पाकिस्तान में आई बाढ़ को जलवायु परिवर्तन ने और अधिक संगीन बना दिया था। लेकिन, इसकी जिम्मेवारी ऐतिहासिक रूप से प्रदूषण फैलाने वालों के सिर डाल देना आसान नहीं है। ये बातें इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी, दिल्ली के सेंटर फॉर एट्मॉस्फेरिक साइंसेज में मौसम विज्ञानी कृष्णा अच्युताराव ने कहीं। उनसे अक्षित संगोमला की हुई बातचीत के अंश:
मौसम संबंधी अध्ययन से देशों की ऐतिहासिक जिम्मेवारी के बारे में क्या पता चलता है?
मौसमी संबंधी अध्ययन में हम लोग यह अनुमान लगाते हैं कि किसी खास चरम मौसमी गतिविधि में ग्रीनहाउस गैस की क्या भूमिका है। आप इसे दो स्थितियों से समझ सकते हैं- एक उत्सर्जन से और एक उत्सर्जन के बिना। इसके बाद जोड़-घटाव कर यह पता लगाया जाता है कि किसी मौसमी घटना के खास हिस्से की वजह मानव निर्मित जलवायु परिवर्तन है।
ऐसे में अगर यह पता लगा लिया जाए कि आज उत्सर्जन कौन कर रहा है, तो जिम्मेवारी तय करना आसान हो जाता है। लेकिन, जब आप यह कहते हैं कि सभी वजहों से यह हो रहा है और आप अपना लेखाजोखा वहां से शुरू करते हैं जहां आप बता सकें कि फलां ने अधिक उत्सर्जन किया है, इसलिए एकमुश्त रूप में उनकी हिस्सेदारी सबसे अधिक है।
पाकिस्तान में बाढ़ पर हालिया अध्ययन में आपने पांच दिन और 60 दिनों की भारी बारिश का विश्लेषण यह बताने के लिए किया कि सिंध और बलूचिस्तान में बाढ़ की स्थिति 75 प्रतिशत अधिक भयावह ग्लोबल वार्मिंग के चलते रही। इसे आप ऐतिहासिक उत्सर्जन से कैसे जोड़ेंगे?
इस तरह के जोड़-घटाव में पांच दिन और 60 दिनों वाला फॉर्मूला काम नहीं करेगा क्योंकि आप बाढ़ की जिम्मेवारी 5 दिनों की बारिश और दूसरी की जिम्मेवारी 60 दिनों की बारिश पर डालेंगे, तो कैसे बता सकेंगे कि किसकी वजह से नुकसान हुआ है? लेकिन अगर हम एक अन्य उदाहरण लें, मसलन कि इस साल गर्मी के सीजन में भारत और पाकिस्तान में आई हीटेवेव की 30 गुना संभावित वजह जलवायु परिवर्तन है, तो आप 30 प्रतिशत की जिम्मेवारी तय कर सकते हैं और इसे ऐतिहासिक रूप से प्रदूषक देशों में बराबर बांट सकते हैं।
उत्सर्जन की जिम्मेवारी किस समय से तय की जाए, इसको लेकर बहसें चल रही हैं, इस पर आपकी क्या राय है?
हाल में आए कुछ अध्ययनों में लोग 1991 से जिम्मेवारी तय करने की कोशिश कर रहे हैं। उनका तर्क है कि इससे पहले जलवायु परिवर्तन और विज्ञान को लेकर जागरूकता नहीं थी। लेकिन ऐसे पर्याप्त सबूत हैं, जिनके जरिए दिखाया जा सकता है कि साल 1960 व 1970 में भी लोग और बड़े उत्सर्जक यह जानते थे कि जलवायु परिवर्तन समस्या है। मेरा मानना है कि नुकसान के मामले में उत्सर्जन की ‘शुरुआत’ एक भटकाने वाला तर्क होगा।
क्या विकासशील देशों पर अवधि लागू होती है?
अगर आप उत्सर्जन की गणना को देखेंगे, तो साल 1947 से पहले सब कुछ भारत के पाले में था। मुझे नहीं लगता है कि इसको लेकर कोई विवाद हो सकता है कि पश्चिमी दुनिया ने अधिक उत्सर्जन किया है, लेकिन सवाल है कि कितना अधिक किया है। साल 1991-1992 के संयुक्त राष्ट्र के दस्तावेज बताते हैं कि उस वक्त लोग बड़े दिलवाले थे और अपनी जिम्मेवारी स्वीकार करते थे क्योंकि तब उन्हें इसके एवज में आर्थिक मुआवजा नहीं देना होता था। ऐतिहासिक अतिसंवेदनशीलता की गणना और मौसम संबंधी अध्ययन की गुंजाइश के लिए सामाजिक विज्ञान में ऐसा अध्ययन होना चाहिए जिसमें हम यह जान सकें कि औपनिवेशीकरण नहीं हुआ होता, तो क्या कुछ अलग होता।
मौसम संबंधी मॉडल में किस तरह का बदलाव होना चाहिए कि नुकसान और क्षति पर सूचनाप्रद बहस हो? मौसम संबंधी अध्ययन तकनीकी मुद्दे हैं। अगर भारी बारिश हुई, जैसा कि हमने बंगलुरू में देखा, तो उसमें अतिरिक्त बारिश से कितनी बाढ़ आई और इससे कितना नुकसान हुआ, झीलों में भवन निर्माण जैसे मानवीय हस्तक्षेप व शासन व्यवस्था के मुद्दों की भूमिका रही? हमारे मॉडल में यह भी शामिल नहीं है कि बारिश के बाद क्या हुआ। इसके (इस खाई को पाटने) लिए प्रयास चल रहे हैं। उदाहरण के लिए, अमेरिका के ह्युस्टन में एक आंधी आई और वह वहीं रुक गई। वहां के लोगों ने पता लगाया कि बाढ़ से कैसे एक अतिसंवेदनशील आबादी असमान रूप से प्रभावित हुई। इस अध्ययन के जरिए अगले चरण में वे यह पता लगा पाए कि कौन-कौन से अतिसंवेनशील पड़ोसी इससे सबसे अधिक प्रभावित हुए और उनकी कमाई कितनी है।