आईपीसीसी रिपोर्ट के मुताबिक, अगले 1,000 वर्षों तक बर्फ का पिघलना जारी रहेगा। Photo: wikimedia commons
आईपीसीसी रिपोर्ट के मुताबिक, अगले 1,000 वर्षों तक बर्फ का पिघलना जारी रहेगा। Photo: wikimedia commons

बर्फ का काला नक्शा: पंचाचूली से उत्तरी ध्रुव तक जलवायु संकट की कहानी

दुनिया के 50 संरक्षित प्राकृतिक और सांस्कृतिक धरोहर स्थलों में मौजूद लगभग 18,600 ग्लेशियरों में से अधिकांश वर्ष 2050 तक समाप्त हो सकते हैं
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हिमालय की कालामुनि,बद्रीनाथ, पंचाचूली पर्वत चोटियां, जिनकी पहचान सदियों से बर्फ की चादरों से रही है, अब काली पड़ने लगी हैं। सफेद चमकती चोटियों का यह बदलाव केवल उत्तराखंड के पर्वतीय सौंदर्य का संकट नहीं, बल्कि एक गहरे जलवायु संकट की ओर संकेत करता है। भारतीय मौसम विभाग की रिपोर्ट के मुताबिक, उत्तराखंड में औसत बर्फबारी में पिछले 50 वर्षों में 20 प्रतिशत की कमी दर्ज की गई है। भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण के अनुसार, 1962 से अब तक हिमालयी ग्लेशियरों का 30 प्रतिशत हिस्सा पिघल चुका है।

यह "तीसरा ध्रुव" न केवल एशिया की दस प्रमुख नदियों का स्रोत है, बल्कि करोड़ों लोगों की जीवनरेखा भी है। हिमालय से निकलने वाली गंगा, ब्रह्मपुत्र और सिंधु जैसी नदियाँ केवल जल स्रोत नहीं हैं, वे हमारी सभ्यता की धड़कन हैं। लेकिन ग्लेशियरों का सिकुड़ना इस धड़कन को धीमा कर रहा है। नदियों का घटता जल प्रवाह न केवल हिमालयी पारिस्थितिकी को खतरे में डाल रहा है, बल्कि करोड़ों लोगों की जल सुरक्षा पर भी सवाल खड़ा कर रहा है।

यह स्थिति केवल हिमालय नहीं बल्कि पूरे विश्व की है । वर्ष 2027 में ऐसा दिन आने की संभावना है जब उत्तरी ध्रुव बर्फ-विहीन हो जाएगा। भले ही यह घटना एक दिन की हो, पर इसका संदेश साफ है—मानव गतिविधियाँ ध्रुवीय स्थिरता को समाप्त कर रही हैं। वैज्ञानिकों के मुताबिक,वर्ष 2030 तक ऐसा महीना आ सकता है जब उत्तरी ध्रुव पर बर्फ पूरी तरह गायब हो।

आंकड़े बताते हैं कि वर्ष 1979 से 1992 के बीच उत्तरी ध्रुव का बर्फीला आवरण 65.8 लाख वर्ग किलोमीटर था, जो वर्ष 2024 की गर्मियों में 42.8 लाख वर्ग किलोमीटर तक सिकुड़ गया। कंप्यूटर मॉडल्स और उपग्रह डाटा से तैयार अंतरराष्ट्रीय अध्ययन बताते हैं कि प्रत्येक दशक में बर्फ 12% की दर से घट रही है।

यूरोप के आल्प्स, जिन्हें “यूरोप का जल टॉवर” कहा जाता है, अब अपने ग्लेशियरों को गंंवाते हुए एक नई पहचान की ओर बढ़ रहे हैं। ये पर्वत, जो यूरोप के जल संसाधनों का मुख्य स्रोत हैं, हर साल 2-3% बर्फ खो रहे हैं। यूरोपीय पर्यावरण एजेंसी की रिपोर्ट बताती है कि वर्ष 2022 में पहली बार आल्प्स के 60 प्रतिशत ग्लेशियर पूरी तरह बर्फविहीन हो गए।

यह संकट केवल बर्फ तक सीमित नहीं है। ग्लेशियरों के पिघलने का प्रभाव दूर तक महसूस हो रहा है। नदियों का जल स्तर घट रहा है, जिससे कृषि, ऊर्जा उत्पादन, और पीने के पानी की उपलब्धता प्रभावित हो रही है। औसत तापमान में 1.5 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि दर्ज की गई है, जिसने बर्फबारी को घटा दिया है और पर्यटन, जो यहाँ की अर्थव्यवस्था की रीढ़ है, भी अनिश्चितताओं से जूझ रहा है।

दक्षिण अमेरिका की एंडीज पर्वत श्रृंखला, जो अमेज़न और अन्य महत्वपूर्ण नदियों की जीवनरेखा है, अपनी बर्फीली पहचान खो रही है। वर्ल्ड ग्लेशियर मॉनिटरिंग सर्विस की रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 1970 से अब तक एंडीज के 42 प्रतिशत ग्लेशियर खत्म हो चुके हैं। पेरू के कॉर्डिलेरा ब्लांका ग्लेशियर का 35% हिस्सा पहले ही पिघल चुका है।

यह संकट केवल प्राकृतिक घटना नहीं है। एंडीज के ग्लेशियर लगभग 1.1 करोड़ लोगों की जल आपूर्ति का आधार हैं। जलवायु परिवर्तन का यह प्रभाव उन विकासशील देशों के लिए एक त्रासदी है, जो पहले से ही संसाधनों की कमी से जूझ रहे हैं। एंडीज का पिघलना सिर्फ एक ग्लेशियर का पिघलना नहीं, बल्कि स्थानीय समुदायों की धड़कनों का थमना है।

अमेरिका के रॉकी पर्वत, जिनकी बर्फीली चोटियाँ और समृद्ध वन्य जीवन ने हमेशा एक मजबूत छवि बनाई है, अब संकट में हैं। यूएस जियोलॉजिकल सर्वे के अनुसार, वर्ष 1995 से अब तक रॉकी पर्वत के ग्लेशियरों का 25% हिस्सा पिघल चुका है।

ग्लेशियर नेशनल पार्क में कभी 150 ग्लेशियर हुआ करते थे, जिनमें अब केवल 26 बचे हैं। बर्फ पिघलने का समय बसंत में 20 दिन पहले शुरू हो रहा है। यह न केवल स्थानीय जलवायु पर असर डाल रहा है, बल्कि पूरे महाद्वीप की जल आपूर्ति पर भी गंभीर संकट खड़ा कर रहा है।

अफ्रीका का किलिमंजारो, जिसकी बर्फीली चोटियाँ इसकी पहचान हुआ करती थीं, अब लगभग बर्फविहीन हो चुकी हैं। यूनेस्को की 2021 की रिपोर्ट के अनुसार, 1912 में किलिमंजारो की बर्फ का क्षेत्रफल 12 वर्ग किलोमीटर था, जो अब घटकर मात्र 1.76 वर्ग किलोमीटर रह गया है।

विशेषज्ञों का मानना है कि 2040 तक किलिमंजारो की सारी बर्फ खत्म हो जाएगी। यह घटना केवल अफ्रीका के पारिस्थितिकी संतुलन को प्रभावित नहीं कर रही, बल्कि वहाँ के पारंपरिक जीवन और सांस्कृतिक प्रतीकों को भी खत्म कर रही है।

न्यूजीलैंड और पायरेनीज का संकट

पृथ्वी के दूसरे छोर पर न्यूजीलैंड के दक्षिणी आल्प्स और यूरोप के पायरेनीज पर्वत भी ग्लेशियर संकट का सामना कर रहे हैं। वर्ष 1977 से 2014 के बीच दक्षिणी आल्प्स के 40% ग्लेशियर खत्म हो गए हैं । पायरेनीज में स्थिति और गंभीर है, यहाँ के ग्लेशियर 50% से अधिक खत्म हो चुके हैं।

2050 तक पायरेनीज के अधिकांश ग्लेशियर समाप्त हो सकते हैं। यह संकट केवल स्थानीय जलवायु को नहीं, बल्कि पूरी जैव विविधता और क्षेत्रीय पारिस्थितिकी को प्रभावित कर रहा है।

ग्लेशियर झीलों की नई कहानी: बदलता समय, बदलते संकट

दक्षिणी ध्रुव पर बर्फ के मैदानों का यह बदलता भूगोल हमारी सामूहिक उदासीनता का सबसे सटीक दर्पण है। कभी पश्चिमी अंटार्कटिका में तेजी से पिघलने वाले ग्लेशियरों की चर्चा होती थी, और पूर्वी अंटार्कटिका के ग्लेशियर को 'सुरक्षित' माना जाता था। लेकिन बीते पाँच वर्षों ने इस विश्वास को भी धराशायी कर दिया है। अब, दक्षिणी ध्रुव का पूरा क्षेत्र जलवायु परिवर्तन के प्रभाव में आ चुका है।

यूनेस्को की एक हालिया रिपोर्ट भयावह भविष्य की तस्वीर पेश करती है। दुनिया के 50 संरक्षित प्राकृतिक और सांस्कृतिक धरोहर स्थलों में मौजूद लगभग 18,600 ग्लेशियरों में से अधिकांश वर्ष 2050 तक समाप्त हो सकते हैं। यह आंकड़ा केवल एक पर्यावरणीय संकट का नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक क्षरण का भी परिचायक है। इन ग्लेशियरों में न केवल बर्फ है, बल्कि पृथ्वी के लाखों वर्षों के इतिहास की परतें भी छिपी हैं।

ग्लेशियर झीलें: नई आपदाओं का जन्म

ग्लेशियर के सिकुड़ने से बनी झीलें पहले की तुलना में अधिक ऊँचाई पर बन रही हैं और उनका जीवनकाल भी पहले की तुलना में कम हो गया है। वैज्ञानिक जर्नल नेचर में प्रकाशित हालिया अध्ययन इस नई चुनौती को सामने लाता है। वर्ष 1900 की तुलना में अब झीलें अपने समय से 7 से 11 सप्ताह पहले बनने लगी हैं। हिमालय के ऊँचाई वाले क्षेत्रों में जो तापमान पहले वर्ष के अंत में आता था, वह अब साल के मध्य में ही दस्तक देने लगा है।

यूनिवर्सिटी ऑफ पॉट्सडैम के वैज्ञानिक जॉर्ज वेह और उनकी टीम के इस अध्ययन ने वर्ष 1900 के बाद से वर्ष 1500 से अधिक झीलों की आकस्मिक बाढ़ और उनके कारण हुए नुकसान का गहन विश्लेषण किया। इसमें यह पाया गया कि हाल के दशकों में झीलों की संख्या तो बढ़ी है, लेकिन उनका आयतन कम हो गया है। बाढ़ के समय पानी का बहाव भी कम हुआ है, लेकिन इसकी अनिश्चितता और खतरनाक प्रवृत्ति पहले से कहीं अधिक बढ़ गई है।

ग्लेशियर झीलों का यह बदलाव केवल आंकड़ों की कहानी नहीं है। यह हिमालय से आल्प्स और उत्तर-पश्चिम अमेरिका तक, हर जगह एक समान है। यूरोपियन आल्प्स में झीलें 10 सप्ताह पहले बन रही हैं, और उत्तर-पश्चिम अमेरिका में 7 सप्ताह पहले। यह बदलाव केवल झीलों के बनने के समय का नहीं, बल्कि पूरे जलवायु तंत्र के अस्थिर होने का संकेत है।

जलवायु परिवर्तन की नई चेतावनी

ग्लेशियर झीलों के बनने का समय, उनका आयतन, और उनके टूटने से होने वाले नुकसान का स्वरूप—सब कुछ बदल रहा है। इन झीलों का औसत जीवनकाल घटा है, और उनकी अनिश्चितता बढ़ी है। यह संकट केवल हिमालय या अंटार्कटिका तक सीमित नहीं है; यह हमारी पृथ्वी के हर कोने में पसरा हुआ है।

इन झीलों की अनिश्चितता हमारी सभ्यता की अस्थिरता का प्रतिबिंब है। जलवायु परिवर्तन की यह कहानी ठंडी बर्फ में नहीं, बल्कि गर्म आँसुओं में लिखी जा रही है। और हर बार जब कोई झील टूटती है, तो वह केवल पानी नहीं छोड़ती; वह हमारी उम्मीदों और हमारी सामूहिक जिम्मेदारी को भी बहा ले जाती है।

आल्प्स, एंडीज, रॉकी, किलिमंजारो—ये केवल पर्वत नहीं हैं। ये हमारे समय के जीवित दस्तावेज़ हैं। बर्फ की इन पिघलती परतों में हमारी गलतियों का इतिहास लिखा जा रहा है। ये चोटियाँ हमें देख रही हैं, सवाल पूछ रही हैं, और चेतावनी दे रही हैं। लेकिन क्या हम सुन रहे हैं?

गंगोत्री का खिसकता अतीत: हिमालय के आँचल में पिघलता वर्तमान

गंगोत्री—हिमालय के गर्भ में बसा यह प्राचीन ग्लेशियर केवल एक बर्फ का पहाड़ नहीं है, बल्कि हमारी सभ्यता का आधार है। और अब, यह आधार हर साल पीछे खिसक रहा है, मानो अपने ही अतीत से कटता जा रहा हो। जीबी पंत राष्ट्रीय हिमालयी पर्यावरण संस्थान की ताज़ा रिपोर्ट बताती है कि बीते 12 वर्षों में गंगोत्री ग्लेशियर 144 मीटर पीछे खिसक गया है। यह खिसकना केवल भौतिक नहीं है; यह हमारी स्मृतियों, हमारी मान्यताओं और हमारी आशाओं का खिसकना भी है।

रिपोर्ट के मुताबिक, वर्ष 2005 से 2017 तक, गंगोत्री समेत भागीरथी खरक, सतोपंथ, चतुरंगी और रक्तवर्ण जैसे कई प्रमुख ग्लेशियरों का अध्ययन किया गया। अध्ययन में पाया गया कि 2005 से 2010 तक गंगोत्री आठ मीटर प्रति वर्ष की दर से पीछे हट रहा था। लेकिन 2016 तक यह दर बढ़कर 14.58 मीटर प्रति वर्ष हो गई। यह आँकड़ा केवल एक चेतावनी नहीं, बल्कि उस गति की गवाही है, जिससे हमारी बर्फीली धरोहर गुम होती जा रही है।

वैज्ञानिक इसे जलवायु परिवर्तन और बढ़ते तापमान का नतीजा मानते हैं। लेकिन क्या यह केवल तापमान की कहानी है? या यह हमारी लापरवाहियों और हमारी विकास की अंधी दौड़ का दुष्परिणाम है?

फर्न लाइन: ऊपर उठता संतुलन का बिंदु

गंगोत्री ग्लेशियर का संकट केवल उसके खिसकने तक सीमित नहीं है। वैज्ञानिकों ने पाया कि फर्न लाइन, यानी वह रेखा जहाँ तक बर्फ स्थायी रूप से रहती है, वह भी ऊपर खिसक गई है। 2005 में यह रेखा 5327 मीटर पर थी, जबकि 2016 में यह 5376 मीटर तक पहुँच गई। यह हर साल 3.44 मीटर की दर से ऊपर खिसक रही है। यह बदलाव हमें यह बताता है कि हिमालय के ऊँचाई वाले क्षेत्रों में भी बर्फ के टिकने का संतुलन टूट रहा है।

ग्लेशियरों का दर्द: खिसकते भविष्य का संकेत

गंगोत्री का खिसकना केवल हिमालय का संकट नहीं है। यह हमारे अस्तित्व पर मंडराता एक प्रश्नचिह्न है। यह उस भविष्य की कहानी है जहाँ नदियाँ सूखेंगी, खेती बंजर होगी, और मानव सभ्यता अपनी ही बनाई हुई आपदा से जूझेगी।

गंगोत्री केवल पीछे नहीं खिसक रहा, यह हमारे सामूहिक चेतना से निकलता जा रहा है। इसकी फर्न लाइन ऊपर नहीं खिसक रही, बल्कि हमारी उम्मीदों की सीमा नीचे गिर रही है। यह आँकड़े बर्फ की उन बूंदों के आंसुओं का लेखा-जोखा हैं, जो हर दिन पिघलकर हमारी नदियों में बह रही हैं। लेकिन क्या हम इन आंसुओं का दर्द समझ रहे हैं?

गंगोत्री का यह खिसकता अतीत केवल हिमालय की चोटियों का संकट नहीं है। यह हमारी आस्थाओं, हमारे धर्मों और हमारी सभ्यता के मूल स्रोत का संकट है। और अगर हमने इसे अभी नहीं समझा, तो शायद यह पिघलता वर्तमान हमारे भविष्य को भी बहा ले जाएगा।

माउंट एवरेस्ट: बर्फ की ऊंचाई से खतरनाक झीलों तक का सफर

माउंट एवरेस्ट—दुनिया की सबसे ऊंची चोटी, जिसे स्थायित्व और साहस का प्रतीक माना जाता है, यह भी अब जलवायु परिवर्तन के बढ़ते तापमान के आगे झुकता नजर आ रहा है। अर्थ साइंसेज रिव्यू के हालिया अंक में प्रकाशित चाइनीज अकैडमी ऑफ़ साइंसेज के अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि बीसवीं शताब्दी के दौरान एवरेस्ट क्षेत्र का तापमान धीरे-धीरे बढ़ना शुरू हुआ था, लेकिन 1960 के बाद यह वृद्धि चिंताजनक स्तर पर पहुँच गई।

1961 से 2018 के बीच इस क्षेत्र में औसत तापमान वृद्धि दर 0.33 डिग्री सेल्सियस प्रति दशक रही। हालाँकि, बर्फ गिरने और जमने की दर पर इस तापमान वृद्धि का कोई प्रत्यक्ष प्रभाव दर्ज नहीं किया गया। लेकिन वैज्ञानिकों का मानना है कि इस पूरी शताब्दी के दौरान यह तापमान वृद्धि जारी रहेगी, विशेषकर सर्दियों में। यह क्षेत्र, जहां ग्लेशियरों का कुल विस्तार 3266 वर्ग किलोमीटर है, 1970 और 2010 के औसत विस्तार से कम हो चुका है।

ग्लेशियरों से बनती झीलें: सौंदर्य या संकट?

ग्लेशियरों के पिघलने की दर में वृद्धि से इस क्षेत्र से निकलने वाली नदियों में पानी का बहाव तो बढ़ा है, लेकिन एक और संकट ने जन्म लिया है—ग्लेशियर झीलों की बढ़ती संख्या। वर्ष 1990 में एवरेस्ट क्षेत्र में 1275 ग्लेशियर झीलें थीं, जिनका कुल क्षेत्र 106.11 वर्ग किलोमीटर था। वर्ष 2018 तक इनकी संख्या बढ़कर 1490 हो गई और कुल क्षेत्रफल 133.36 वर्ग किलोमीटर तक पहुँच गया। यह केवल आँकड़े नहीं हैं; यह उस विनाश का खाका है, जो इन झीलों के किनारे टूटने पर हमारे निचले क्षेत्रों को झेलना पड़ सकता है।

झीलें और ग्लेशियर: विनाश का दोगुना समीकरण

स्कॉटलैंड स्थित यूनिवर्सिटी ऑफ सेंट एंड्रिया के अध्ययन ने एक नई और गंभीर सच्चाई उजागर की है। जब ग्लेशियर के पिघलने से एक कृत्रिम झील बनती है, तो उस ग्लेशियर के पिघलने की दर सामान्य ग्लेशियरों की तुलना में लगभग दोगुनी हो जाती है। यह तथ्य पहले किसी भी अध्ययन में नहीं आया था। सेंटिनल-2 उपग्रह से मिले चित्रों के आधार पर पूर्वी और मध्य हिमालय के 319 बड़े ग्लेशियरों का गहन विश्लेषण किया गया। इनमें से अधिकांश ग्लेशियर 3 वर्ग किलोमीटर या उससे अधिक क्षेत्रफल वाले थे और गंगा तथा ब्रह्मपुत्र जैसी नदियों का स्रोत हैं।

इन ग्लेशियरों के पिघलने से बनने वाली झीलें केवल एक पारिस्थितिक संकट नहीं हैं। इन झीलों से निकलने वाले पानी के कारण नदियों का बहाव प्रभावित होता है। इसके साथ ही, जिन झीलों का पानी पूरी तरह भर जाता है या जिनका किनारा टूटता है, वे नीचे बसे क्षेत्रों के लिए भारी तबाही का कारण बनती हैं।

माउंट एवरेस्ट क्षेत्र: खतरनाक झीलों का गढ़

माउंट एवरेस्ट के आसपास स्थित 1490 ग्लेशियर झीलों में से 95 को खतरनाक माना गया है। इनमें से 17 झीलें अत्यधिक खतरनाक और 59 मध्यम खतरनाक श्रेणी में आती हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार, हिमालय के 20% से अधिक ग्लेशियर ऐसे हैं, जिनसे पिघली हुई बर्फ पास में ही झील का निर्माण करती है। ये झीलें औसतन 20 मीटर प्रति वर्ष की दर से ग्लेशियर की मोटाई को कम कर रही हैं।

जब माउंट एवरेस्ट की चोटियों से नीचे खतरनाक झीलें बन रही हैं, तब यह सिर्फ हिमालय का संतुलन नहीं बिगाड़ रही, यह मानवता की उम्मीदों और हमारे साझा भविष्य की जड़ें खोद रही है। क्या हम इन ग्लेशियरों की धीमी चीख सुन सकते हैं, जो हर पिघलते मीटर के साथ हमारे लिए एक चेतावनी छोड़ रही है?

हिमालय से ग्रीनलैंड तक: पिघलती बर्फ की चेतावनी

हिंदूकुश हिमालय से लेकर ग्रीनलैंड और अंटार्कटिका तक, बर्फ का यह पिघलता साम्राज्य हमें वैश्विक जलवायु संकट के सबसे भयावह परिणामों का दर्पण दिखा रहा है। काठमांडू स्थित इंटरनेशनल सेंटर फॉर इंटीग्रेटेड माउंटेन डेवलपमेंट की रिपोर्ट और नासा की ग्रीनलैंड पर की गई शोध रिपोर्ट, दोनों ही यह स्पष्ट करती हैं कि ग्लेशियरों का यह पिघलाव अब केवल क्षेत्रीय नहीं, बल्कि वैश्विक आपदा है।

हिमालय के 3266 वर्ग किलोमीटर में फैले ग्लेशियर और उनसे निकलने वाली गंगा जैसी 12 नदियां, जो 2 अरब लोगों को जीवन देती हैं, अब अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही हैं। ग्रीनलैंड की बर्फ हर साल 270 अरब टन पिघल रही है, और नासा की रिपोर्ट बताती है कि केवल 1.5 डिग्री सेल्सियस तापमान वृद्धि दुनिया के आधे ग्लेशियरों को समाप्त कर सकती है। ये आँकड़े किसी सुदूर भविष्य की कल्पना नहीं, बल्कि हमारे वर्तमान की चेतावनी हैं।

बढ़ता तापमान: बर्फ के अंत का उद्घोष

क्रायोस्फीयर स्थिति रिपोर्ट 2024 का शीर्षक—पिघलती बर्फ, वैश्विक नुकसान—सटीक रूप से बताता है कि बर्फ के गलनांक से समझौता करने का मतलब है प्राकृतिक संतुलन को स्थायी रूप से समाप्त करना। नासा की रिपोर्टों ने बार-बार यह संकेत दिया है कि वैश्विक तापमान में वृद्धि, बर्फ के पिघलने को न केवल तेज कर रही है, बल्कि समुद्र के स्तर में वृद्धि और पारिस्थितिकी तंत्र के विनाश का कारण भी बन रही है।

हिंदूकुश हिमालय की हाई वाइस रिपोर्ट भी स्पष्ट करती है कि ग्लेशियर द्रव्यमान के नुकसान की दर वर्ष 2000-2009 में प्रति वर्ष 0.17 मीटर से बढ़कर 2010-2019 में 0.28 मीटर हो गई है।

काराकोरम विसंगति, जो ग्लेशियर स्थिरता का प्रतीक मानी जाती थी, अब समाप्त हो चुकी है। यह क्षेत्र, जो कभी स्थायित्व का प्रतीक था, अब जलवायु परिवर्तन की भयावहता को झेल रहा है।

झीलें और बाढ़: आने वाली आपदा का पूर्वाभास

ग्लेशियर झीलों की संख्या और क्षेत्र का बढ़ना, हिमालय और ग्रीनलैंड दोनों के लिए समान संकट उत्पन्न कर रहा है। हिंदूकुश हिमालय में 1490 ग्लेशियर झीलों में से 95 को खतरनाक माना गया है। ग्रीनलैंड की बर्फ, जो गर्मियों में पिघलने के मौसम को 70 दिनों तक बढ़ा चुकी है, उसी प्रवृत्ति का हिस्सा है। पाकिस्तान की बाढ़ और अंटार्कटिका से पिघलती बर्फ, सब कुछ एक बड़े खतरे की ओर इशारा कर रहे हैं।

साझा संपत्ति, साझा जिम्मेदारी

यह संकट केवल बर्फ का नहीं, बल्कि हमारी साझा सभ्यता का है। हिंदूकुश हिमालय का पारिस्थितिकी तंत्र केवल एक क्षेत्रीय धरोहर नहीं है; यह दुनिया की एक साझा संपत्ति है। इसे बचाने की जिम्मेदारी केवल हिमालयी राज्यों की नहीं, बल्कि उन सभी देशों की है जो इसके पानी, इसके संसाधनों, और इसके जीवन से लाभ उठाते हैं।

क्रायोस्फीयर की यह कहानी हमें यह बताती है कि बर्फ केवल एक भौतिक तत्व नहीं है, यह हमारी पृथ्वी की धड़कन है। और जब यह पिघलती है, तो यह हमारे भविष्य को बहा ले जाने की चेतावनी देती है। लेकिन क्या हम इस चेतावनी को सुनने के लिए तैयार हैं? या फिर हम इसे भी अनसुना कर देंगे, जैसे हमने धरती की अन्य चीखों को अनसुना किया है?

बर्फ के गलनांक से समझौता नहीं हो सकता। यह संतुलन का बिंदु है। और अगर हमने इसे खो दिया, तो हमारी सभ्यता को संभालने वाला कोई दूसरा बिंदु नहीं बचेगा। हिमालय से ग्रीनलैंड तक पिघलती बर्फ की यह कहानी केवल आँकड़ों की नहीं, बल्कि हमारे अस्तित्व की कहानी है। इसका अंत हमारे हाथ में है। लेकिन समय तेजी से खत्म हो रहा है।

यह खतरनाक झीलें महज हिमालय के आँचल में बने गड्ढे नहीं हैं। ये गड्ढे उस खोखली विकास नीति का प्रतिबिंब हैं, जो नदियों, पर्वतों और झीलों को केवल संसाधन मानती है। यह बर्फ का नहीं, बल्कि उस सभ्यता का संकट है, जो अपने अस्तित्व को समझने से इनकार कर रही है।

भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन ने 22 अप्रैल 2024 को 'पृथ्वी दिवस' के अवसर पर एक रिपोर्ट जारी की, जिसमें हिमालयी क्षेत्र में ग्लेशियरों के पिघलने और उससे बनने वाली झीलों के विस्तार पर महत्वपूर्ण जानकारी प्रस्तुत की गई है।

इस रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 1984 से 2023 के बीच हिमालय में ग्लेशियरों के पिघलने की गति में वृद्धि हुई है, जिससे झीलों की संख्या और आकार में भी उल्लेखनीय विस्तार हुआ है।

विशेषज्ञों का मानना है कि ग्लोबल वॉर्मिंग के कारण तापमान में 1.5 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि से हिमालयी क्षेत्र में ग्लेशियरों के पिघलने की रफ्तार में 15 प्रतिशत तक की बढ़ोतरी हो रही है।

ये निष्कर्ष जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को दर्शाते हैं और भविष्य में संभावित प्राकृतिक आपदाओं के प्रति सचेत करते हैं।

जलवायु परिवर्तन पर आईपीसीसी की छठी आकलन रिपोर्ट भी हमारे समय का सबसे बड़ा शोकगीत सुनाती है—एक ऐसा गीत जो ग्लेशियरों के आंसुओं और समुद्र के बढ़ते क़हर से गूंजता है। अगस्त 2021 से अप्रैल 2022 के बीच तीन खंडों में प्रकाशित इस रिपोर्ट ने स्पष्ट कर दिया है कि ग्रीनहाउस गैसों का बेहिसाब उत्सर्जन न केवल पृथ्वी के तापमान को उबाल रहा है, बल्कि मानव सभ्यता को अस्थिरता के कगार पर ला खड़ा किया है।

कार्य समूह I रिपोर्ट ने भौतिक परिवर्तनों की कठोर सच्चाइयों को उजागर किया, कार्य समूह II रिपोर्ट ने प्रभावों और भेद्यता को हमारे सामने उकेरा, और कार्य समूह III रिपोर्ट ने शमन के लिए आवश्यक कदमों की अनिवार्यता बताई। यह सबक कड़वा और सीधा है—यदि हमने अभी भी अपनी लालसा और लालच को सीमित नहीं किया, तो जलवायु आपदाओं का तूफ़ान हमारी सांस्कृतिक और भौतिक धरोहरों को लील जाएगा। यह रिपोर्ट मात्र एक चेतावनी नहीं, बल्कि हमारी सभ्यता को बचाने का अंतिम आह्वान है, एक ऐसी आवाज़ जो सुन ली जानी चाहिए, वरना मौन का अंधकार स्थायी हो जाएगा।

बर्फ का यह पिघलता भूगोल केवल आंकड़ों का कोलाज नहीं, बल्कि हमारी सभ्यता के अस्तित्व का एक विकट प्रश्नचिह्न है। हिमालय से ग्रीनलैंड तक और पंचाचूली से उत्तरी ध्रुव तक, बर्फ की यह कहानी हमारी लालसा, लापरवाही और अंधे विकास का गवाह है। समाधान जटिल नहीं है, परंतु हमारी सामूहिक इच्छाशक्ति पर निर्भर है। वैश्विक स्तर पर कार्बन उत्सर्जन में कटौती, नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों को बढ़ावा, और जलवायु अनुकूलन नीतियाँ इन संकटों से लड़ने के आधारस्तंभ हो सकते हैं।

स्थानीय स्तर पर, जलवायु शिक्षा, पारिस्थितिकी तंत्र की बहाली, और हिमालयी क्षेत्रों में सतत विकास की रणनीतियाँ अपनाई जानी चाहिए। लेकिन यह केवल योजनाओं का मामला नहीं; यह हमारी सोच, हमारी प्राथमिकताओं और हमारी जिम्मेदारियों को पुनर्परिभाषित करने का समय है। सवाल यह नहीं कि हम क्या खो रहे हैं, बल्कि यह है कि क्या हम इसे बचाने के लिए तत्पर हैं? समय हमारे पास कम है, लेकिन अगर हम इस चेतावनी को सुनने से इनकार करते रहे, तो भविष्य केवल बर्फ से नहीं, हमारी उम्मीदों और आस्थाओं से भी विहीन होगा।

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