अपनी शानदार भौगोलिक बनावट के लिए प्रसिद्ध ओम पर्वत पर बर्फ से बनी 'ऊं' की आकृति का हटना वैश्विक और स्थानीय पर्यावरण के संकट का स्पष्ट संकेत दे गया। अगस्त के तीसरे हफ्ते में गायब हुई बर्फ महीने के आखिरी दिनों में वापस लौट आई। वैज्ञानिकों से लेकर स्थानीय समुदाय तक इस पूरी घटना से सकते में आ गए। इसे जलवायु परिवर्तन के गहराते असर के तौर पर देखा जा रहा है।
समुद्र तल से करीब 5,900 मीटर ऊंचाई पर स्थित ओम पर्वत भारत, चीन और नेपाल की सीमाओं से लगा है। इस हिमालयी पर्वत श्रृंखला पर बर्फ से उभरी ओम की आकृति सिर्फ भारतीय भूभाग से देखी जा सकती है। पिथौरागढ़ के धारचूला विकासखंड में स्थित व्यास घाटी में ओम पर्वत कैलाश मानसरोवर यात्रा का एक महत्वपूर्ण पड़ाव है। जिला मुख्यालय से करीब 178 किलोमीटर दूर ओम पर्वत तक आवाजाही वर्ष 2019 में सड़क बनने से आसान हुई। चीन सीमा से सटे लिपुलेख तक सड़क बनने के बाद यहां पर्यटकों की संख्या भी बढ़ गई।
स्थानीय समुदाय पर असर
संजय गुंज्याल कैलाश मानसरोवर यात्रा के लिए पोर्टर का काम कर चुके हैं। वह आदि कैलाश, ओम पर्वत और काली माता मंदिर की सैर के लिए पर्यटकों को ले जाते हैं। धारचूला ब्लॉक के गूंजी गांव के गुंज्याल कहते हैं, “ऐसा पहली बार हुआ कि ओम पर्वत बर्फ से खाली था। मेरी पैदाइश यहीं की है। बचपन से हम यहां बारहों मास हमेशा बर्फ देखते आ रहे हैं। मेरा मानना है कि सर्दियों में बर्फबारी कम होने और गाड़ियों की आवाजाही बढ़ने से यहां बर्फ कम हुई। लेकिन ओम पर्वत का बर्फ से खाली होना हमें अच्छा नहीं लगा। जब हमें बर्फ हटने के बारे में पता चला तो हमारे क्षेत्र के सभी लोग डर गए। आदि कैलाश या ओम पर्वत पर बर्फ नहीं रहेगी तो कोई उसे देखने क्यों आएगा। इससे हमारा रोजगार भी प्रभावित होगा।”
गुंज्याल यहां पर्यटन के लिए हेलिकॉप्टर सेवाओं का विरोध करते हैं।
जंगल की आग का असर
अल्मोड़ा के जीबी पंत इंस्टीट्यूट में सेंटर फॉर इनवायरमेंटल असेसमेंट एंड क्लाइमेट चेंज सेंटर के अध्यक्ष जेसी कुनियाल डाउन टू अर्थ को बताते हैं कि विश्वभर में मौसमी बदलाव देखने को मिल रहे हैं। निश्चित तौर पर ये जलवायु परिवर्तन का असर है। जिन जगहों पर बारिश नहीं होती थी वहां बाढ़ जैसे हालात बन रहे हैं। वैश्विक तापमान बढ़ रहा है। इन सबसे ग्लेशियर भी प्रभावित हो रहे हैं।
ओम पर्वत से बर्फ का हटना और पिघलते हिमालयी ग्लेशियर के लिए डॉ कुनियाल स्थानीय पर्यावरण और प्रदूषण को भी जिम्मेदार मानते हैं। हमारे जंगलों में आग की घटनाएं और इसका दायरा लगातार बढ़ रहा है। जंगल की आग से निकला ब्लैक कार्बन ग्लेशियर पर असर डालता है।
डॉ कुनियाल आगे कहते हैं, “ग्लेशियर को हम अलग से नहीं देख सकते। ग्लेशियर की अच्छी सेहत के लिए उसके नीचे के बुग्यालों में अच्छी घास होनी चाहिए। अल्पाइन क्षेत्र में वनों की सेहत अच्छी होनी चाहिए। इस सबसे तापमान संतुलित रहता है। इसलिए सबको मिलाकर एकसाथ देखने की जरूरत है। हमारे यहां पिघलते ग्लेशियर हैं और जंगल की बढ़ती आग है।”
बढ़ता तापमान
संयुक्त राष्ट्र की वर्ष 2022 की एक रिपोर्ट के मुताबिक हिमालयी क्षेत्र के एक तिहाई ग्लेशियरों पर ग्लोबल वार्मिंग का संकट है। तापमान बढ़ने की वजह से वर्ष 2000 से ग्लेशियर के पिघलने की दर बढ़ गई है। ग्लेशियर्स से 58 बिलियन टन बर्फ सालाना कम हो रही है जो कि फ्रांस और स्पेन में होने वाले पानी की कुल खपत के बराबर है। इस रिपोर्ट के मुताबिक ग्लोबल वार्मिंग को 1.5°C तक सीमित करने से दो-तिहाई ग्लेशियरों को बचाया जा सकता है
आईसीआईएमओडी के मुताबिक तापमान बढ़ने की दर हिंदु कुश हिमालयी क्षेत्र में वैश्विक दर से काफी अधिक है। वर्ष 2023-24 की सर्दियों में समूचे क्षेत्र में रिकॉर्ड कम बर्फ़बारी दर्ज की गई। ख़ासतौर पर पश्चिमी हिमालय में कम या बिल्कुल भी बर्फ़बारी नहीं हुई। इसके लिए भी वैश्विक तापमान बढ़ोतरी को जिम्मेदार माना गया।
भारतीय मौसम विभाग की वर्ष 2023 की रिपोर्ट के मुताबिक पिछले वर्ष मानसून के बाद अक्टूबर, नवंबर और दिसंबर में उत्तराखंड में तापमान में बदलाव 2 डिग्री से अधिक रहा। साथ ही सर्दियों के बाद बारिश भी बेहद कम हुई।
इस वर्ष उत्तराखंड के मैदानी और पर्वतीय क्षेत्रों में भीषण गर्मी पड़ी। देहरादून में तापमान 44 डिग्री तक दर्ज किया गया। मौसम विभाग ने हीट वेव की चेतावनियां जारी की।
3,200 मीटर ऊंचाई पर बसे गूंजी गांव के जीतू गुंज्याल कहते हैं कि पहाड़ों की धूप बेहद तीखी होती है। हमारे गांव में भी अब बहुत गर्मी पड़ने लगी हैं। बारिश के मौसम में भी गर्मी हो रही है। जब तापमान अधिक होता है तो ओम पर्वत श्रृंखलाओं पर बारिश होती है। तापमान कम होने पर बर्फ गिरती है।
हिमालयी क्षेत्र में घटती बर्फ
मौसम, पहाड़ और ग्लेशियर को लेकर संजय और जीतू जैसे स्थानीय ग्रामीणों के अनुभव की पुष्टि वैज्ञानिक भी करते हैं। ग्लोशियोलॉजिस्ट डॉ अनिल वी. कुलकर्णी कहते हैं “देश के अन्य हिस्सों की तुलना में हिमालय में तापमान अधिक तेजी से बढ़ रहा है। इसे 'एलिवेटेड इफेक्ट' कहा जाता है। जैसे-जैसे ऊंचाई बढ़ती है, तापमान भी बढ़ता जाता है। इसलिए मौसमी बर्फ अब गर्मियों के साथ सर्दियों और वसंत ऋतु में भी तेजी से पिघल रही है। ओम पर्वत पर बर्फ का गायब होना इसी का प्रमाण है और पर्वतीय क्षेत्र में हो रहे बदलावों का प्रतीक है”।
“पिछले 30-40 वर्षों के डेटा विश्लेषण और शोध पत्रों से पता चलता है कि बर्फबारी की मात्रा लगातार कम हो रही है जबकि बारिश का दायरा बढ़ा है। कम बर्फ और बढ़ते तापमान के चलते ग्लेशियर का पिघलना तेज हो गया है। अगर वैश्विक तापमान वृद्धि और बर्फबारी में कमी का मौजूदा पैटर्न जारी रहा तो आने वाले समय में ग्लेशियर पिघलने की दर और तेज़ होगी। क्योंकि कार्बन डाई ऑक्साइड या ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन कम करने के लिए हमने कुछ उल्लेखनीय नहीं किया”।
समूचे हिमालयी क्षेत्र में ग्लेशियर पीछे हट रहे हैं लेकिन पूर्वी हिमालय की तुलना में पश्चिमी हिमालयी क्षेत्र में संकट ज्यादा दिखाई देता है। डॉ कुलकर्णी कहते हैं, क्योंकि पश्चिम हिमालय में बारिश और बर्फबारी सिर्फ पश्चिम विक्षोभ से मिलती है। जबकि सिक्किम, अरुणाचल प्रदेश और भूटान जैसे क्षेत्रों में गर्मियों और मानसून में भी बर्फ गिरती है।
ग्लेशियर का पिघलना जंगल, मिट्टी, पानी समेत समूचे हिमालयी इकोसिस्टम को प्रभावित कर रहा है। वह कहते हैं “बर्फबारी की मात्रा कम होने और तापमान बढ़ने से बर्फ सर्दियों में ही पिघलने लगती है। बर्फ के पिघलने और मानसून के आगमन के बीच अंतराल बढ़ जाता है। इससे निचले इलाकों में नमी की मात्रा कम हो रही है और सूखा बढ़ रहा है। इसलिए जंगल की आग की घटनाएं भी जल्दी शुरू हो जाती हैं। जल स्रोत सूख जाते हैं”।
ये सभी बदलाव बर्फ जल्दी पिघलने के कारण हो रहे हैं और बर्फ़ के जल्दी पिघलने का कारण जलवायु परिवर्तन है।