से महंगा है। ऐसे में इसके नए मानक ऊर्जा उपयोग के साथ-साथ बढ़ते उत्सर्जन को कम करने में भी मददगार साबित हो सकते हैं, क्योंकि ऐसे बहुत से खाद्य उत्पाद हैं जिन्हें इतना ज्यादा ठंडा रखने की जरूरत नहीं है।

इस बारे में क्रैनफील्ड विश्वविद्यालय और अध्ययन से जुड़ी शोधकर्ता डॉक्टर नतालिया फलागन का कहना है कि, "वैश्विक खाद्य आपूर्ति श्रृंखला में मौजूद चुनौतियों का समाधान करने के लिए नवीन समाधानों की आवश्यकता है, जो खाद्य सुरक्षा के साथ-साथ पर्यावरण के लिहाज से भी बेहतर हों।"

उनके मुताबिक कोल्ड चेन सुरक्षित और पौष्टिक भोजन तक पहुंच सुनिश्चित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है, और यह पहल खाद्य प्रणाली को बेहतर बनाने के साथ-साथ वैश्विक खाद्य सुरक्षा में भी योगदान दे सकता है। साथ ही यह खाद्य श्रंखला को पर्यावरण अनुकूल बनाने में भी मददगार होगा।

गौरतलब है कि इस साल जलवायु परिवर्तन पर हो रहे अंतराष्ट्रीय सम्मेलन (कॉप-28) में भी खाद्य प्रणालियों पर विशेष ध्यान दिया गया था। इस बार जलवायु परिवर्तन पर हो रही इस चर्चा में कृषि और खाद्य प्रणालियों को भी एजेंडे में जगह दी गई है। साथ ही पेरिस समझौते के लक्ष्यों को हासिल करने में खाद्य प्रणालियों की महत्वपूर्ण भूमिका है, इस बात को भी स्वीकार किया गया है।

करीब 34 फीसदी उत्सर्जन के लिए जिम्मेवार हैं खाद्य प्रणालियां

बता दें कि यह खाद्य प्रणालियां वैश्विक स्तर पर होते उत्सर्जन के करीब 34 फीसदी के लिए जिम्मेवार हैं। हालांकि साथ ही यह नहीं भूलना चाहिए कि यह दुनिया की करीब आधी आबादी की जीविका का साधन भी हैं। इसके बावजूद पिछली जलवायु वार्ताओं में इन्हें नजरअंदाज कर दिया गया था।

खाद्य प्रणाली और कृषि विशेषज्ञ भी इस बात पर जोर देते हैं कि, कॉप-28 में सरकारों को इस महत्वपूर्ण अंतर को संबोधित करना चाहिए, जिसने खाद्य प्रणालियों को हाशिए पर धकेल दिया है।

सतत खाद्य प्रणालियों पर बनाए विशेषज्ञों के अंतर्राष्ट्रीय पैनल (आईपीईएस) की प्रोजेक्ट मैनेजर निकोल पिटा ने कॉप-28 में खाद्य प्रणालियों पर ध्यान केंद्रित करने को लेकर आशा जताई है। उनके मुताबिक इसकी बेहद जरूरत थी, क्योंकि इसके बिना राष्ट्रीय खाद्य और जलवायु कार्रवाई उतनी सशक्त नहीं हैं।

उनके अनुसार मौजूदा योजनाओं में संपूर्ण खाद्य प्रणाली को कवर करने वाली व्यापक रणनीतियों का अभाव है। इसमें आहार के साथ-साथ भोजन के नुकसान और बर्बादी जैसे पहलुओं की अनदेखी की गई है। सरकारों के स्थानीय, क्षेत्रीय और राष्ट्रीय स्तरों के बीच भी समन्वय की कमी है और इन योजनाओं में मापने योग्य प्रतिबद्धताओं का अभाव है।

उनका कहना है कि, “हमें अपने आहार, खेती करने और भोजन वितरित करने के तरीकों में पूरी तरह बदलाव की जरूरत है। उनके अनुसार हमें संपूर्ण खाद्य प्रणाली को विविध, जलवायु अनुकूल खाद्य प्रणालियों में बदलने की आवश्यकता है।“

ग्लोबल एलायंस फॉर द फ्यूचर ऑफ फूड और डालबर्ग एडवाइजर्स की "पावर शिफ्ट" नामक एक हालिया रिपोर्ट से पता चला है कि खाद्य प्रणालियां सालाना वैश्विक जीवाश्म ईंधन उपयोग में कम से कम 15 फीसदी का योगदान दे रही हैं, जो करीब 4.6 गीगाटन कार्बन डाइऑक्साइड के बराबर है। ऐसे में इसपर ध्यान दिया जाना बेहद जरूरी है।

बता दें कि इससे पहले संयुक्त राष्ट्र खाद्य और कृषि संगठन (एफएओ) भी कृषि खाद्य प्रणालियों में सुधार के लिए व्यापक बदलाव के संकेत दे चुका है। एफएओ ने अपने सहयोगियों के साथ मिलकर खाद्य प्रणालियों में व्यापक बदलाव के लिए 'हाई इम्पैक्ट इनिशिएटिव ऑन फूड सिस्टम ट्रांसफॉर्मेशन' नामक एक नई योजना भी प्रस्तुत की थी।

इस योजना का उद्देश्य वैश्विक स्तर पर खाद्य सुरक्षा और पोषण को सुनिश्चित करने के साथ-साथ सतत विकास (एसडीजी) के अन्य लक्ष्यों के साथ भी तालमेल बैठाना है, ताकि कृषि प्रणालियों में बदलाव कर उन्हें बेहतर बनाया जा सके। ताकि पर्यावरण के साथ-साथ जलवायु में आते बदलावों पर कृषि के बढ़ते प्रभावों को सीमित किया जा सके।

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