योगेन्द्र आनंद / सीएसई
योगेन्द्र आनंद / सीएसई

बदलते मौसम में लोकतंत्र का नया रूप-रंग

सच तो यह है कि जलवायु परिवर्तन के खिलाफ कार्रवाई समानता के बिना संभव नहीं है, सुनीता नारायण का संपादकीय लेख
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2024 कई मायनों में वर्तमान लोकतंत्र का स्वरूप और भविष्य निर्धारित करेंगे। इस साल दुनिया की लगभग आधी वयस्क आबादी अपनी सरकार चुनने के लिए अपने मताधिकार का प्रयोग करेगी। ऐसे में सवाल यह है कि क्या लोकतंत्र का वर्तमान परिदृश्य आने वाले वर्ष में जीवित रहेगा या इसे नया रूप दिया जाएगा।

वैश्विक स्तर पर दक्षिणपंथी सरकारों की संख्या में लगातार वृद्धि हो रही है और उसका कारण है मतदाताओं का भय और ध्रुवीकृत राजनीति से प्रेरित एवं संचालित होना। क्या लोकतंत्र केवल वोट डालने और उसके बाद बहुमत की जीत तक सीमित होकर रह जाएगा?

लोकतंत्र का विचार और व्यवहार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, असहमति और शक्ति संतुलन की मजबूत संस्थाओं से जुड़ा रहा है। क्या लोकतंत्र हमारी दुनिया में चल रहे युद्धों की बलि चढ़ जाएगा?

युद्धों ने न केवल लोगों के जीवन पर बुरा असर डाला है, बल्कि उस भव्य विचार को भी विकृत कर दिया है, जो लोकतंत्र को एक नैतिक शक्ति और असहमति एवं न्याय के लिए जगह बनाने वाली संस्था के रूप में देखता है।

गाजा में युद्ध ने उदारवादी दुनिया के दोहरे मानदंडों को उजागर कर दिया है, इस युद्ध के फलस्वरूप इन देशों ने मानवाधिकारों के उच्च मानक बनाए रखने का अपना नैतिक बल खो दिया है। युद्ध ने लोगों, उनकी संस्कृति और धर्म के बीच विभाजन को भी बढ़ा दिया है।

इसके अलावा, प्रवासियों में वृद्धि का डर भी साफ देखा जा रहा है। हम जानते हैं कि लोग अपना घर, परिवार और समुदाय बिना किसी बहुत बड़ी वजह के नहीं छोड़ते। लेकिन प्रवासियों की संख्या बढ़ रही है, इसमें कोई दो राय नहीं है।

अमेरिका स्थित थिंक टैंक माइग्रेशन पॉलिसी इंस्टीट्यूट के अनुसार, देश की सीमाओं पर गैर-अधिकृत प्रवासियों की संख्या पिछले वर्ष में दोगुनी हो गई है। यह चुनावों के लिए सबसे विवादास्पद मुद्दा बन गया है और रिपब्लिकन गवर्नर, डेमोक्रेटिक पार्टी द्वारा शासित राज्यों में प्रवासियों की भीड़ भेज रहे हैं। यूरोप में भी ऐसा ही है, जहां प्रवासी आबादी में बढ़ोतरी ने भय के व्यापार को बढ़ावा दिया है। इसका मतलब यह है कि हमारे लोकतंत्रों में मतदाता ऐसी मजबूत सरकारें चुन रहे हैं जो प्रवासियों को बाहर रखने का वादा करती हैं।

जिनेवा स्थित इंटरनेशनल ऑर्गनाइजेशन फॉर माइग्रेशन द्वारा संकलित “वर्ल्ड माइग्रेशन रिपोर्ट 2022” से पता चलता है कि आंतरिक विस्थापन के ट्रिगर बदल रहे हैं। आंतरिक संघर्षों के अलावा सूखे जैसी जलवायु संबंधी आपदाओं की शुरुआत भी धीरे-धीरे विस्थापन का कारण बन रही है। हम भारत में अपने अनुभव से जानते हैं कि गांवों से शहरों और उससे आगे की ओर प्रवासन बहुआयामी है। आर्थिक पिछड़ेपन से निपटने की चाह, मौसम की आपदाओं, आजीविका में हानि और निश्चित रूप से शहरों के आकर्षण जैसे कारकों से हालात और भी बदतर हो गए हैं।

हम यह भी जानते हैं कि नैचुरल कैपिटल और खुशहाली में निवेश से इस प्रवास को काबू में किया जा सकता है। उन स्थानों पर प्रवासन रुका हुआ है जहां ग्रामीण समुदायों ने उत्पादकता बढ़ाने के लिए जल प्रणालियों को पुनर्जीवित करके, कम लागत वाली कृषि को अपनाकर और इसी तरह की गतिविधियों में संलग्न होकर स्थानीय अर्थव्यवस्था का निर्माण किया है। यही कारण है कि भारत का राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कार्यक्रम, जो पारिस्थितिक सुधार से संबंधित काम के लिए वयस्कों को 100 दिनों की न्यूनतम मजदूरी देता है, अपनी सभी समस्यायों के बावजूद, देश के लिए सबसे बड़ा “कोपिंग” मेकेनिजम बना हुआ है। यही वह समय है जहां भविष्य के लिए लचीलापन और आर्थिक अवसर बनाने का एक बड़ा अवसर मौजूद है।

लेकिन आज की परिस्थितियां इस उलटफेर के खिलाफ हैं। युद्धों से लोग विस्थापित हो रहे हैं, असमान और विभाजित दुनिया में गरीबी बढ़ रही है और जलवायु परिवर्तन के प्रभाव बदतर होते जा रहे हैं। हम ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करने के लिए आवश्यक पैमाने और गति से काम नहीं कर पा रहे हैं और हम इसका नुकसान भी झेल रहे हैं।

वास्तव में, सरकारें जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए जो कदम उठाएंगी, वह लोकतंत्र को नया आकार देने के लिए एक और प्रज्वलन बिंदु बन सकता है। पहले से औद्योगीकृत देशों ने वातावरण में बेरोकटोक उत्सर्जन करने पर आधारित अपने वर्षों के आर्थिक विकास का भरपूर फायदा उठाया है और इसके बावजूद वे उत्सर्जन कम करने में ज्यादा सफल नहीं हो पा रहे हैं।

ये देश अपनी बिजली की जरूरतों को पूरा करने के लिए कोयले से अपेक्षाकृत कम कार्बन उत्सर्जित करने वाली प्राकृतिक गैस की ओर बढ़ रहे हैं। इन्होंने अपना विनिर्माण चीन और यहां तक कि भारत जैसे देशों में भी निर्यात किया है। लेकिन उनके उपभोग पैटर्न में कोई वास्तविक बदलाव नहीं हुआ है और उसके लिए अर्थव्यवस्थाओं को कम कार्बन सघन बनाने के लिए पुनः इंजीनियरिंग की आवश्यकता होगी।

लेकिन अब ये विकल्प सीमित हैं, क्योंकि देशों को कृषि या उद्योग जैसे क्षेत्रों में उत्सर्जन पर लगाम लगाने के उपायों के खिलाफ विरोध का सामना करना पड़ रहा है। यह लोकतंत्र के एक नए प्रकार को बढ़ावा देगा, जहां लोग अपनी मुट्ठी और ताकत से “वोट” देंगे। हमने इसे हाल ही में नीदरलैंड में देखा जहां किसानों ने अपने खेतों में ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में कटौती के उपायों के खिलाफ मतदान किया।

जर्मनी में ग्रीन पार्टी को घरों में ऊर्जा-कुशल हीटर शुरू करने की अपनी नीति के खिलाफ विरोध का सामना करना पड़ा है। विडंबना यह है कि यह ऐसे समय में हो रहा है, जब देशों को उत्सर्जन में भारी कमी लाने के लिए और भी बहुत कुछ करने की जरूरत है ताकि अन्य सभी संबंधित संकट न बढ़ें। यही कारण है कि आज की जलवायु संकटग्रस्त दुनिया में लोकतंत्र का भविष्य इतना महत्वपूर्ण है। सच तो यह है कि जलवायु परिवर्तन के खिलाफ कार्रवाई समानता के बिना संभव नहीं है। इसके लिए बहुलवाद, समावेशन और बेजुबानों के लिए आवाज के लोकतांत्रिक सिद्धांतों के प्रति प्रतिबद्धता की आवश्यकता है।

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