रिपोर्ट के निहितार्थ बिल्कुल स्पष्ट हैं। पहला, यह साफ है कि दुनिया 2040 तक 1.5 डिग्री सेल्सियस तापमान की ओर तेजी से बढ़ रही है। यानी कि अपने को सुरक्षित मानकर चल रही दुनिया के लिए दो दशक बाद सांस लेना मुश्किल हो जाएगा। यह ध्यान में रखकर चलना चाहिए कि 1880 के बाद अब तक हमने तापमान में 1.09 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि देखी है, यह औद्योगिक क्रांति का दौर था। इसी से हम अंदाजा लगा सकते हैं कि विज्ञान की मौजूदा चेतावनी कितनी खतरनाक है।
दूसरा, यह कि आईपीसीसी के वैज्ञानिकों को अब यह कहने में संकोच नहीं है कि जलवायु में ये बदलाव मानवीय गतिविधियों के चलते आए हैं। दरअसल, वे यह कहना चाह रहे हैं कि मौसम की खास घटनाओं के असर के चलते ही जलवायु में परिवर्तन नहीं हुए हैं। यह इस मायने में खास है कि अभी तक हमें यही समझाया जाता रहा है कि दुनिया में मौसमी घटनाओं की बढ़ती आवृत्ति के चलते ही जलवायु में बदलाव आया है। लेकिन अब हम निश्चित रूप से जानते हैं कि इसमें किसकी कितनी भूमिका है, चाहे वह कनाडा में तापमान बढ़ने का मामला हो, यूनान में जंगलों में आग लगने की घटना हो या फिर जर्मनी में बाढ़। अब किसी अगर-मगर की बात ही नहीं है।
अब सवाल यह है कि क्या यह आवाज हमारे कानों तक जा रही है। क्या उतने बड़े पैमाने पर और तेजी से इससे निपटने के उपाय किए जा रहे हैं, जिसकी जरूरत है। जवाब है कि ऐसा अब भी नहीं हो रहा है। और इस संदर्भ में आईपीसीसी की रिपोर्ट का तीसरा मुख्य बिंदु समझना चाहिए। विज्ञान हमें बता रहा है कि धरती के सांेकने की क्षमता आने वाले सालों में उसी तरह कम होती जाएगी, जैसे उत्सर्जन बढ़ता जाएगा।