समझौते के तीन दशक बाद मरुस्थलीकरण पर चेती दुनिया

भारत में मरुस्थलीकरण के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन (कॉप14) चल रहा है। पढ़ें, सुनीता नारायण का यह लेख, जो बताता है कि तीन दशक बाद यह सम्मेलन कैसे प्रासंगिक लग रहा है
महाराष्ट्र के धुले जिले में रेगिस्तान जैसे हालात बन गए हैं। फोटो: डीटीई
महाराष्ट्र के धुले जिले में रेगिस्तान जैसे हालात बन गए हैं। फोटो: डीटीई
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हमने मरुस्थलीकरण के खिलाफ लड़ाई के संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन को रियो की सौतेली संतान कहा है। क्यों? क्योंकि यह एक उपेक्षित और स्पष्ट रूप से अनचाहा समझौता था, जिस पर दुनिया ने 1992 के रियो कांफ्रेंस में हस्ताक्षर किया था। यह समझौता इसलिए भी हुआ था क्योंकि अफ्रीका और अन्य विकासशील देश ऐसा चाहते थे। यह चरणबद्ध काम करने वाले मसौदे (एसओपी) के करार का वह टुकड़ा था जिसे अमीर देश समझ नहीं पाए या फिर उन्हें इस पर बिल्कुल विश्वास ही नहीं था।

रियो में जलवायु परिवर्तन प्रमुख एजेंडा था। इसके बाद अगला मुद्दा जैवविविधता संरक्षण का आया जिसके तहत दक्षिणी देशों के काफी हद तक बचे हुए संसाधनों को संरक्षित करने और सुरक्षित करने की जरूरत पर जोर था। फिर वनों का मुद्दा सामने आया और प्रस्तावित सम्मेलन का विकासशील देशों ने कड़ा विरोध किया। उनका कहना था ये उनके प्राकृतिक संसाधनों से जुड़े करार या कानूनों का उल्लंघन होगा।

इस सारी कड़वाहट के बीच मरुस्थलीकरण सम्मेलन का जन्म हुआ था। आज करीब तीस वर्षों के बाद जब दुनिया जलवायु परिवर्तन के मारक प्रभाव देख रही है, अब जब विलुप्त होती प्रजातियों की लड़ाई को हार रहे हैं साथ ही प्रलयकारी परिवर्तन की भयावह आशंकाओं का सामना कर रहे हैं तो एक भूले हुए, उपेक्षित सम्मेलन की सौतेली छवि को जरूर बदलना चाहिए। यह एक वैश्विक करार है जो कि हमारे वर्तमान और भविष्य को बना देगा या तोड़ देगा।

तथ्य यह है कि हमारे प्राकृतिक संसाधनों का प्रबंधन खासतौर से जमीन और पानी, जिसकी सम्मेलन में सबसे ज्यादा चिंता है, आज सबसे ज्यादा जोखिम में है। अजीब मौसम के कारण बढ़ने वाला हमारा अपना कुप्रबंधन लाखों लोगों को अपनी चपेट में ले रहा है औ्रर अधिकांश को हाशिए पर ढकेल रहा है।

लेकिन दीवार के दूसरी ओर भी एक पक्ष है। यदि हम जमीन और पानी के अपने प्रबंधन को सुधार सके तो हम जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों से बच सकते हैं। हम गरीबों के लिए धन जुटा सकते हैं उनकी आजीविका को सुधार सकते हैं। और इन कामों से हम हरित गृह गैस (जीएचडी) को भी घटा सकते हैं। पेड़ों को बढ़ाकर और मिट्टी की सेहत में सुधार कर कार्बन डाई ऑक्साइड को सोखा जा सकता है और सबसे अधिक महत्वपूर्ण है कि खेती के तरीकों और खान-पान की आदतों में सुधार कर ग्रीन हाउस गैस के उत्सर्जन को भी कम किया जा सकता है। इसलिए जरूरत है कि इस सम्मेलन में सौतेले बच्चे से अभिभावक की तरफ चला जाए।

मैं ऐसा क्यों कह रही हूं? दुनिया के बड़े भू-भाग में हो रही अतिशय वर्षा के नमूनों को देखिए। विकसित और विकासशील, अमीर और गरीब सभी हलकान हैं। भारत में यह मानसून एक अभिशाप है, यह हमेशा वरदान की तरह नहीं रहा। कई क्षेत्रों में एक दिन में औसत बारिश से 1000 से 3000 फीसदी तक अधिक वर्षा हो रही है। इसका अर्थ यह है कि वर्षा के कारण अधिक भू-भाग डूब रहा है। घर और आजीविका बर्बाद हो रही है। लेकिन इससे भी बुरा यह है कि यह बाढ़ बिना समय गवाएं सूखे में तब्दील हो जाती है। यह इसलिए क्योंकि भारी वर्षा का संग्रहण नहीं हो सकता। इससे पुनर्भरण (रीचार्ज) भी नहीं किया जा सकता और इसलिए जब बाढ़ का वक्त होता है तब सूखा भी पड़ रहा है।

अब ऐसी प्रत्येक गतिविधियां, सिर्फ प्राकृतिक आपदाएं ही नहीं, सरकार के विकास के उस लाभांश को नुकसान पहुंचाती हैं, जिन्हें वह मजबूत करने के लिए कड़ी मेहनत करती है। घर और अन्य व्यक्तिगत संपत्तियां इसमें बह जाती हैं। सड़कें और सरचनाएं नष्ट हो जाती हैं जिन्हें फिर से बनाना पड़ता है। यह भी स्पष्ट है कि बाढ़ और सूखा सिर्फ जलवायु परिवर्तन और बदलते मौसम की प्रवृत्तियां नहीं हैं।

सूखे का यह तथ्य विदित है कि ये जल संसाधनों के कुप्रबंधन का नतीजा है। या तो जहां जल का पुनर्भरण पर्याप्त नहीं है या फिर जहां पानी का बेजा इस्तेमाल किया जाता है। वहीं, बाढ़ हमारी ड्रेनेज के लिए योजना बनाने की असक्षमता का नतीजा है। इसके अलावा बाढ़ इस वजह से भी है क्योंकि जलाशयों के किनारे वनों के संरक्षण और डूब क्षेत्र को बर्बाद करके भवन निर्माण जैसे अपराध को लेकर हमारी चिंताएं गायब हैं।

यह भी एक तथ्य है कि वैश्विक तापमान में वृद्धि हो रही है। दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में बेहद तीव्र गर्मी वाली गतिविधियां देखी जा रही हैं। ज्यादा गर्मी और धूल हर कहीं मौजूद है। दक्षिण एशियाई उपमहाद्वीप में तापमान ने ऐसे स्तर तक उछाल लगाई है, जिसकी कल्पना भी नहीं की गई थी। ज्यादा तापमान का अर्थ है कि जमीन से नमी गायब होगी, धूल और मरुस्थलीकरण बढेगा। यह स्थिति एक धूल का आवरण तैयार कर देगी। जिसके कारण तूफानी 130 किलोमीटर प्रति घंटा से अधिक तेज वाली तूफानी हवाएं भी चलेंगी, जो सबकुछ नष्ट करने की ताकत रखती हैं। 90 से 100 किलोमीटर प्रति घंटे को तूफानी हवा कहते हैं।

2018  में 500  से अधिक लोग उत्तर भारतीय राज्यों में तूफानी हवा के कारण मारे गए। दोबारा इससे दोगुना इसकी मार झेल रहे हैं। जिन जगहों पर पहले ही गर्मी और जलसंकट है वहीं यह उच्च तापमान और गर्मी जोड़ रहा है। हरित भूमि का अभाव मरुस्थलीकरण को बढ़ा रही है। भू-जल की अत्यधिक निकासी और लचर सिंचाई का तरीका लंबे समय से बड़े पैमाने पर जमीन की गुणवत्ता को खत्म करता आ रहा है। क्योंकि हम जिस तरह कृषि कर रहे हैं उससे जमीनों का अपक्षय हो रहा है।

जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी पैनल (आईपीसीसी) 2019 की रिपोर्ट में सही तरीके से इशारा किया गया है कि आधुनिक कृषि के तरीकों, जिसमें अत्यधिक रसायनों और औद्योगिकीकरण का इस्तेमाल हो रहा है उसकी वजह से हरित गृह गैसों का उत्सर्जन बढ़ रहा है। रिपोर्ट में बदलते खान-पान में बदलाव के बारे में भी बताया गया है। हमारे खान-पान और जलवायु परिवर्तन के बीच अब संबंध जोड़ दिया गया है।

इसलिए 1992 में रियो के पृथ्वी सम्मेलन में अनमने तरीके से जो हस्ताक्षर किया गया था वह इस मरुस्थलीकरण सम्मेलन में अब और भी अधिक प्रासंगिक हो गया है। यह एक महत्वपूर्ण बदलाव भी है।

रियो सम्मेलन में उत्तरी देशों ने पूछा था कि इस मुद्दे को लेकर क्या किया जाए? यदि मरुस्थलीकरण एक वैश्विक मुद्दा नहीं था तो आखिर अंतरराष्ट्रीय करार क्यों हुआ? रियो में अफ्रीकी देशों ने , जिन्होंने इस सम्मेलन के लिए तर्क दिए थे, उन्होंने यह महत्वपूर्ण कड़ी जोड़ी थी कि कैसे अनाज की कीमतें गिर रही हैं, उन्हें उनकी भूमि और छूट के लिए दबाव बना रही थीं। यह सबकुछ मरुस्थलीकरण और जमीन के अपक्षयन में बदल गया।

आज कोई संदेह नहीं है कि मरुस्थलीकरण एक वैश्विक मुद्दा है। ऐसे में देशों के बीच एक आपसी सहयोग और तालमेल की जरूरत है। यह तथ्य है कि हम अभी जलवायु परिवर्तन के शुरुआती प्रभावों को देख रहे हैं। यह और ज्यादा मारक होगा जैसे यह तापमान बढ़ेगा और यह हमारे नियंत्रण से बाहर हो जाएगा।

यह भी स्पष्ट है कि आज पूरी दुनिया में गरीब ही इस मानव जनित स्थानीय और वैश्विक आपदा के पीड़ित हैं। अमीर रेतीले तूफानों में नहीं मरते हैं। जब चक्रवाती तूफान आता है तो अमीर अपनी आजीविका नहीं खोते हैं। लेकिन यह भी तथ्य है कि यह अजीबोगरीब मौसम का संकेत है जो सभी तक पहुंचेगा। यह बदलाव रैखिक नहीं है न ही अनुमान योग्य है। एक एक सदमे की तरह आएगा और हम इसके लिए तैयार नहीं होगे। फिर चाहे वह अमीर विकासशील देश का हो या फिर विकसित देश का। अंतत: जलवायु परिवर्तन सभी को समान रूप से प्रभावित करेगा।

यह भी साफ है कि इस दंड देने वाले बदलाव में आपदाओं की संख्या में बेतरतीब मौसम के कारण काफी इजाफा हुआ है। इसने गरीब को और गरीब बनाया है, दरिद्रता और हाशिए पर खड़े ऐसे लोगों में और अधिक निराशा बढ़ेगी जब इन्हें अपनी जमीन छोड़नी पड़ेगी साथ ही आजीविका के लिए नए व वैकल्पिक तलाश करना होगा।

पलायन सिर्फ एकमात्र विकल्प होगा, या तो शहर जाओ या फिर किसी दूसरे देश। जैसा मैं बुलाती हूं यह डबल जियोपैरेडी होगी यानी यह जीवन पर दोहरा संकट होगा। इससे एक अस्थिरता पैदा होगी जो कि दुनिया में असुरक्षा और हिंसा को बढ़ाएगी। यह एक बेहद विनाशकारी बदलाव है जिससे हमें जरूर लड़ना होगा। मरुस्थलीकरण हमारे भूमंडलीकृत दुनिया के बारे में है। एक दूसरे से जुड़ा हुआ और एक दूसरे पर निर्भर।

यह वो जगह है जहां अवसर मौजूद हैं। यह सम्मेलन मरुस्थलीकरण के बारे में नहीं है। यह मरुस्थलीकरण से लड़ाई के बारे में है। हर वह तरीका जिससे हम मरुस्थलीकरण अथवा जमीन का अपक्षय अथवा जलसंकट से लड़ पाए तो निश्चित हम आजीविका को सुधारेंगे और जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को भी कम करेंगे। जमीन और पानी का एजेंडा जलवायु परिवर्तन की लड़ाई के मूल में है। यह स्थानीय अर्थव्यवस्था को बनाने और लोगों की सेहत में सुधार के मूल में है। गरीबी से लड़ाई। मानव के अस्तित्व की लड़ाई को जीतना। यही सारी चीजें मूल रूप से मरुस्थलीकरण के खिलाफ लड़ाई के संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन के बारे में हैं। अब, चलिए वैश्विक नेतृत्व को आगे बढ़ाने में मदद करें, जो इस बदलाव की बयार को बहा सके। 

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