भाग 1 : जानिए यहां कॉप 28 रहा कितना सफल

कॉप 28 ने इस संदर्भ में वह कर दिखाया जो विगत 30 सालों से करने का स्वप्न देखा जा रहा था। पहली बार जलवायु परिवर्तन को बदतर बनाने में जीवाश्म ईंधन की भूमिका पर बातचीत हुई।
Photo: Joel Michael / CSE
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संयुक्त राष्ट्र के “फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज (यूएनएफसीसीसी)”का 28 वां “कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज (कॉप 28)” सम्मेलन तेल और गैस उत्पादक देश संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) में आयोजित हुआ। यह सम्मेलन एक तनावपूर्ण परिवेश में संपन्न हुआ क्योंकि अपने देश की राष्ट्रीय तेल कंपनी के मुख्य कार्यकारी अधिकारी सुल्तान अल जबर कॉप 28 के अध्यक्ष की हैसियत से इस सम्मेलन में एक दोहरी भूमिका का निर्वहन कर रहे थे। ऐसी स्थिति में यूएई और अन्य सदस्य देशों के बीच हितों के टकराव की स्वाभाविक आशंका हर किसी को थी। दूसरी तरफ इसराइल और फिलिस्तीन के बीच हिंसक झड़पों के कारण भी सम्मेलन के भविष्य पर अनिश्चितता के बादल छाए हुए थे। बहरहाल विषमताओं के बावजूद लगभग 200 देशों के प्रतिनिधियों ने रेगिस्तान में बसे आलीशान दुबई में आयोजित “एक्सपो 2020” वेन्यू में शिरकत की। कइयों की नजर में यह सम्मेलन यह बताने का एक महत्वपूर्ण रूपक भी है कि किस प्रकार कॉप सम्मेलनों ने यूएनएफसीसीसी के केंद्रीय मामलों के परे खुद का विस्तार ग्रीन वाशिंग के छलावे के तौर पर किया है।

सम्मेलन में सभी प्रतिभागियों द्वारा सहमति के आधार पर पहले ही दिन एक नई विषय-सूची को सुगठित एजेंडे के रूप में मान्यता दे दी गई। नई अध्यक्षता ने सम्मेलन के पहले ही दिन अपनी राजनयिक सूझ-बूझ से विकसित देशों को “लॉस एंड डैमेज फंड” के परिचालन के लिए राजी करके सबको अचंभित कर दिया और इसको क्रियान्वित करने के लिए अपनी ओर से अनुदान-आधारित प्रतिबद्धता व्यक्त की। इस कार्यवाही ने हानि और क्षति के बीच अनुदान और समझौते के बाद के चरणों में उपस्थित होने वाली अन्य मांगों के कारण प्रकट होने वाली लेन-देन की स्थितियों को भी सफलतापूर्वक दूर किया। इस सकारात्मकता के साथ सम्मेलन की शुरुआत करना एक महत्वपूर्ण बात थी, दिखावे के लिए ही सही, लेकिन विकसित और विकासशील देशों के बीच एक विश्वास का माहौल पैदा करने की कोशिश हुई। यह जरूरी इसलिए भी था क्योंकि इस कॉप के जिम्मे पेरिस समझौतेके लक्ष्यों के ग्लोबल स्टॉकटेक आकलन के आधार पर सहमतिपूर्वक आगे ले जाने का दारोमदार भी था। इस बातचीत के समानांतर कई देशों ने स्वैच्छिक तौर पर नवीकरणीय ऊर्जा की क्षमता को तिगुना बढ़ाने की प्रतिबद्धता, जलवायु परिवर्तन और लोक स्वास्थ्य के प्रति संकल्प, टिकाऊ कृषि व अन्य मुद्दों पर महत्वपूर्ण घोषणाएं कीं। इनमें कई देशों ने समर्थन दिया तो कई चुप रहे। ऐसे देश चुप रहे जो स्वेच्छा या संयुक्त राष्ट्र जलवायु सम्मेलन के नियमों या प्रोटोकॉल से बंधे हुए नहीं हैं। भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका जैसी बड़ी अर्थव्यवस्थाओं ने भी पेरिस समझौते में अपने संकल्पों से परे इन बिंदुओं पर सहमत नहीं होने का निर्णय लिया।

ग्लोबल नॉर्थ और साउथ अक्सर लॉस एंड डैमेज या जलवायु वित्त से संबधित मुद्दों पर बातचीत करते हुए आपसी टकराव से बचते हैं, लेकिन वास्तविकताएं इससे कहीं अधिक जटिल होती हैं। वैश्विक नेताओं द्वारा दिए गए वक्तव्यों से यह भी जाहिर होता है कि विकासशील दुनिया अब इन संवेदनशील मुद्दों पर पहले की तुलना में अधिक मुखर हो गई है। उसके पास समाधान भी है और वह जलवायु संबधी विमर्शों में अमीर और शक्तिशाली देशों के पाखंडपूर्ण आचरण पर भी टिप्पणी करने से नहीं हिचकती है। ब्राजील के राष्ट्रपति लूला डा सिल्वा ने साफ-साफ कहा कि असमानता से लड़े बिना हम जलवायु परिवर्तन से नहीं लड़ सकते हैं। बारबाडोस की प्रधानमन्त्री मिया मोटली ने परिवर्तन के लिए प्रत्यक्ष अनुदानों का आह्वान करते हुए एक रैली का नेतृत्व करते हुए कहा “किसी भी आपदा के पहले हम जो प्रत्येक डॉलर खर्च करते हैं, उसके बदले हम 7 डॉलर का नुकसान होने और कई जानों की क्षति से बच सकते हैं।” इन जटिल सच्चाइयों ने ग्लोबल स्टॉकटेक में जीवाश्म ईंधन पर निर्णायक बातचीत में महत्वपूर्ण भूमिकाएं निभाईं।

कॉप 28 ने इस संदर्भ में वह कर दिखाया जो विगत 30 सालों से करने का स्वप्न देखा जा रहा था। पहली बार जलवायु परिवर्तन को बदतर बनाने में जीवाश्म ईंधन की भूमिका पर बातचीत हुई। अमेरिका और यूरोप जैसे विकसित देश जहां जीवाश्म ईंधन के चरणबद्ध तरीके से समाप्ति की बात कर रहे थे, वहीं पश्चिमी मीडिया ने इतिहास और संदर्भों को दरकिनार कर यह फैलाया कि भारत, चीन और ओपेक जैसी तेजी से उभरती हुई अर्थव्यवस्थाएं जीवाश्म ईंधन की चरणबद्ध समाप्ति पर अवरोध खड़ा कर रही हैं। विकसित और विकासशील देशों के बीच जीवाश्म ईंधन के चरणबद्ध समाप्ति की भाषा को लेकर कई अफवाहें भी फैलीं।

हमेशा की तरह अमेरिका की तरफ से इस भाषा संबंधी प्रकरण में दिलचस्पी भी कम दिखी। जीवाश्म ईंधन को लेकर जो कदम विकसित देशों द्वारा 30 वर्ष पहले उठाए जाने थे उस पर बहस चलाई जरूर गई लेकिन जैसा कि कॉप की परंपरा रही है, उसने भी विकासशील देशों को “असल दोषी” ठहराने में तनिक भी देरी नहीं की।

अंत में कॉप 28 में यह तय किया गया कि जीवाश्म ईंधन को चरणबद्ध खत्म करने के बजाए ट्रांजिशन किया जाएगा। ट्रांजिशन यानी कम उत्सर्जन वाले जीवाश्म ईंधन का इस्तेमाल किया जाएगा। इस मसौदे की भी व्यापक आलोचना की गई है कि इनमें अनेक कमियां हैं जिनका दुरुपयोग जीवाश्म ईंधन का उत्पादन करने वाली ईकाइयां उत्पादन का विस्तार बढ़ाने के उद्देश्य से कर सकते हैं। जीवाश्म ईंधनों की भूमिका के उल्लेख के विरुद्ध अनेक तर्क हैं। जलवायु परिवर्तन पर पिछले 30 सालों से बहस जारी है और विज्ञान वर्षों से इसके कुप्रभावों के बारे में बातचीत को प्रोत्साहित करता रहा है, इसके बावजूद इसकी हदें आज भी आश्चर्यजनक रूप से हास्यास्पद हैं। बहरहाल जीवाश्म ईंधन को लेकर विकसित और विकासशील देशों के बीच शुरू हुई इस बात को ध्यान में रखकर सम्मेलन को मील का पत्थर मानना होगा और इस बात के लिए इसे श्रेय भी दिया जाना होगा कि सालाना होने वाले इस कॉप ने एक पुराने जड़ हो चुके विमर्श को गति दी है।

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