आपने खबर सुनी होगी कि दिल्ली में ऑक्सीजन बार खुल गए हैं, जहां आप पैसे देकर शुद्ध वायु ग्रहण कर सकते हैं। सुनने में यह अटपटा जरूर लगता है लेकिन हकीकत यही है कि वायु प्रदूषण गंभीर समस्या बन गई है। भारत में सालाना 16 लाख से ज्यादा लोग वायु प्रदूषण के कारण अकाल मौत का शिकार होते हैं। शहरों में वायु प्रदूषण का सबसे बड़ा कारण मोटर वाहन होते हैं लेकिन उसका सबसे ज्यादा नुकसान रिक्शा चालकों, दिहाड़ी मजदूरों और फुटपाथ पर रोजी-रोटी जुटाने को मजबूर लोगों को उठाना पड़ता है। पैसों के बल पर अमीर अपने घरों में एयर-कंडिशन व एयर-प्यूरिफायर लगा रहे हैं। लेकिन शहरों में रहने वाले आर्थिक रूप से कमजोर तबके को दिन-रात वायु प्रदूषण का सामना करना पड़ता है। यह पर्यावरणीय अन्याय का बड़ा उदाहरण है! अर्थात प्रदूषण के लिए सबसे कम जिम्मेदार लोगों पर उसका सबसे ज्यादा असर देखने को मिलता है।
राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में सर्दियों की शुरुआत में पंजाब और हरियाणा के खेतों में डंठल जलाने के कारण कुछ समय तक प्रदूषण की समस्या गंभीर हो जाती है। अक्सर प्रदूषण का पूरा दोष किसानों पर मढ़ दिया जाता है। यह भी ध्यान देने की बात है कि डंठल जलाने की समस्या पंजाब और हरियाणा में खेती के पूर्ण मशीनीकरण के कारण ज्यादा बढ़ी है। कम्बाइन्ड हार्वेस्टर मशीन जो फसल काटने के साथ-साथ धान निकालने का काम भी करती है, खेतों में नुकीले और बड़े डंठल पीछे छोड़ देती है, जिनको जलाने के अलावा किसानों के पास और कोई किफायती रास्ता नहीं है। आपको जानकार हैरानी होगी कि जिन इलाकों में डंठल जलाने की समस्या इतनी गंभीर नहीं है, उन ग्रामीण इलाकों में भी वायु प्रदूषण बड़ी समस्या है।
वैज्ञानिक शोध से पता चला है कि भारत में वायु प्रदूषण के होने वाली मौतों में से 75 प्रतिशत से ज्यादा ग्रामीण क्षेत्रों में होती हैं। इसका सबसे बड़ा कारण घर के अंदर चूल्हा जलाने से होने वाला वायु प्रदूषण है, जिसका सबसे ज्यादा खामियाजा महिलाओं को उठाना पड़ता है। खाना पूरा परिवार खाता है लेकिन उसकी कीमत मुख्यतः महिलाएं ही चुकाती हैं! यह पर्यावरणीय अन्याय का एक और उदाहरण है! वायु प्रदूषण एवं पर्यावरणीय अन्याय का यह सिलसिला अंतरराष्ट्रीय व राष्ट्रीय स्तर पर जलवायु परिवर्तन के मामले से भी जुड़ा है! पूरी दुनिया में सिर्फ 10 प्रतिशत लोग वैश्विक तापमान से जुड़ी ग्रीन हाउस गैसों के अधिकतर उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार हैं, लेकिन उसका नुकसान पूरी दुनिया, खासतौर से गरीब देशों व गरीब लोगों को उठाना पड़ रहा है। वैश्विक तापमान व जलवायु परिवर्तन के कारण दुनियाभर में प्राकृतिक आपदाओं की संख्या और तीव्रता में बढ़ोतरी हो रही है। उदाहरण के तौर पर वर्ष 2017 में उत्तर व पूर्वी भारत, बांग्लादेश एवं नेपाल में बाढ़ की वजह से 1,000 से अधिक लोगों को जान से हाथ धोना पड़ा और करीब 4 करोड़ लोगों को अस्थायी विस्थापन का दर्द झेलना पड़ा। इसी तरह 2020 के मॉनसून के दौरान भी इन्ही इलाकों में भीषण बाढ़ के कारण 1,300 से ज्यादा लोगों की मौत हुई और करीब 2.5 करोड़ से ज्यादा लोगों को हफ्तों तक अपने घरों से विस्थापित होना पड़ा।
भारत व दूसरे विकासशील देशों पर गरीबी, साधनों की कमी एवं जनसंख्या के एक बड़े हिस्से की खेती, पशुपालन व दूसरे प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भरता की वजह से जलवायु परिवर्तन का असर सबसे ज्यादा होता है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इसे विकसित और विकासशील देशों के बीच के अन्याय के रूप में देखा जाता है। ऐसा इसलिए क्योंकि ग्रीन हाउस गैसों की कुल मात्रा का करीब 70 प्रतिशत हिस्सा विकसित देशों के सघन ऊर्जा-आधारित विकास के लंबे इतिहास से संबंधित है। वातावरण में जमा ग्रीन हाउस गैसों की कुल मात्रा में विभिन्न राष्ट्रों के हिस्से के आकलन का काम सबसे पहले 1991 में भारत की संस्था सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट (सीएसई) ने किया था। इस संस्थान के अनिल अग्रवाल एवं सुनीता नारायण ने दिखाया कि विकसित देशों ने अपने न्यायपूर्ण हिस्से से कई गुणा अधिक प्रदूषण करके वैश्विक तापमान एवं जलवायु परिवर्तन को बढ़ावा दिया। इन तथ्यों को ध्यान में रखते हुए संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन समझौते के अंतर्गत “सामान्य लेकिन भिन्न जिम्मेदारी” सिद्धान्त अपनाया गया। इसका मतलब यह था कि जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए सभी देशों को प्रयत्न करने होंगे लेकिन विकसित देशों को इसमें मुख्य भूमिका निभानी होगी। इस सिद्धांत की भावना के विपरीत विकसित देश जिम्मेदारियों से बचते रहे और वर्ष 2009 से चीन और भारत जैसे देशों पर जलवायु परिवर्तन को रोकने में अधिक योगदान करने का दबाव बना रहे हैं।
इस बीच जलवायु परिवर्तन का संकट गहराता जा रहा है। हर वर्ष अधिक तीव्रता वाले तूफान और बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदाओं की संख्या बढ़ रही है। इन आपदाओं का असर आर्थिक रूप से पिछड़े और हाशिये पर जीने वाले लोगों पर सबसे अधिक पड़ता है। दुनियाभर में आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों की जीवन शैली की सादगी की वजह से जलवायु परिवर्तन करने वाली ग्रीन हाउस गैस में उनका योगदान नगण्य है। फिर भी जलवायु परिवर्तन के सबसे गंभीर परिणाम आर्थिक व सामाजिक रूप से कमजोर वर्गों को ही झेलने पड़ते हैं। यही वातावरणीय न्याय का मुख्य बिन्दु है! जलवायु परिवर्तन के लिए जिम्मेदार देशों और लोगों के पास प्राकृतिक आपदाओं का सामना करने के लिए साधन ज्यादा होते हैं, लेकिन जो देश इसके लिए सबसे कम जिम्मेदार हैं, वही साधनों की कमी की वजह से इन आपदाओं की सबसे अधिक कीमत चुकाते हैं।
जलवायु परिवर्तन के असर सिर्फ बड़ी प्राकृतिक आपदाओं तक ही सीमित नहीं है। पूर्वी भारत में ब्रह्मपुत्र नदी किनारे रहने और खेती करने वाले लाखों लोगों को नदी के निरंतर उफान की वजह से हुए भू-स्खलन के कारण अपने घरों और खेती की जमीन को खोना पड़ा है। इसी प्रकार समुद्री तापमान व क्षारता में आए बदलावों के कारण मछुवारों की आजीविका खतरे में है। केन्द्र सरकार के पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय (एमओईएस) द्वारा जारी की गई भारत की जलवायु परिवर्तन पर पहली विस्तृत रिपोर्ट के अनुसार, जलवायु परिवर्तन की वजह से भारत में औसत तापमान में वर्ष 1901 से लेकर अब तक लगातार वृद्धि हुई है। वर्ष 2015 में भीषण गर्मी के कारण 2,400 से ज्यादा लोगों की मौत हुई। गौरतलब है कि गरीबों को प्रभावित करने वाली दूसरी समस्याओं की तरह गर्मी से हुई मौतों की सही संख्या का सिर्फ 10 प्रतिशत ही सरकारी आंकड़ों में दर्ज हो पता है।
जलवायु परिवर्तन के कारण वर्षा-आधारित खेती, पशुपालन व जंगलों पर निर्भर लोगों की जिंदगी पर बहुत गंभीर प्रभाव हो रहे हैं। याद रहे कि ये सभी वही समूह हैं जिनकी जीवनचर्या की वजह से जलवायु परिवर्तन जैसे नकारात्मक असर नहीं हुए हैं। खास बात तो यह है कि कई सर्वहारा वर्गों की जीवनशैली जलवायु परिवर्तन रोकने के लिए मददगार रही है। लेकिन प्राकृतिक संसाधनों की देखरेख करने वाले इन समुदायों से सीखने या इनके अधिकारों की रक्षा करने की बजाय भारत के नीति निर्धारकों ने कई मौकों पर खेती में बजारीकरण और जंगलों के विनाश करने वाले खनन व औद्योगीकरण को बढ़ावा दिया है। जैविक खेती, पशुपालन व जंगल आधारित आजीविका से दुनिया की बड़ी आबादी का भरण पोषण होता है और पर्यावरण व जलवायु सुरक्षा में भी मदद मिलती है। उदाहरण के तौर पर छोटे किसानों की जैविक खेती की वजह से खेतों की मिट्टी में कार्बन का संरक्षण होता है और आदिवासियों की देखरेख में पनपे जंगल प्रकृति के संरक्षण की मजबूती के अलावा कार्बन के भंडार की तरह काम करते हैं। दूसरी तरफ बाजार आधारित खेती व खाद्य प्रसंस्करण उद्योग से दुनिया की बहुत कम जनसंख्या की खाने की जरूरतें पूरी होती हैं लेकिन जलवायु परिवर्तन में औद्योगिक खेती की एक बड़ी भूमिका है।
इसके बावजूद, भारत व अन्य देशों की सरकारें बाजार आधारित खेती को ही बहुत बड़े पैमाने पर प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष अनुदान देती रही हैं। उदाहरण के लिए भारत सरकार रासायनिक खाद को बढ़ावा देने के लिए 70,000 करोड़ रुपए से अधिक का अनुदान देती है, जिसका एक बड़ा हिस्सा रासायनिक खाद बनाने वाली कंपनियों के मुनाफे को बढ़ाता है। इसके विपरीत जैविक खेती को बढ़ाने के लिए सरकार सिर्फ 500 करोड़ रुपए ही खर्च करती है, जिसको बढ़ाने की जरूरत है। यह भी सुनिश्चित करना होगा कि मध्यम वर्ग की जरूरत पूरी करने वाले ब्रांडेड जैविक उत्पादों के बजाय सरकार का ध्यान जैविक खेती करने वाले छोटे और मध्यम किसानों पर हो। डेक्कन डेवलपमेंट सोसाइटी और इस तरह की दूसरी संस्थाएं भूमिहीन महिलाओं के समूह बनाकर उनको खेती की जमीन इजारे पर दिलाकर जैविक खेती करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। भारत और राज्य सरकारों को ऐसे कार्यक्रमों को मदद करनी चाहिए क्योंकि ये सामाजिक न्याय एवं जलवायु परिवर्तन से मुकाबला करने के उद्देश्यों को एक साथ आगे बढ़ाते हैं।
इसके विपरीत जलवायु परिवर्तन के नाम पर जंगलों व दूसरे प्राकृतिक संसाधनों में स्थानीय समुदायों के हक छीने जा रहे हैं। भारत सरकार के ग्रीन इंडिया मिशन और क्षतिपूर्ति वृक्षारोपण जैसे कार्यक्रमों के दो मुख्य कारण नजर आते हैं– एक क्षतिपूर्ति वृक्षारोपण के बहाने जंगल की जमीन पूंजीपतियों को देना और दूसरा, सरकार द्वारा जंगलों में संचित कार्बन की मात्रा के बदले विकसित देशों से पैसा लेना। यह बात सही है कि भारत के जंगल दुनिया में बढ़ते जलवायु परिवर्तन को रोकने में मदद करेंगे। लेकिन जंगलों को इस तरह बाजारू आदान-प्रदान में घसीटने के नुकसान ही ज्यादा नजर आते हैं। पैसों के लालच में जंगलों को अक्सर तेजी से उगने वाले पेड़ों के बागान में बदल दिया जाता है। ये नव निर्मित जंगल प्राकृतिक जंगलों की भरपाई कतई नहीं कर सकते। अगर जलवायु परिवर्तन को रोकने से जुड़ी धनराशि को आदिवासी समुदाय के लिए जैविक खेती और स्थानीय प्राकृतिक संसाधनों के विकास में लगाया जाए तो फायदा हो सकता है।
शोध बताते हैं कि भारत के पर्यावरण मंत्रालय व राज्यों के वन विभाग में जवाबदेही का घोर अभाव है। इसके कारण पर्यावरण व जंगली जानवरों को बचाने के नाम पर आदिवासियों व अन्य स्थानीय समुदाय के हक छीने गए हैं। वन विभाग व अन्य सरकारी संस्थाएं अक्सर इन कार्यक्रमों का इस्तेमाल जंगल पर अपना मालिकाना हक जताने के लिए ही करती रही हैं ताकि कार्बन बाजार जैसे कार्यक्रमों के माध्यम से अधिक से अधिक फंड जुटाया जा सके। ध्यान रखने वाली बात यह है कि सरकारी विभागों की खामियों का एक बड़ा कारण भारत में राजनैतिक जवाबदेही की कमी भी है! भारत उन चंद देशों में है जहां जलवायु परिवर्तन से संबंधित कोई कानून नहीं है और देश की नीतियां प्रशासनिक आदेशों के भरोसे ही गैर-जवाबदेह तरीके से चलाई जा रही हैं। यह एक बड़ी समस्या है क्योंकि जलवायु परिवर्तन से प्रभावी तौर पर मुकाबला करने के लिए भारत को ऊर्जा, यातायात और पूरी अर्थव्यवस्था में बड़े ढांचागत परिवर्तन लाने होंगे।
साथ ही भारत में तेजी से बढ़ते शहरीकरण का प्रबंधन इस तरह से करना पड़ेगा कि यह ऊर्जा, पानी व अन्य प्राकृतिक संसाधनों के दोहन व विनाश का कारण न बने और जलवायु परिवर्तन को बढ़ावा न दे। इंदौर के रहने वाले राहुल बनर्जी कम लागत वाले, टिकाऊ व विकेंद्रित शहरी ढांचागत विकास पर काम करते रहे हैं। जयपुर व इंदौर जैसे कई शहरों के अध्ययन के आधार पर उन्होंने दिखाया है कि इस तरह का विकास प्राकृतिक साधनों के संचयन और जलवायु परिवर्तन को रोकने के काम मे मददगार हो सकता है। लेकिन ऐसी व्यवस्थाओं को बढ़ावा देने के बजाय भारत सरकार, स्मार्ट सिटी जैसी चमकदार लेकिन खोखली परियोजनाओं में निवेश कर रही है, जिनकी वजह से होने वाली ऊर्जा की अत्यधिक खपत और प्राकृतिक साधनों के दोहन के कारण जलवायु परिवर्तन को बढ़ावा मिलेगा।
वित्तीय पारदर्शिता के अभाव में जलवायु परिवर्तन से जुड़ी परियोजनाएं निजी कंपनियों के लिए पैसा बनाने का माध्यम बनकर रह गई हैं। भारत में तेजी से फैल रहे सौर और पवन ऊर्जा के साधनों का स्वामित्व पूर्णतः निजी हाथों में ही है। दुर्भाग्य है कि इन विषयों पर कोई सार्वजनिक चर्चा भी नहीं हो रही है। इसके साथ ही भारत और राज्य सरकारें जनहित के नाम पर किसानों की जमीनें निजी कंपनियों द्वारा लगाए जा रहे सौर व पवन ऊर्जा पार्कों को दे रही हैं। सौर और पवन ऊर्जा का विकास निश्चित ही जनहित में हो सकता है मगर उसके लिए यह सुनिश्चित करना पड़ेगा कि जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए जरूरी ढांचागत विकास का स्वामित्व पब्लिक सेक्टर में ही रहे। इसका विकास इस तरह से सुनियोजित किया जा सकता है कि जनहित को लाभ के लिए इस्तेमाल न किया जाए।
सरकार ऐसे कार्यक्रमों को देश के विकास के साथ जोड़कर प्रचारित करती है लेकिन ऐसे विकास का फल कुछ ही तबकों तक सीमित रहा है। गरीब और अमीरों की खाई तीन दशकों से तेजी से बढ़ रही है! पी साईंनाथ की प्रसिद्ध किताब “एवरीबॉडी लव्ज अ गुड ड्राउट” याद दिलाती है कि निजी कंपनियों और सरकारी विभागों के भ्रष्ट अफसरों के लिए जलवायु परिवर्तन मुनाफे वाला व्यापार बन सकता है! गहराई से सोचा जाए तो स्मार्ट सिटी जैसे कार्यक्रम शहरीकरण को निजी कंपनियों के लिए अवसर की तरह से ही प्रस्तुत कर रहे हैं। जलवायु परिवर्तन के बहाने इस प्रक्रिया को बल मिलेगा।
पर्यावरण संरक्षण व जलवायु परिवर्तन का इतिहास सिखाता है कि दुनिया के ताकतवर और हमारे देश के ताकतवर लोगों के भरोसे रहना बड़ी भूल होगी। अंततः राजनीतिक जवाबदेही, आर्थिक पारदर्शिता और सामाजिक संवेदनशीलता से किए गए कार्य ही जनहित में हो सकते हैं। न्याय संगत व्यवस्थाओं के चलते ही पर्यावरण को बचाया जा सकेगा। सामाजिक न्याय पर आधारित चिंतन हमें आर्थिक और राजनैतिक भ्रष्टाचार से मुकाबला करने में मददगार होगा! ब्राजीलियन चिंतक पाउलो फ्रेरे ने लिखा है कि समाज की मुक्ति प्रताड़ित वर्गों की सामाजिक राजनैतिक चेतना व भागीदारी से ही संभव है। दलित, आदिवासी, मुस्लिम, महिलाओं व समाज के हाशिये पर रहे शोषित वर्गों की भूमिका पर्यावरण संरक्षण व जलवायु परिवर्तन का मुकाबला करना में अत्यंत महत्वपूर्ण रहेगी ।
(लेखिक यूनिवर्सिटी ऑफ कनेटिकट में राजनैतिक विज्ञान के असोसिएट प्रोफेसर और यूनिवर्सिटी के मानव अधिकार संस्थान के आर्थिक और सामाजिक अधिकार शोध कार्यक्रम के सह-निदेशक हैं)