जिसकी लाठी उसकी भैंस
दुनिया के लिए पिछले कुछ महीने बहुत तकलीफ भरे गुजरे रहे हैं। हमारी दुनिया लट्टू की तरह घूम रही है और पूरी तरह नियंत्रण से बाहर हो चुकी है। किसी बात का कोई मतलब नहीं रह गया है। यह एक अजीब समय है। मेरे जैसे 50 वर्ष से अधिक उम्र के लोगों ने औपनिवेशिक युग के बाद आंखें खोलीं और एक ऐसा वैश्विक व्यवस्था देखी जो बेहद असमान थी, लेकिन फिर भी उसमें सुधार की गुंजाइश दिखती थी। शायद वह मासूमियत का युग था। लेकिन तब हमें वैश्विक कानून व्यवस्था पर विश्वास था, भले ही दुनिया शक्तिशाली देशों द्वारा संचालित क्यों न हो। हम मानते थे कि विवेकपूर्ण व तर्कसंगत आवाजें सुनी जाएंगी। संयुक्त राष्ट्र की एक भूमिका थी। भले ही संयुक्त राष्ट्र तब भी और अब भी एक ऐसी संस्था है जो एक असमान और अनुचित वैश्विक शक्ति संतुलन को दर्शाती है। लेकिन तब भी वह सही के पक्ष में और गलत के विरुद्ध खड़ी रहती थी।
आज मैं बहुत निराशा से घिरी हुई हूं। ऐसा लगता है जैसे हमारे पैरों के नीचे की जमीन खिसक गई है और हम भटक गए हैं। निश्चित रूप से मैं इस वर्तमान वैश्विक व्यवस्था को समझ नहीं पा रही हूं, जहां देश मनमाने तरीके से किसी दूसरे देश पर बमबारी कर सकते हैं, चाहे उकसावे की कोई भी वजह हो। दुनिया यह सब देखते हुए भी चुप और असहाय है। हम किसी देश में शासन परिवर्तन की बात सुनते हैं और उसे सामान्य मानकर नजरअंदाज कर देते हैं। हम बड़े पैमाने पर भुखमरी और जनसंहार से आंखें फेर लेते हैं। हम बस चैनल बदल देते हैं क्योंकि इसे देख नहीं पाते। हमारी पूरी तरह से लाचार हो चुके हैं।
ईरान पर हुआ हमला केवल अमेरिका या इजरायल के सही या गलत होने का मुद्दा भर नहीं है, बल्कि एक ऐसी वैश्विक व्यवस्था के भविष्य का प्रश्न है जो नियमों पर आधारित है। ये ऐसे नियम हैं जो राष्ट्रों के समुदाय द्वारा तय किए गए हैं और जिन्हें वैश्विक संस्थाओं के जरिए लागू किया जाना चाहिए। ईरान परमाणु अप्रसार संधि (एनपीटी) का हस्ताक्षरकर्ता देश है। यह परमाणु हथियारों के प्रसार के खिलाफ एक अंतरराष्ट्रीय समझौता है। यह संधि 1970 में प्रभाव में आई थी और इसे व्यापक स्वीकार्यता मिली है। 191 देश इसके पक्ष में हैं जो मानते हैं कि परमाणु हथियारों का प्रसार परमाणु युद्ध के खतरे को गंभीर रूप से बढ़ा देगा। एक हस्ताक्षरकर्ता देश के रूप में ईरान को परमाणु हथियार प्राप्त करने की मनाही है। वियना स्थित अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी (आईएईए) को इन नियमों के अनुपालन को सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी दी गई है। ईरान आईएईए के निरीक्षण तंत्र के अधीन था। क्षेत्र की भौगोलिक राजनीति को देखते हुए उस पर सबसे कठोर निगरानी प्रणाली लागू थी।
आप यह तर्क दे सकते हैं कि एनपीटी की व्यवस्था भेदभावपूर्ण है। पांच देशों-अमेरिका, रूस, ब्रिटेन, फांस और चीन को परमाणु हथियार रखने की मान्यता हासिल है। ये सभी देश संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्य भी हैं। भारत और पाकिस्तान ने परमाणु हथियारों की क्षमता की घोषणा की है और एनपीटी पर हस्ताक्षर नहीं किए हैं, जबकि उत्तर कोरिया इससे बाहर निकल चुका है। लेकिन जो बात इस परिस्थिति को और विकट बनाती है, वह यह है कि ईरान की परमाणु महत्वाकांक्षाओं को अपने अस्तित्व के लिए खतरा बताने वाले इजराइल ने कभी भी एनपीटी पर हस्ताक्षर नहीं किए। यह भी व्यापक रूप से स्वीकार किया जाता है कि इजरायल के पास एक गुप्त परमाणु हथियार कार्यक्रम है। ईरान एक ऐसा देश है जो वैश्विक नियमों के अधीन है। उस पर ऐसे देश द्वारा हमला हो रहा है जो साफ तौर पर नियमों और संस्थाओं को नकारता है। ये हालात अराजकता के बजाय नियमों पर टिकी वैश्विक व्यवस्था के भविष्य के लिए क्या संदेश देते हैं?
आईएईए की मई 2025 की ईरान पर रिपोर्ट में इसके महानिदेशक ने अपने निरीक्षकों की कुछ चिंताओं को उजागर किया है, जिनमें “समृद्ध यूरेनियम के तेजी से भंडारण” का उल्लेख है। लेकिन कहीं भी यह नहीं कहा गया है कि ईरान के पास परमाणु हथियार हैं। उन हथियारों का जिक्र नहीं है जिनके लिए यूरेनियम को 90-95 प्रतिशत तक समृद्ध करना होता है। रिपोर्ट के सामने आने के बाद अगला कदम संबंधित पक्ष से बातचीत करना होना चाहिए था और यदि आवश्यक हो तो इस मामले को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के पास ले जाना चाहिए था। इसका समाधान यह नहीं हो सकता कि उस देश के परमाणु ऊर्जा और अन्य ठिकानों पर बमबारी कर दी जाए, जिससे विनाशकारी रिसाव का खतरा पैदा हो।
ऐसे हालत में हमें यह सवाल पूछना चाहिए कि आईएईए की विश्वसनीयता कहां है? वह सभी देशों में निगरानी और नियंत्रण की भूमिका कैसे निभा सकती है? अगर किसी देश पर हमला करने के लिए केवल ताकत और हिंसा ही पर्याप्त है तो फिर देशों को कानूनी औपचारिकताओं को निभाने की क्या जरूरत है? संयुक्त राष्ट्र और उसके महासचिव की भूमिका तो पूरी तरह निष्प्रभावी हो चुकी है। अब वे केवल प्रेस विज्ञप्ति जारी करते हैं और ऐसी सलाह देते हैं जिन्हें कोई सुनता नहीं। हमें यह सवाल पूछने की जरूरत है कि ये संस्थाएं अपना दायित्व क्यों नहीं निभा पा रही हैं? क्या वे इतनी समझौतावादी हो चुकी हैं या फिर कुछ देशों के आक्रामक रवैये के सामने समर्पण कर चुकी हैं? यह रवैया एक-दूसरे पर निर्भर दुनिया के लिए सही नहीं है।
मैं ये सवाल इसलिए पूछ रही हूं क्योंकि दांव पर बहुत कुछ लगा है। हम जानते हैं कि जलवायु परिवर्तन एक वास्तविक संकट है और इसके समाधान के लिए पूरी दुनिया को एक साथ मिलकर काम करना होगा। यह एक संयुक्त संकट है जिसे बिना सबकी भागीदारी और परस्पर विश्वास के हल नहीं किया जा सकता। एक टूटी हुई वैश्विक व्यवस्था में कमजोर और अपमानित वैश्विक संस्थाएं न इस संकट का समाधान कर सकेंगी और न ही ऐसे अन्य वैश्विक मुद्दों का। हम जानते हैं कि वर्तमान “जिसकी लाठी उसकी भैंस” का है, लेकिन यह आक्रामक वैश्विक (अ) व्यवस्था न इंसानों के लिए टिकाऊ शांति ला पाएगी और न ही प्रकृति के लिए।