गांधी, 21वीं सदी का पर्यावरणविद -2 : प्राकृतिक स्वराज के मायने

गांधी जयंती के मौके पर डाउन टू अर्थ की ओर से एक श्रृखंला प्रकाशित की जा रही है। इस कड़ी में प्रस्तुत है गांधी और टैगोर के विचारों की प्रासंगिकता पर विशेष लेख
इलेस्ट्रेशन: तारिक अजीज
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आधुनिक राजनीति विचार और व्यवहार में दूरियां बढ़ने से मौसम बदलने, तापमान बढ़ने, नदी सूखने, पेड़ कटने, प्रजातियों की विलुप्ति अथवा संसाधनों के खत्म होने का राजनीतिक विचारधारा पर कोई प्रभाव नहीं पड़ रहा है। दूसरी बड़ी कमी प्रकृति और मानव स्वभाव पर गहरा संदेह है। आमतौर पर सभी लोग सोचते हैं कि प्रकृति सामान्यत: और मानव स्वभाव विशेषत: संदेहजनक है। विचारकों ने इस तथ्य पर विश्वास प्रकट किया है जिनमें शारलेमेन से लेकर चर्चिल तक और फ्रांसिस बेकन से लेकर फ्रायड तक शामिल हैं। ऐसे में विख्यात नैतिकतावादी इमैनुएल कांट की कही पंक्ति याद आती है, “मानवता की टेढ़ी लकड़ी से कभी कोई सीधी चीज नहीं बनी है।” (दूसरी ओर इन विचारों के बीच अपवाद भी दिखाई देते हैं जो आमतौर पर औपचारिक राजनीतिक विचारों के बाहर होते हैं। उदाहरण के लिए, आइंस्टाइन की टिप्पणी “ईश्वर सूक्ष्म है, लेकिन वह बुरा चाहने वाला नहीं है” प्रसिद्ध है। वहीं आइंस्टाइन से बहुत पहले, थॉमस ब्राउन ने लिखा था, “सभी चीजें कृत्रिम हैं लेकिन प्रकृति ईश्वर की कला है।”)

क्या हम आधुनिक राजनीतिक विचारों की दिशा से हटकर कुछ सोच सकते हैं? एक साधारण किंतु प्रभावी मामले पर विचार करते हैं जो आजादी का आधुनिक विचार है। आइजिया बर्लिन के बाद से यह आम राय उभरकर आई कि आजादी फायदे और नुकसान का खेल है जिसका नियम है कि हमारा फायदा तुम्हारे नुकसान की कीमत पर ही हो सकता है। अब तक स्वतंत्रता को आजादी से जोड़कर देखा जाता रहा है। कुल मिलाकर यह मान सकते हैं कि यह ताकत का दूसरा रूप है जो फायदे-नुकसान के समीकरण में सामान्य-सी बात है।

संभवत: आज के समय में बेशक यह सार्वभौमिक सत्य न हो लेकिन व्यापक रूप से स्वीकृत सत्य अवश्य है। मान लीजिए हम किसी किसान के घर जाते हैं और उसे उसके ही घर में बंधक बनाकर उसके खेतों पर कब्जा कर लेते हैं। हम शक्तिशाली हैं और वह शक्तिहीन है। हम खुद को शक्तिशाली राष्ट्र की तरह खुद को स्वतंत्र मान लेते हैं। लेकिन क्या किसी पर वर्चस्व स्थापित करना स्वतंत्रता है? क्या वास्तव में दोनों में से कोई भी पक्ष स्वतंत्र है? क्या हमें इस बात की चिंता नहीं होगी कि अगर किसान आजाद हो गया तो वह हमारे साथ क्या करेगा? एक ओर किसान शारीरिक रूप से बंधक है तो दूसरी ओर हम मानसिक रूप से बंधक बन जाते हैं। वर्चस्व की मूल भावना के कारण सभी पक्ष अपनी स्वतंत्रता खो देते हैं।

इस उदाहरण में सभी को स्वतंत्र करने का मतलब है किसान को आजादी दे देना। इस हिसाब से स्वतंत्रता खतरनाक चीज है। इससे हमारी जिंदगी खतरे में पड़ सकती है। बारीकी से देखें तो स्वतंत्रता आजादी के बिल्कुल विपरीत है जो यह साबित करता है कि यह स्वयं बढ़ने वाली घटना है। मेरी ताकत की कीमत तुम्हारी ताकत है। लेकिन स्वतंत्रता का मूल तत्व यह नहीं है। यह सामने वाले की स्वतंत्रता के साथ बढ़ती है। लोग इस बहस को आगे बढ़ाते हुए कह सकते हैं कि अपनी आजादी दूसरों पर थोपना है तो स्वतंत्रता दूसरे की मर्जी को अपनाना है। आश्चर्यजनक रूप से, आज के आधुनिक उदार विश्व में स्वतंत्रता और आजादी के वर्चस्ववादी विचारों के विपरीत, यह विषय जितना भ्रामक है उतना ही स्पष्ट भी है। रबींद्रनाथ टैगोर ने इस तथ्य को सहजता से स्वीकार किया था। साधना नामक उनके कम पढ़े गए लेखों में उन्होंने लिखा “एक मां बच्चों की सेवा में जीवन गुजार देती है, ऐसे में असली स्वतंत्रता काम करने से आजादी नहीं, बल्कि काम करने की आजादी है जो प्यार से किए गए काम से ही मिलती है।” आमतौर पर कितनी बार हम प्यार से की गई सेवा को सीधे स्वतंत्रता से जोड़कर देखते हैं? निश्चित तौर पर लोकतंत्र में जनता से जुड़े मामलों में प्यार को महत्व नहीं दिया जाता। यही कारण है कि स्वराज को लोकतंत्र का पर्याय मानना खतरनाक हो सकता है।

गांधी ने हिंद स्वराज में संसद को गुलामी का प्रतीक कहा है। इससे हमें स्वराज के मूल भाव का पता चलता है। गांधी ने हिंद स्वराज में स्वराज की परिकल्पना “स्व-शासन” के रूप में की है। लेकिन बारीकी से देखने पर गांधी और टैगोर दोनों स्पष्ट थे कि स्वराज को केवल साम्राज्यवाद के विरुद्ध आजादी की लड़ाई से जोड़कर देखा नहीं जा सकता। इसमें केवल साम्राज्यवादी ताकत को उखाड़ कर फेंकना शामिल नहीं है। स्व-शासन समाज की नि:स्वार्थ सेवा की आध्यात्मिक क्रिया का राजनीतिक और मानसिक प्रतिफल है। गांधी ने सर्वोदय की बात की जिसका मतलब बहुसंख्यक का कल्याण नहीं है बल्कि प्रत्येक व्यक्ति में जागरुकता का सृजन और कल्याण है। इस प्रकार जो व्यक्ति समाज के लिए कुछ नहीं करता, वह अपनी स्वतंत्रता खो देता है। चाहे फिर वह आधुनिक उदार विचारधारा से प्रभावित असत्य का प्रचार कर बदले में आजादी हासिल ही क्यों न कर ले।

टैगोर ने साधना में बार-बार इस बात पर जोर दिया है कि स्वतंत्रता अधिकार (अहंकार की तुष्टि) से ज्यादा प्रेम के निकट है। यह ऐसा तथ्य है जो आधुनिक उदार विचारधारा में कहीं नहीं मिलता। टैगोर निश्चित रूप से देशभक्त थे, लेकिन उन्होंने राष्ट्रवाद के विचार को पूरी तरह नकार दिया था। उनके विचार में यह समाज की नि:स्वार्थ सेवा के विपरीत केवल सामूहिक अहंकार का प्रदर्शन है। यही नि:स्वार्थ सेवा मानव स्वतंत्रता की अप्रत्यक्ष गारंटी है। उनके समय के कई स्वतंत्रता सेनानी स्वराज की प्रसिद्ध परिभाषा समझते थे। उन्होंने अपने और गांधी के करीबी रहे चार्ल्स एंड्रयूज को इस बारे जो कुछ लिखा वह इस प्रकार है, “स्वराज क्या है?”

यह माया है। यह कोहरा है जो छंट जाएगा और आत्मा पर कोई निशान भी नहीं छोड़ेगा। हालांकि हम पश्चिम द्वारा सिखाए गए शब्दजाल में फंस सकते हैं फिर भी स्वराज हमारा विषय नहीं है। हमारी लड़ाई आध्यात्मिक है, मानव जाति के लिए है। हमें मानव को उस जाल से मुक्त कराना है जो उसने अपने चारों तरफ बुन रखा है और यह जाल है राष्ट्रीय अहंकार के संगठनों का। इस चिड़िया को यह समझाना होगा कि आसमान की स्वतंत्रता और उसकी ऊंचाई उसके घोंसले से ज्यादा है। यदि हम ताकतवर, हथियारबंद और अमीर समाज का त्याग करके दुनिया को अनश्वर आत्मा की शक्ति से अवगत कराएं तो सद्भावना का भक्षण करने वाले दानव का खयाली महल ढह जाएगा और व्यक्ति को अपना स्वराज मिल जाएगा।”

वह लिखते हैं, “हम पूर्व में रहने वाले भूखे, गरीब, फटेहाल लोग समस्त मानवता की स्वतंत्रता हासिल करके रहेंगे। हमारी भाषा में राष्ट्र का कोई मतलब नहीं है। अगर हम दूसरों से यह शब्द उधार लेंगे तो वह हमारे लिए कभी उपयुक्त नहीं होगा। यदि हम ईश्वर के साथ मिलकर काम करें तो हमें कामयाब होने से कोई नहीं रोक सकता। मैं पश्चिमी मुल्कों में घूमा हूं, लेकिन मैं इसके मोहजाल में नहीं फंसा।

यह अंधेरे के हंगामे हमारे लिए नहीं हैं। हमारे लिए तो सुनहरी, उजली सुबह है।”

गांधी और टैगोर आधुनिक युग में विशेष महत्व रखते हैं जो यह समझते थे कि स्वतंत्रता मानवता के लिए आध्यात्मिक और पर्यावरणीय क्षमता रखती है। यह आजादी की तरह नहीं है जिसका राजनीतिक दृष्टिकोण है। इसमें उनके विचार को आधुनिक धारणाओं से अलग संपूर्ण ब्रह्मांड के रूप में देखना चाहिए जिसमें प्रकृति मानवता की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं की मूक दर्शक बन गई है। टैगोर एक के बाद एक कहानी पर जोर देते हैं जिसका मूल भाव यह है कि मानव की स्वतंत्रता के लिए प्रकृति से निकटता अनिवार्य है। अगर इस तथ्य को दरकिनार कर दिया जाए तो पर्यावरण से दूरी, जो आधुनिक विश्व को अपनी चपेट में ले रही है, मानवता को उस स्वतंत्रता से दूर कर देगी जो हर व्यक्ति के लिए जरूरी है।

गांधी ब्रिटिश राज के उतने विरोधी नहीं थे, जितना वह भारत में आधुनिक साम्राज्यवाद के अनुचित प्रभाव के विरोधी थे। उन्होंने हिंद स्वराज में लिखा है “भारत को अंग्रेजों के पैरों तले नहीं बल्कि आधुनिक सभ्यता के नीचे कुचला जा रहा है।” देश इस दानव के बोझ से दबा जा रहा है। गांधी ने “अंग्रेजों के बिना अंग्रेजी राज” पर चेतावनी देते हुए कहा था कि अब भी इससे बचने का मौका है लेकिन दिन-ब-दिन राह कठिन होती जाएगी। यह मान लेना मूर्खता होगी कि एक भारतीय शासन अमेरिकी शासन से बेहतर होगा। दरिद्र भारत स्वतंत्र हो सकता है, लेकिन अनैतिकता से समृद्ध हुए भारत के लिए अपनी स्वतंत्रता हासिल करना मुश्किल होगा... पैसा व्यक्ति को असहाय बना देता है।

ऐसा प्रतीत होता है कि सहज ज्ञान आज के विश्व की संचालन शक्तियों के बीच अलग-थलग पड़ गया है। “बिना अमेरिकियों के अमेरिकी राज” आज की हकीकत बन गई है। इस बेचैन विश्व में कॉर्पोरेट तंत्र (निगरानी पूंजीवाद का कॉर्पोरेट अधिनायकवाद) ने लोकतंत्र का मुखौटा पहन रखा है। इस व्यवस्था में केवल कुछ शक्तिशाली लोग ही मुकाबला कर पाते हैं और बाकी को मुकाबले से बाहर कर दिया जाता है। इन सब कारणों से गांधी और टैगोर का जीवन और विचार पहले से अधिक प्रासंगिक हो गए हैं। उनकी दूरदर्शिता का ही नतीजा है कि उन्होंने प्राकृतिक स्वराज का खाका पहले ही खींच लिया था। जल्द ही यह रूपरेखा भारत ही नहीं बल्कि पूरी मानवता की रक्षा के लिए पारिस्थितिकीय अनिवार्यता साबित हो सकती है।

(लेखक, शिक्षक व पारिस्थितिक चिंतक हैं और अशोका विश्वविद्यालय में भारतीय दर्शन पढ़ाते हैं)

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नोट : 

डाउन टू अर्थ विशेष: डाउन टू अर्थ ने अक्टूबर 2019 में गांधी को एक पर्यावरणविद के रूप में जानने की कोशिश की और लेखों की पूरी एक श्रृंखला प्रकाशित की थी। गांधी जयंती मौके पर इस पत्रिका का पूरा अंक आप निशुल्क डाउनलोड कर सकते हैं। यह लिंक आपको एक दिन के लिए उपलब्ध है। 

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