इससे पहले मई 2019 में कार्बन डाइऑक्साइड (सीओ2) का स्तर 414.8 भाग प्रति मिलियन रिकॉर्ड किया गया था| जोकि मई 2020 से करीब 2.4 पीपीएम कम था| ऐसे में मौना लोआ वेधशाला में दर्ज कार्बन डाइऑक्साइड के आंकड़ों से यह स्पष्ट हो जाता है कि वैश्विक सीओ2 के स्तर में लगातार वृद्धि हो रही है| मई 2020 में वो एक नए रिकॉर्ड पर पहुंच गया है| यह जानकारी कैलिफोर्निया सैन डिएगो विश्वविद्यालय के स्क्रिप्स इंस्टीट्यूशन ऑफ़ ओशनोग्राफी और नेशनल ओशनिक एंड एटमॉस्फेरिक एडमिनिस्ट्रेशन (एनओएए) द्वारा जारी आंकड़ों से प्राप्त हुई है|
हवाई, अमेरिका स्थित मौना लोवा ऑब्जर्वेटरी 1950 के दशक से पृथ्वी के वातावरण में कार्बन डाईऑक्साइड के स्तर पर नजर बनाये हुए है, उसके अनुसार जहां 1959 में कार्बन डाई ऑक्साइड की मात्रा का वार्षिक औसत 315.97 था, जो कि 2018 में 92.55 अंक बढ़कर 408.52 के उच्चतम स्तर पर पहुंच गया था । गौरतलब है कि 2014 में पहली बार वातावरण में मौजूद कार्बन डाइऑक्साइड का स्तर 400 पीपीएम के पार गया था| यदि इसका औसत देखा जाये तो हर 1959 से लेकर 2018 तक हर वर्ष वायुमंडल में विद्यमान कार्बन डाई ऑक्साइड की मात्रा में 1.57 पीपीएम की दर से वृद्धि हो रही थी।
लॉकडाउन की वजह से जो एमिशन में कमी आई है उसका असर कार्बन डाइऑक्साइड के रिकॉर्ड पर क्यों नहीं दिखा यह एक बड़ा सवाल सबके मन में उठ रहा है| जिसका जवाब एनओएए के वरिष्ठ वैज्ञानिक पीटर टांस ने बताया, उनके अनुसार पिछले कुछ महीनों में जो उत्सर्जन में कमी आई है| उसका ज्यादा असर नहीं दिखाई देगा, क्योंकि हम जो उत्सर्जन कर रहे थे उससे कार्बन डाइऑक्साइड में रिकॉर्ड वृद्धि हो चुकी है, ऐसे में यदि हम एकदम से उत्सर्जन करना बंद कर देते हैं तो उसका असर इतना जल्द नहीं दिखाई देगा| वातावरण में जो कार्बन डाइऑक्साइड का स्तर बढ़ चुका है उसे पूर्व-औद्योगिक काल के स्तर पर लौटने में हज़ारों साल लगेंगे|
मौना लोआ में स्क्रिप्स ओशनोग्राफी कार्यक्रम के प्रमुख और जियोकेमिस्ट राल्फ कीलिंग ने बताया कि यदि लॉकडाउन न होता तो यह वृद्धि करीब 2.4 पीपीएम की जगह 2.8 पीपीएम की होती| कार्बन डाइऑक्साइड का जो उत्सर्जन हो चुका है वो लैंडफिल में मौजूद कचरे की तरह है| जैसे-जैसे हम और उत्सर्जित करते रहते हैं| यह ढेर बढ़ता रहता है| कोरोना संकट ने उत्सर्जन को धीमा जरूर किया है, पर वो इतना कम नहीं है कि उससे वैश्विक रिकॉर्ड में कोई बड़ा अंतर दिख सके| वैश्विक स्तर पर जमीनी पेड़ पौधे, और समुद्र हर वर्ष मानव द्वारा उत्सर्जित 40 बिलियन टन कार्बन डाइऑक्साइड में से करीब आधा अवशोषित कर लेते हैं| पर इसके बावजूद साल-दर-साल उत्सर्जन बढ़ता जा रहा है जो कार्बन डाइऑक्साइड के भंडार को बढ़ाता जा रहा है|
1960 के दशक में इसकी वृद्धि का वार्षिक औसत लगभग 0.8 पीपीएम प्रति वर्ष था। जो 80 के दशक में बढ़कर प्रति वर्ष 1.6 पीपीएम और 1990 के दशक में 1.5 पीपीएम तक पहुंच गया था। तब इसमें कुछ स्थिरता आ गयी थी| इसके बाद 2000 के दशक में फिर से औसत में हो रही वृद्धि दर बढ़कर 2.0 पीपीएम हो गई और पिछले दशक के दौरान यह बढ़कर 2.4 पीपीएम प्रति वर्ष तक पहुंच गयी थी।
2015 के पेरिस समझौते के अनुसार यह जरुरी है कि तापमान में होने वाली वृद्धि को औद्योगिक क्रांति से पूर्व के स्तर से 2 डिग्री सेल्सियस से नीचे रखना है और संभव हो तो 1.5 डिग्री सेल्सियस के लिए प्रयास करना है। रिकॉर्ड के अनुसार, पिछले चार साल मानव इतिहास के सबसे गर्म वर्ष थे । देशों के पेरिस समझौते के प्रति प्रतिबद्धता दिखाने और समस्या के बारे में जागरूकता के बावजूद मनुष्य उत्सर्जन के अपने ही रिकॉर्ड को साल दर साल तोड़ रहा है । जहां मानव द्वारा किये जा रहे उत्सर्जन के चलते औद्योगिक क्रांति से लेकर अब तक पृथ्वी की सतह का औसत तापमान पहले ही 1 डिग्री सेल्सियस बढ़ चुका है। कार्बन डाइऑक्साइड, मीथेन और नाइट्रस ऑक्साइड जैसी गैसों में हो रही बेतहाशा वृद्धि हमारी आने वाली पीढ़ियों के लिए पृथ्वी को और अधिक खतरनाक बना रही है। जिस तेजी से हम अपने गृह को बर्बादी की और धकेल रहे हैं, उससे मुमकिन है कि हमें जल्द ही अपने लिए नए विकल्प तलाशने पड़ेंगे।
जहां भारत दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा कार्बन उत्सर्जक देश है, वहीं दुनिया के 20 सर्वाधिक प्रदूषित नगर भी भारत में ही हैं । दुनिया भर में कार्बन डाई ऑक्साइड का बढ़ रहा स्तर भारत के लिए भी चिंता का विषय हैं । हालांकि सीधे तौर पर कार्बन डाईऑक्साइड के बढ़ते स्तर का भारत पर क्या असर होगा, इसका कोई आकलन मौजूद नहीं है। फिर भी सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट द्वारा किये गया अध्ययन दर्शाता है कि 20 वीं सदी की शुरुआत के बाद से भारत के वार्षिक औसत तापमान में लगभग 1.2 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हो चुकी है । जिसके परिणामस्वरूप मौसम की चरम घटनाओं जैसे बाढ़, सूखा, बेमौसम बारिश और उसमें आ रही अनिमियतता और ओलावृष्टि में हो रही वृद्धि साफ़ देखी जा सकती है, जिसका परिणाम न केवल हमारे दैनिक जीवन पर पड़ रहा है, वहीं दूसरी और इसके कारण हमारी कृषि आधारित अर्थव्यवस्था को भी भारी नुकसान उठाना पड़ रहा है । यह सचमुच हमारी लिए बड़ी चिंता का विषय है, यदि हम आज नहीं चेते तो भविष्य में हमारी आने वाली नस्लों को इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ेगी, और जिसके सबसे बड़े जिम्मेदार हम होंगे ।