दुबई में हुए जलवायु परिवर्तन पर 28वें कॉन्फ्रेंस (कॉप 28) का परिणाम क्या रहा, किन मुद्दों पर वार्ताएं हुई। इस पर डाउन टू अर्थ ने विस्तृत रिपोर्ट तैयार की, जिसे पांच भागों में प्रस्तुत किया जा रहा है। अब तक आपने पढ़ा, भाग 1 : जानिए यहां कॉप 28 रहा कितना सफल, भाग 2 : यहां जानिए कॉप 28 के अहम फैसले और देशों की राय , भाग 3 : कॉप 28 में उत्सर्जन को खत्म करने के लिए क्या बनी रणनीति, यहां जानिए । आज पढ़ें चौथी कड़ी -
दुबई में हुए जलवायु परिवर्तन पर 28वें कॉन्फ्रेंस (कॉप 28) में क्लाइमेट फाइनेंस को लेकर कोई सार्थक नतीजा नहीं निकला। यह हाल तब रहा जब धनी देश लगातार क्लाइमेट फाइनेंस की अपनी प्रतिबद्धता को पूरा करने में नाकाम रहे। उनका वादा था कि 2020 से हर साल विकासशील देशों को क्लाइमेट एक्शन के लिए 100 अरब डॉलर देंगे, लेकिन 2009 में कॉप 15 में किए गए इस लक्ष्य को किसी भी साल पूरा नहीं किया गया। आर्थिक सहयोग और विकास संगठन (ओईसीडी) के अनुसार, 2021 में विकसित देशों की तरफ से कुल क्लाइमेट फाइनेंस 89.6 अरब डॉलर था।
क्लाइमेट फाइनेंस को आसान शब्दों में कहें तो यह अधिक वित्तीय संसाधनों वाले देशों से ऐसे देशों के लिए वित्तीय सहायता है, जिनके पास कम वित्तीय संसाधन हैं और जो पर्यावरण के लिहाज से अधिक असुरक्षित हैं। इस मदद यानी क्लाइमेट फाइनेंस का इस्तेमाल विकासशील देश क्लाइमेट चेंज के नकारात्मक असर को कम करने या अनुकूलन के लिए करते हैं।
क्लाइमेट फाइनेंस के तौर पर 100 अरब डॉलर का लक्ष्य विकासशील देशों की जरूरतों पर आधारित नहीं था। क्लाइमेट फाइनेंस पर स्वतंत्र उच्च-स्तरीय विशेषज्ञ समूह ने अनुमान लगाया है कि चीन को छोड़कर उभरते बाजारों और विकासशील देशों को केवल ऊर्जा परिवर्तन, अनुकूलन और लचीलेपन, नुकसान और क्षति और प्रकृति के संरक्षण और बहाली के लिए 2030 तक सालाना 2.4 ट्रिलियन डॉलर यानी 2,40,000 करोड़ डॉलर निवेश की जरूरत है। इस संदर्भ में वार्षिक जलवायु शिखर सम्मेलन में विकासशील देशों की जरूरतों और प्राथमिकताओं को दर्शाने के लिए क्लाइमेट फाइनेंस पर एक नए लक्ष्य - न्यू कलेक्टिव क्वांटिफाइड गोल (एनसीक्यूजी) यानी नए सामूहिक मात्रात्मक लक्ष्य पर बातचीत की जा रही है।
यूनाइटेड नेशंस कॉन्फ्रेंस ऑन ट्रेड एंड डिवेलपमेंट (यूएनसीटीएडी)की तरफ से कॉप 28 में जारी एक रिपोर्ट में गणना की गई थी कि क्लाइमेट एक्शन को सपोर्ट देने के लिए नए वित्त लक्ष्य के तहत 2025 में विकासशील देशों को 500 अरब डॉलर की फंडिंग होनी चाहिए। इसे 2030 तक बढ़ाकर 1.55 ट्रिलियन (1,55,000 करोड़) डॉलर करना चाहिए।
थर्ड वर्ल्ड नेटवर्क (टीडब्ल्यूएन) के कार्यक्रमों की प्रमुख मीना रमन ने रिपोर्ट के लॉन्च पर कहा कि विकसित देश इस लक्ष्य की राशि के बारे में कोई बात नहीं करना चाहते हैं। उनकी अनिच्छा जाहिर है। उनका कहना है कि यह एक विशुद्ध राजनीतिक मुद्दा है।
कॉप 28 के कमजोर परिणाम
एनसीक्यूजी (न्यू कलेक्टिव क्वांटिफाइड गोल) के तहत क्लाइमेट फाइनेंस का नया लक्ष्य 2024 तक तय होना है और इसके अगले साल से शुरू होने की उम्मीद है। एनसीक्यूजी पर बातचीत के पहले दिन विकसित और विकासशील देशों के समूह 'महत्वपूर्ण तत्वों' पर चर्चा करना चाहते थे। इनमें शामिल थी समय सीमा जिसका विषय था क्या ये लक्ष्य 2035 तक चलेगा या उससे आगे? दूसरा विषय था संरचना और तीसरा विषय था पारदर्शिता और लक्ष्य का दायरा। ये सब 2024 में होने वाले तय काम के अलावा अतिरिक्त चर्चा के विषय थे।
हालांकि, दूसरे दिन तक कई देशों के रुख बदल गए और पहले हफ्ते के अंत तक बातचीत अनौपचारिक रूप में चलने लगी। वर्ल्ड वाइल्डलाइफ फंड (डब्ल्यूडब्ल्यूएफ) पोलैंड के वरिष्ठ जलवायु नीति विशेषज्ञ मार्चिन कोवाल्चुक बताते हैं “दूसरे हफ्ते में, वर्क प्रोग्राम पर एक साफ-सुथरा दस्तावेज तैयार किया गया, लेकिन महत्वपूर्ण तत्वों पर गतिरोध बना रहा।”
दूसरे हफ्ते में ही यूरोपीय संघ ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में क्लाइमेट एक्शन के लिए धन जुटाने में सिर्फ विकसित देशों के बजाय दुनिया भर के देशों को शामिल करने का जिक्र किया। कोवाल्चुक बताते हैं कि यह एक विवादास्पद मुद्दा है और इस पर कॉप 29 में चर्चा होगी।
कॉप 28 में क्लाइमेट फाइनेंस को लेकर विकसित और विकासशील देशों के बीच कई मुद्दों पर तकरार देखी गई। एक अहम मुद्दा था पेरिस समझौते का आर्टिकल 2.1सी, जो कम कार्बन उत्सर्जन और जलवायु परिवर्तन का सामना करने के लिए वित्तीय सहायता को जोड़ने की बात करता है।
विकासशील देशों ने अपने इस डर का इजहार किया कि विकसित देश क्लाइमेट फाइनेंस के साथ शर्तें जोड़ सकते हैं। उदाहरण के लिए, भारत ने समान विचार के विकासशील देशों (एलएमडीसी) की ओर से कहा कि विकसित देशों की तरफ से विकासशील देशों पर जीवाश्म ईंधन और दूसरी गतिविधियों से दूर हटने का दबाव गरीबी कम करने में बाधा डालेगा। उनका कहना है कि यह पेरिस समझौते के अनुरूप नहीं है।
वहीं, विकसित देश चाहते हैं कि सहायता से विकास भी पर्यावरण अनुकूल हो। “आर्टिकल 2.1सी” पर गतिरोध बना रहा। क्लाइमेट चेंज पर बांग्लादेश की प्रधानमंत्री के विशेष दूत सबर चौधरी ने एक प्रेस ब्रीफिंग में डाउन टू अर्थ को बताया, “आर्टिकल 2.1सी” पर भविष्य की बैठकों में चर्चा होगी।'
कॉप 28 के आखिर में एक ही मुद्दे पर सब देश सहमत हुए कि जलवायु वित्त लक्ष्य एनसीक्यूजी तय करने की बात अब तकनीकी चर्चा से हटकर समझौते की बातचीत की तरफ ले जाई जाए। इसके लिए शुरुआती 205 पैराग्राफ वाले दस्तावेज को छोटा करके केवल 26 पैराग्राफ और 4 पेज का बनाया गया है। हालांकि, ऐसा करने से लक्ष्य कम ठोस हो गया है और सिर्फ अगले साल तक बातचीत शुरू करने की बात कही गई है। इस तरह देशों ने एक बड़ा मौका गंवा दिया। वे लक्ष्य के असहमतियों को सुलझाने का काम आगे बढ़ा सकते थे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। विवादित मुद्दे टलते गए।
एनसीक्यूजी पर क्या तय हुआ?
कुछ अहम मुद्दे जो अगले साल तक टल गए
वित्तीय व्यवस्था में बदलाव
कॉप 28 में एक बड़ी बात समझ में आई कि आज की वैश्विक आर्थिक व्यवस्था जलवायु संकट को सुलझाने के लिए तैयार नहीं है। वैश्विक आर्थिक व्यवस्था की मुख्य तौर पर बुनियाद ब्रेटन वुड्स इंस्टिट्यूशंस हैं (इसमें आईएमएफ और विश्व बैंक शामिल हैं जिनकी स्थापना 1944 में हुई थी)। उस समय ग्लोबल साउथ के कई देश आजाद भी नहीं हुए थे। एक स्वतंत्र पब्लिक पॉलिसी थिंकटैंक ग्लोबल इंस्टीट्यूट फॉर सस्टेनेबल प्रॉस्पिरिटी से जुड़े फधेल कबूब बताते हैं “ये व्यवस्था उपनिवेशों के लूटमार के लिए बनी थी, जलवायु या विकास के लिए नहीं।”
कर्ज, मंहगे लोन और बैंक की नीतियों के चलते गरीब देश क्लाइमेट एक्शन में पिछड़ रहे हैं। वो मांग कर रहे हैं कि उन्हें सही मदद मिले, तभी वो ज्यादा से ज्यादा कदम उठा सकते हैं। इसी बात को जून 2023 में बॉन में हुए जलवायु सम्मेलन में भी कहा गया था।
कॉप 28 में ऐसी चर्चा भी हुई कि क्या विकासशील देशों के लिए क्लाइमेट एक्शन के खातिर नया फंड बनाया जाए। कुछ देश चाहते हैं कि ये अनुदान के रूप में और आसान शर्तों पर दिया जाए। हालांकि, बड़ी जरूरत ये है कि पूरी वैश्विक आर्थिक व्यवस्था में फेरबदल हो, नहीं तो जलवायु संकट से निपटना मुश्किल होगा। इसके लिए अलग-अलग देशों ने भी कदम उठाए हैं, जैसे कि यूएई ने क्लाइमेट फाइनेंस के लिए नए तरीके सुझाए हैं। कॉप 28 में इस पर खूब चर्चा हुई और यह उम्मीद की गई है कि आने वाले समय में और ठोस कदम उठाए जाएंगे।
कार्बन मार्केट
संयुक्त राष्ट्र जलवायु सम्मेलन (कॉप 28) के दौरान दुबई में दो हफ्ते चले तनावपूर्ण माहौल के बाद सभी 197 देशों के बीच पेरिस समझौते के आर्टिकल 6 पर सहमति नहीं बन पाने से गतिरोध की स्थिति बन गई है। यह आर्टिकल देशों को ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन कम करने या हटाने वाले प्रोजेक्ट्स से पैदा हुए कार्बन क्रेडिट के व्यापार करने की अनुमति देता है, जिससे वे अपने राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (एनडीसी) के जलवायु लक्ष्यों को पूरा कर सकते हैं। एक कार्बन क्रेडिट वायुमंडल से कम या हटाए गए 1 टन कार्बन डाइऑक्साइड के बराबर होता है और मेजबान देश इसे किसी खरीदार को बेच सकता है। विश्व बैंक के अनुसार 66 फीसदी से ज्यादा देश अपने एनडीसी को पूरा करने के लिए कार्बन क्रेडिट का इस्तेमाल करने की योजना बना रहे हैं।
देशों के बीच सहमति इसलिए नहीं बन पाई क्योंकि प्रस्तावित नियमों में पर्यावरण और मानवाधिकारों की मजबूत रक्षा के प्रावधान नहीं थे। 2015 में हुए पेरिस समझौते का आर्टिकल 6 कुल 9 पैराग्राफों में बताता है कि कैसे देश अपने जलवायु लक्ष्यों को पूरा करने के लिए स्वैच्छिक सहयोग कर सकते हैं। कॉप 28 ने तीन विषयों पर चर्चा की: आर्टिकल 6.2: (यह एक विकेंद्रीकृत प्रणाली है जहां देश आपस में द्विपक्षीय समझौते कर सकते हैं)। आर्टिकल 6.4: (यह एक केंद्रीकृत बाजार प्रणाली है जो व्यापार से पहले कार्बन क्रेडिट की उच्च गुणवत्ता को प्रमाणित करने, पुष्टि करने और जांच के लिए साझा मानक प्रदान करती है)। आर्टिकल 6.8: (यह गैर-बाजार तरीकों को शामिल करता है, जहां सहयोगी संस्थाएं बिना व्यापार के ही जलवायु अनुकूलन और उत्सर्जन कम करने के लक्ष्यों को पूरा कर सकती हैं)। आर्टिकल 6 पर वैसे तो 2015 में ही सहमति बन गई थी, लेकिन इसे लागू करने का तरीका तय करने वाली रूलबुक 2021 में कॉप 21 के दौरान ही तय हो सकी। सबसे बड़ी चुनौती दोहरी गिनती को रोकना था। दोहरी गिनती तब होती है जब एक ही कमी को ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में दोनों देश यानी मेजबान और खरीदार अपने एनडीसी लक्ष्यों में गिनते हैं। देशों ने इस पर सहमति जताई कि बेचने वाला अपनी कमी की घोषणा नहीं कर सकता, उसे तो बेचे गए हिस्से को अपने लक्ष्य से घटाना ही होगा, जबकि खरीदार अपने लक्ष्य में इस कमी को शामिल कर सकता है।
लेकिन रूलबुक यानी नियमपुस्तिका पूरी होने से कोसों दूर थी। आने वाले वर्षों में देशों को बाजार (आर्टिकल 6.2 और 6.4) और गैर-बाजार (आर्टिकल 6.8) तरीकों को लागू करने के सख्त नियम बनाने की जिम्मेदारी दी गई।
नई दुनिया के लिए नए वादे
देशों ने तय किया है कि वह फंड, कर और निवेश के जरिए कैसे प्रकृति को बढ़ावा देंगे
कॉप 28 में निम्न बिंदुओं पर क्या हुआ?
आर्टिकल 6.: आर्टिकल 6.2 देशों को आपसी समझौतों के जरिए कार्बन क्रेडिट के व्यापार करने की अनुमति देता है। कार्बन क्रेडिट को “इंटरनेशनली ट्रेडेड मिटिगेशन आउटकम्स” (आईटीओएमएस) कहा जाता है। दुबई में सम्मेलन के दौरान कॉप 21 में बनाए गए ढांचे को पूरी तरह से लागू करने के लिए आगे का मार्गदर्शन देने का लक्ष्य था।
कॉप 28 में जारी किए गए मसौदों पर देशों के बीच तीखी बहस हुई। टेक्स्ट को कई बार बदलने और कई बैठकें होने के बाद भी देशों के बीच अलग-अलग राय के कारण सहमति नहीं बन पाई। उदाहरण के लिए, कुछ देशों ने बेचे गए क्रेडिट के अधिकार को रद्द करने की संभावना पर आपत्ति जताई। अगर मेजबान देश को बेचे गए कुछ क्रेडिट को रद्द करने और उन्हें अपने जलवायु लक्ष्य में शामिल करने की अनुमति दी जाती है तो समस्याएं हो सकती हैं। कार्बन मार्केट वॉच के वैश्विक कार्बन बाजार नीति विशेषज्ञ जोनाथन क्रुक ने डाउन टू अर्थ' को बताया “यदि क्रेडिट पहले ही कारोबार कर चुका है तो इससे दोहरी गणना का जोखिम बढ़ जाता है।”
बातचीत के दौरान ब्रिटेन ने क्रेडिट को रद्द करने के अधिकार के खिलाफ आवाज उठाई, क्योंकि इससे व्यापार को नुकसान हो सकता है। लेकिन अर्जेंटीना, ब्राजील और उरुग्वे समेत कुछ देशों का समूह इससे असहमत था। उन्होंने इस विकल्प का समर्थन किया कि अगर मानवाधिकारों का उल्लंघन होता है तो कार्बन क्रडिट को वापस ले लिया जाए।
हालांकि, नियमों पर सहमति नहीं बन पाई है, लेकिन देशों ने पहले ही द्विपक्षीय समझौते कर लिए हैं। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम के कोपेनहेगन जलवायु केंद्र ने 7 अलग-अलग खरीदारों (जापान, सिंगापुर, दक्षिण कोरिया, स्विट्जरलैंड और नॉर्वे) और 42 मेजबान देशों के बीच 67 द्विपक्षीय समझौतें किए हैं। देशों के बीच ये द्विपक्षीय समझौते कार्बन व्यापार के लिए एक समान और पारदर्शी दृष्टिकोण की तरफ बढ़ने को और जटिल बनाते हैं।
आर्टिकल 6.4: आर्टिकल 6.4 के तहत उत्सर्जन कम करने या हटाने वाली परियोजना विकसित करने वाले मेजबान देशों को अपने प्रस्ताव को पर्यवेक्षण निकाय (सुपरवाइजरी बॉडी यानी एसबी) को भेजना होता है, जो बाजार की देखरेख करने वाला संयुक्त राष्ट्र पैनल है। मेजबान देश और एसबी की तरफ से मंजूरी मिलने के बाद ये परियोजनाएं कार्बन क्रेडिट अर्जित कर सकती हैं। ये क्रेडिट अपने जलवायु लक्ष्यों को पूरा करने के लिए देशों और कंपनियों या यहां तक कि व्यक्तियों को बेचे जा सकते हैं।
कॉप 28 में जारी किए गए विभिन्न मसौदों के टेक्स्ट पर भी जमकर बहस हुई। इनमें परियोजनाओं से उत्सर्जन कम करने और हटाने (परियोजनाएं जो वायुमंडल से ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को हटाती हैं) की गणना के लिए तरीकों के मानक स्थापित करने पर एसबी की तरफ से की गईं सिफारिशें शामिल थीं। कार्बन हटाने की परियोजनाएं प्रकृति-आधारित हो सकती हैं जो जंगलों, मैंग्रोव और कृषि मृदा का उपयोग करती हैं या तकनीक-आधारित समाधान जैसे बड़ी मशीनों को तैनात करना और कार्बन डाइऑक्साइड को कैप्चर और स्टोर करना।
11 दिसंबर को हुई बैठक में यूरोपीय संघ ने कहा कि मसौदा टेक्स्ट यह स्पष्ट तौर पर और मजबूती से नहीं कहता कि कार्बन मार्केट उत्सर्जन कम करने में योगदान दे सकता है। हवा से कार्बन हटाने का मतलब क्या है, इसकी परिभाषा क्या है, इसे लेकर भी सवाल उठे। अफ्रीकी समूह, यूरोपीय संघ और रूस जैसे गुट नहीं चाहते कि पर्यवेक्षण निकाय (एसबी) उत्सर्जन हटाने की परिभाषा फिर तय करे। एसबी कहता है: हटाना वह प्रक्रिया है जो मानवजनित गतिविधियों के माध्यम से ग्रीनहाउस गैसों को वायुमंडल से हटाती है और उन्हें नष्ट कर देती है या स्थायी रूप से संग्रहित करती है।
लेकिन विशेषज्ञों को इस परिभाषा में खामियां दिखती हैं। उदाहरण के तौर पर, जोनाथन क्रुक डाउन टू अर्थ को बताते हैं, कार्बन डाइऑक्साइड को रखने के लिए कितना समय चाहिए, यह अब तक साफ नहीं है। इससे अस्थायी तौर पर कार्बन रखने वाली परियोजनाओं को रास्ता मिल सकता है।
13 दिसंबर को किसी समझौते पर सहमति नहीं बन सकी, कोई डील नहीं हो पाई। किसी स्पष्ट फैसले का न हो पाने का मतलब है कार्बन बाजार में एक और साल तक अनिश्चितता। इससे कंपनियां अपने उत्सर्जन को ऑफसेट करने के लिए पहले से मौजूद स्वैच्छिक बाजारों का इस्तेमाल कर सकती हैं। लेकिन ये कितनी कारगर है, इस पर सवाल बना रहेगा। डाउन टू अर्थ और सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट की पिछली जांच में पाया गया था कि स्वैच्छिक कार्बन मार्केट प्रोजेक्ट लोगों और जलवायु को फायदा नहीं पहुंचा सकते।
इसके अलावा भी कई चिंताएं हैं। आर्टिकल 6.4 को लागू करने में और देरी हुई तो आर्टिकल 6.2 में ज्यादा परियोजनाएं आ सकती हैं क्योंकि इसकी बातचीत काफी आगे यानी अडवांस स्टेज में बढ़ चुकी हैं।
नेट जीरो अलाइंड ऑफसेटिंग के रिसर्च असोसिएट इंजी जॉनस्टोन डाउन टू अर्थ को बताती हैं “आर्टिकल 6.2 में पर्यावरण सुरक्षा के लिए कोई पक्के मानक नहीं हैं क्योंकि ये दो देशों के बीच तय होते हैं।” अब मसौदा फिर तैयार किया जाएगा और अगले कॉप 29 में पेश किया जाएगा।
आर्टिकल 6.8: कॉप 28 में आर्टिकल 6.8 के लिए मसौदा टेक्स्ट को मंजूरी दे दी गई। यह आर्टिकल नॉन-मार्केट क्लाइमेट ऐक्शन पर जोर देता है। मुख्य तौर पर 2 मुद्दों पर बात हुई: एक- ग्लासगो कमेटी को मान्यता देने और दूसरा आइडिया-शेयरिंग प्लेटफॉर्म न बन पाने को लेकर चर्चा।
2021 में बनाई गई ग्लासगो कमेटी का काम था देशों के लक्ष्यों (एनडीसी) में बाजार के बाहर सहयोग से उत्सर्जन कम करने और अनुकूलन कार्रवाई के लिए ढांचा बनाना। कॉप 28 में इस कमेटी के अब तक के काम को सराहा गया। देशों ने नॉन-मार्केट बेस्ड अप्रोच को लेकर आइडिया शेयरिंग के लिए वेब-आधारित प्लेटफॉर्म नहीं बन पाने की नाकामी पर भी चर्चा की।
दुर्भाग्य से आइडिया शेयरिंग के लिए ऑनलाइन प्लेटफॉर्म बनाने की पहल आगे नहीं बढ़ पाई। आर्टिकल 6.8 पर चर्चा में बारीक बिंदुओं पर गहराई से ज्यादा बात नहीं हुई। कुल मिलाकर, बाजार-आधारित समाधानों पर ज्यादा जोर दिया गया है, जिससे बाजार से हटकर काम करने के तरीकों को पीछे की तरफ धकेल दिया गया है।
कॉप 28 में पहली बार उन मुद्दों को छुआ है जिन्हें तीन दशक पहले छुआ जाना था। क्लाइमेट फंड और टेक्नोलॉजी के लेन-देन का मामला अब भी अनसुलझा है। विकसित बनाम विकासशील देश की इस लड़ाई में यह बात धीरे-धीरे साफ हुई है कि विकासशील देश ज्यादा मुखर हो रहे हैं और विकसित देशों पर दबाव बनाने में उन्हें बड़ी सफलता मिल रही है।