यूक्रेन, गाजा, ईरान और इजराइल में मंडराते मानवतावादी संकट के बीच एक शांत लेकिन गंभीर मुद्दा उभर कर सामने आया है,वो है- युद्ध का पर्यावरण पर असर।
जब बमबारी होती है, कारखाने और बुनियादी ढांचे नष्ट होते हैं या आग लगती है, तो बड़ी मात्रा में ग्रीनहाउस गैसें हवा में फैलती हैं। इसके अलावा, जो जहरीले रसायन निकलते हैं, वे सिर्फ हवा में नहीं रहते, बल्कि मिट्टी और पानी में भी मिल जाते हैं, जिससे वहां के जीवन और वातावरण पर लंबे समय तक बुरा असर पड़ता है, लेकिन इसे अक्सर नजरअंदाज किया जाता है।
वैश्विक स्तर पर सैन्य ताकतें कुल उत्सर्जन का लगभग 5.5 प्रतिशत जिम्मेदार होती हैं। द गार्जियन की एक रिपोर्ट के मुताबिक अगर उन्हें एक एकल देश माना जाए, तो वे दुनिया के चौथे सबसे बड़े उत्सर्जक बनेंगे, जो रूस से भी अधिक होगा। फिर भी, सैन्य उत्सर्जन के बारे में लगातार रिपोर्ट नहीं किया जाता।
फौजी गतिविधियों जैसे सैनिकों की आवाजाही, मिसाइल दागना, बम गिराना और बिजली घरों का नष्ट होना, सब मिलकर बहुत ज़्यादा प्रदूषण फैलाते हैं। अगर कोई परमाणु संयंत्र भी नष्ट हो जाए, तो उससे जहरीला रेडिएशन फैल सकता है जो लोगों और पर्यावरण के लिए बहुत खतरनाक होता है।
13 जून 2025 को, इजराइल ने ईरान के कई परमाणु और सैन्य सुविधाओं पर हमले किए। ये हमले नतान्ज और फोर्डो पर हुए, जहां यूरेनियम के संयंत्र हैं। हालांकि अभी तक कोई बड़ा परमाणु प्रदूषण रिपोर्ट नहीं किया गया है, लेकिन ईरान के बुस्हेहर स्थित परमाणु रिएक्टर पर हमले ने "एक परमाणु आपदा" का खतरा बढ़ा दिया है। यह चेतावनी रॉयटर्स न्यूज एजेंसी से बातचीत में एक विशेषज्ञ ने दी।
यह घटना खाड़ी देशों के लिए भी एक बड़ी चुनौती बन सकती है, क्योंकि इससे पीने के पानी के स्रोतों और समुद्री पारिस्थितिकी तंत्रों को प्रदूषण का खतरा हो सकता है।
युद्ध ने जीवाश्म ईंधन के बुनियादी ढांचे को भी गंभीर रूप से नुकसान पहुंचाया है। तेहरान में, एक प्रमुख तेल रिफाइनरी और शाहरान ईंधन डिपो में भीषण आग लग गई। इस आग से कई प्रकार के प्रदूषक निकलते हैं, जिनमें पार्टिकुलेट मैटर, नाइट्रोजन ऑक्साइड्स, कार्बन मोनोऑक्साइड और वाष्पशील कार्बनिक गैसें शामिल हैं। ये प्रदूषक तत्व इंसान के स्वास्थ्य और स्थानीय पर्यावरण दोनों के लिए खतरा पैदा करते हैं।
मिसाइलें स्वयं भी हानिकारक पदार्थ छोड़ती हैं, जैसे कि एल्युमीनियम ऑक्साइड, ब्लैक कार्बन और प्रतिक्रियाशील नाइट्रोजन तथा क्लोरीन गैसें। इनमें से कुछ ओज़ोन परत को भी नुकसान पहुंचा सकती हैं।
'वार ऑन क्लाइमेट' नामक रिपोर्ट के अनुसार, गाजा में 15 महीने लंबे संघर्ष से केवल सैन्य गतिविधियों के चलते लगभग 19 लाख टन कार्बन डाइऑक्साइड के समान उत्सर्जन हुआ।
यह 36 देशों के वार्षिक उत्सर्जन से अधिक है। अगर इसमें युद्ध की तैयारी और युद्ध के बाद के पुनर्निर्माण को भी शामिल किया जाए, तो यह आंकड़ा 3.22 करोड़ टन से अधिक हो जाता है, जो दुनिया के 100 से अधिक देशों के वार्षिक उत्सर्जन से भी ज़्यादा है।
2022 में रूस-यूक्रेन युद्ध की शुरुआत से लेकर 2025 की शुरुआत तक, कुल 23 करोड़ टन कार्बन डाइऑक्साइड समान उत्सर्जन हो चुका है, जिसमें केवल वर्ष 2024 में ही 5.5 करोड़ मीट्रिक टन उत्सर्जन हुआ।
यह मात्रा ऑस्ट्रिया, हंगरी, चेक गणराज्य और स्लोवाकिया, इन चारों देशों के संयुक्त वार्षिक उत्सर्जन के बराबर है, या फिर 12 करोड़ जीवाश्म ईंधन से चलने वाले वाहनों के सालभर के उत्सर्जन के बराबर।
हालांकि दुनिया का ध्यान मानवीय पीड़ा पर केंद्रित है, लेकिन जलवायु और पारिस्थितिक तंत्रों पर इसके प्रभाव भी उतने ही गंभीर और दूरगामी हैं।
युद्ध के पर्यावरणीय परिणाम अत्यधिक व्यापक हैं और उन्हें तुरंत संबोधित किया जाना चाहिए — खासकर जब क्षेत्रीय सशस्त्र संघर्षों की बढ़ती संख्या को ध्यान में रखा जाए।