भारत के मध्य हिमालय क्षेत्र में स्थित प्रसिद्ध तीर्थ स्थल केदारनाथ को एक पवित्र भूमि माना जाता है। सदियों से इसे "देवभूमि" या "देवताओं की भूमि" कहा जाता रहा है। यही वजह है कि हर साल लाखों श्रद्धालु देवताओं का आशीर्वाद प्राप्त करने के साथ-साथ अन्य धार्मिक प्रयोजनों के लिए बड़ी संख्या में इस क्षेत्र की यात्रा करते हैं।
यह स्थल, पवित्र चार धाम यात्रा का एक हिस्सा है। इस यात्रा के दौरान विभिन्न देवी-देवताओं को समर्पित चार पवित्र पर्वतीय स्थलों की तीर्थयात्रा की जाती है। 20,000 फुट ऊंची बर्फ से ढंकी चोटियों की तलहटी में स्थित, केदारनाथ इन्हीं चार प्रमुख तीर्थ स्थलों में से एक है।
मान्यता है कि शक्तिशाली हिंदू भगवान शिव, केदारनाथ के एक घास के मैदान में शंक्वाकार चट्टान के रूप में प्रकट हुए थे, जो एक दिव्य रूप, लिंगम के रूप में उनकी उपस्थिति का प्रतीक है। करीब 12,000 फीट की ऊंचाई पर स्थित इस लिंगम के ऊपर हजार वर्षों से भी अधिक समय से एक पत्थर से बना मंदिर विधमान है।
मैंने धर्म, प्रकृति और पारिस्थितिकी पर दशकों से किए जा रहे शोध के एक हिस्से के रूप में 2000, 2014 और 2019 में इस क्षेत्र का दौरा किया था; मैंने कई गर्मियां हिमालय में बिताई हैं। चार धाम यात्रा पर आए श्रद्धालुओं के विशाल हुजूम में से कई लोगों ने मुझे बताया कि उनका मानना है कि अपने जीवनकाल में कम से कम एक बार इस तीर्थयात्रा को करना जरूरी है, अक्सर वे इसे अपनी सबसे महत्वपूर्ण यात्रा मानते हैं।
हालांकि जिस तरह से जलवायु में बदलाव आ रहे हैं वो इस पवित्र स्थल के लिए भी खतरा पैदा का रहा है। जैसे-जैसे धरती का तापमान बढ़ रहा है, केदारनाथ के ऊपर 20,000 फुट ऊंची चोटियों पर मौजूद ग्लेशियर पिघल रहे हैं और खतरनाक दर से पीछे हट रहे हैं। यह ग्लेशियर मंदाकिनी जोकि गंगा की एक महत्वपूर्ण सहायक नदी है उसके जल का एक प्रमुख स्रोत भी हैं।
जैसा कि मैंने अपनी पुस्तक "अंडरस्टैंडिंग क्लाइमेट चेंज थ्रू रिलीजियस लाइफवर्ल्ड्स" में चर्चा की है, जलवायु परिवर्तन के कारण आने वाली आपदाएं धार्मिक मान्यताओं को दृढ़ता से प्रभावित कर रही हैं, जो धार्मिक मान्यताओं और प्रथाओं को नया आकार दे रहीं हैं।
हिमालय क्षेत्र पर मंडराता खतरा
दुनिया भर में ग्लेशियर बड़ी तेजी से पिघल रहे हैं, लेकिन भारतीय हिमालय में मौजूद उपोष्णकटिबंधीय ग्लेशियर भूमध्य रेखा के करीब होने के कारण कहीं ज्यादा खतरे में हैं। कई जलवायु वैज्ञानिकों का भी मानना है कि जलवायु में आता बदलाव दुनिया के किसी अन्य क्षेत्र की तुलना में हिमालय को कहीं ज्यादा प्रभावित कर रहा है।
पिघलते ग्लेशियर भारी मात्रा में पानी मुक्त कर रहा हैं, वे चट्टानों से बने अस्थिर प्राकृतिक अवरोधों द्वारा जगह-जगह बड़ी झीलें बनाते हैं जो ग्लेशियरों के बड़े होने पर ढेर हो जाती हैं। ग्लेशियरों के सिकुड़ने से इन झीलों में अचानक विस्फोट से बाढ़ आ जाती है।
ग्लोबल वार्मिंग के चलते होने वाली एक और गंभीर समस्या, अधिक ऊंचाई पर बर्फबारी के स्थान पर बारिश का होना है। जहां बर्फ धीरे-धीरे पिघलती है, वहीं बारिश तेजी से होती है, जिससे कटाव, भूस्खलन और भारी बाढ़ आ जाती है। जब भारी बारिश हिमनद झील के कारण होने वाली बाढ़ के साथ मिल जाती है, तो यह जानलेवा आपदाओं का कारण बन सकती है, जैसे कि 2013 में केदारनाथ में हुआ था।
केदारनाथ त्रासदी
हिमालय क्षेत्र पर अध्ययन कर रहे वैज्ञानिकों के मुताबिक जून 2013 में, केदारनाथ के पास 24 घंटों में एक फुट से अधिक की अभूतपूर्व बारिश हुई थी, जो पहले कभी नहीं देखी गई। इससे केदारनाथ के ऊपरी हिस्से में भारी मात्रा में जल भराव हो गया। इसके अतिरिक्त मंदाकिनी नदी अपने किनारों को पार करते हुए सीमाओं से बाहर निकल गई, जिससे भूस्खलन और विनाशकारी बाढ़ आ गई।
हालात उस समय और बदतर हो गए जब केदारनाथ के ऊपर पिघलते चोराबाड़ी ग्लेशियर से हिमनद झील को रोकने वाली चट्टानों से बनी बाधा अचानक टूट गई। इससे पानी का एक बड़ा प्रवाह नीचे गिरने लगा। नतीजन केवल 15 मिनट के भीतर, पूरी झील खाली हो गई। कलकत्ता विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों का अनुमान है कि पानी का प्रवाह नियाग्रा फॉल्स के करीब-करीब आधा था।
सौभाग्य से, करीब 30 फीट ऊंचा एक बड़ा पत्थर, पहाड़ से लुढ़क गया और प्राचीन मंदिर के ठीक सामने रुक गया। इस शिलाखंड ने एक अवरोध की तरह काम किया, जिसने तेज पानी को बांट दिया, जिससे मंदिर बड़े नुकसान से बच गया। दुख की बात यह रही कि केदारनाथ में दूसरी अन्य सभी इमारतें नष्ट हो गईं।
सरकारी आंकड़ों का दावा है कि इस त्रासदी में 6,000 से ज्यादा लोग मारे गए, लेकिन बचाव कार्यों में शामिल लोगों ने यह आंकड़ा कहीं ज्यादा बताया है। मरने वालों में अधिकतर तीर्थयात्री थे।
‘देवताओं का कोप’
विनाशकारी बाढ़ लोगों की आस्था को बदल रही है। इस क्षेत्र में, देवता भूमि से निकटता से जुड़े हैं, और इन देवी-देवताओं, प्रकृति और मनुष्यों के बीच एक मजबूत संबंध है। इस क्षेत्र में रहने वाले लोग इन संबंधों में आने वाले बड़े नाटकीय बदलावों को होते देख रहे हैं। जो इसे कोप के रूप में समझते हैं।
गंगोत्री के एक निवासी ने इस बारे में बताया कि, "अब हम जिस तरह से व्यवहार कर रहे हैं उससे देवता हमसे कुपित हैं।" जब मैंने उनसे कहा कि मुझे लगता है कि यह वह क्षेत्र है, जहां लोग लंबे समय से देवताओं का आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए लम्बे समय से आते रहे हैं। तो उनका जवाब था कि 'हां', लेकिन अब वे हमसे नाराज हैं। इसीलिए यह (केदारनाथ आपदा) हुई है। उनका कहना था कि अगर हमने अपने काम करने के तौर-तरीकों में बदलाव नहीं किया तो और भी बहुत कुछ होगा।"
बहुत से लोगों की इस बारे मे यही मान्यता है। उनके अनुसार मौसमी आपदाएं, इंसानों के गलत कार्यों, विशेष रूप से पर्यावरण की उपेक्षा का परिणाम है। एक महत्वपूर्ण धार्मिक परिवर्तन जो जलवायु परिवर्तन के परिणामस्वरूप हिमालयी हिंदू धर्म में देखा जा रहा है, वह यह है कि देवताओं की जिन्हें कभी आशीर्वाद देने वाला समझा जाता था वो अब दंड देने वाले स्वरूप में बदल रहे हैं।
उत्तरकाशी के एक निवासी का कहना है कि, "आज दुनिया में बहुत ज्यादा गलत काम हो रहे हैं। लोग बहुत ज्यादा प्रदूषण फैला रहे हैं। इसलिए मौसम बदल रहा है, और देवता हमें दंड देना शुरू कर रहे हैं।" हालांकि देखा जाए तो कई मायनों में इस दावे में कुछ भी नया नहीं है। मानव नैतिकता और पर्यावरण घनिष्ठ रूप से जुड़े हैं, लेकिन अब जिस हद तक बदलाव हो रहे हैं वो अधिक चिंता का कारण बन रहा है।
इस क्षेत्र में आध्यात्मिक पथिक प्रत्यक्ष रूप से इन बदलावों को देख रहे हैं, कि पिछले कुछ वर्षों में हिमालय में कितना बदलाव आया है। इस क्षेत्र में रहने वाले एक साधु ने समझाया कि, “देवता प्रकृति हैं। जब हम प्रकृति के साथ अच्छा व्यवहार नहीं करते, तो इसक मतलब है कि हम देवताओं का अनादर कर रहे हैं। हम प्रकृति के साथ जो कर रहे हैं उससे वो हमसे कुपित हैं। यही कारण है कि विनाशकारी तूफान बढ़ते जा रहे हैं।"
पूरी तरह खत्म नहीं हुई उम्मीदें
हालांकि, अभी सब कुछ खत्म नहीं हुआ है, बेहतर भविष्य की आशा अभी भी बरकरार है। धारणा है कि यदि मनुष्य अपने व्यवहार में बदलाव करे तो चीजें बेहतर हो सकती हैं और सबसे बुरी स्थिति से बचा जा सकता है। विशेष रूप से, कई लोगों ने इसे भूमि के देवताओं के साथ अधिक सम्मानजनक रिश्ते की वापसी के रूप में व्यक्त किया।
जब केदारनाथ में एक व्यक्ति से पूछा कि देवताओं को कैसे प्रसन्न किया जाए और स्थिति में सुधार कैसे किया जाए, तो उसने स्पष्ट रूप से कहा: "एक बार फिर जमीन और प्रकृति का सम्मान करें।" प्रकृति के साथ अच्छा व्यवहार करना देवताओं का सम्मान करने के समान है।
उत्तरकाशी की एक महिला ने इस बारे में आगे समझाया कि, "देवता और भूमि एक ही हैं। हम दोनों के साथ दुर्व्यवहार कर रहे हैं। बाढ़, एक बच्चे के लिए चेतावनी भरे थप्पड़ की तरह है, जो हमें अपने तरीकों में बदलाव के लिए कह रही है। अगर हम ऐसा नहीं करेंगे तो हम खत्म हो जाएंगें।
लोगों के कार्य अभी भी उस विश्वास का एक बड़ा हिस्सा हैं जो मनुष्य, देवताओं और प्रकृति को जोड़ते हैं। ऐसे में सम्मानजनक संबंधों की बहाली एक स्थाई भविष्य की कुंजी है। हिमालय क्षेत्र में रहने वाले कई लोगों का कहना है कि हम प्रकृति के साथ सकारात्मक रिश्ते की ओर लौट सकते हैं, लेकिन अगर हमने देवताओं की चेतावनियों पर ध्यान न दिया तो भारी विनाश का सामना करना होगा, इसके चलते हमारा अंत निकट है।
क्या है नियति
मध्य हिमालय के क्षेत्रों में बढ़ती तीव्रता के साथ बार-बार विनाशकारी बाढ़ें आती रहती हैं। 2013 में केदारनाथ में हुई त्रासदी के बाद, चार धाम क्षेत्र में अचानक आई बाढ़ में 800 से ज्यादा लोग मारे गए हैं।
इसी तरह 2022 में भी खतरनाक भूस्खलन और बाढ़ के चलते केदारनाथ यात्रा रोक दी गई थी। हालांकि, भारत सरकार भी इस क्षेत्र में धार्मिक पर्यटन को बढ़ावा दे रही है। 2022 में रिकॉर्ड संख्या में तीर्थयात्रियों और श्रद्धालुओं ने केदारनाथ और मध्य हिमालय में अन्य चार धाम स्थलों का दौरा किया था।
नतीजन अधिक संख्या में रहने के लिए इमारतों की जरूरत पड़ रही है। साथ ही भीड़-भाड़ वाली सड़कों और प्रदूषण पैदा करने वाले वाहनों के चलते जमीन पर दबाव बढ़ रहा है। वाहनों, कारखानों और अन्य मानवीय गतिविधियों के चलते वातावरण में बहुत अधिक मात्रा में ग्रीनहाउस गैसें फैल रही हैं, जो पृथ्वी को बड़ी तेजी से गर्म कर रही हैं। विशेषज्ञों को चिंता है कि इसकी वजह से 2013 में आई केदारनाथ त्रासदी जैसी आपदाओं का बार-बार आना सामान्य हो जाएगा।
डेविड एल. हैबरमैन, इंडियाना विश्वविद्यालय में धार्मिक अध्ययन के सेवानिवृत्त प्रोफेसर
यह लेख क्रिएटिव कॉमन्स लाइसेंस के तहत द कन्वर्सेशन से लेकर हिंदी में अनुवादित किया गया है। आप मूल लेख यहां पढ़ सकते हैं।