
उत्तराखंड इस समय 2022 के बाद से अपने सबसे भीषण मानसून का सामना कर रहा है। 1 जून से 5 अगस्त 2025 के बीच, राज्य में 66 दिनों में से 43 दिन चरम मौसम (एक्सट्रीम वेदर) के दर्ज किए गए, जो पिछले चार वर्षों में इस अवधि के लिए सबसे अधिक है।
यह एक लगातार बढ़ती प्रवृत्ति को दर्शाता है। जैसे- 2024 में 39 दिन, 2023 में 31 दिन और 2022 में 22 दिन। डाउन टू अर्थ और सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट (सीएसई) द्वारा तैयार इंडियाज एटलस ऑन वेदर डिजास्टर्स रिपोर्ट में यह जानकारी दी गई है।
आंकड़े बताते हैं कि 5 अगस्त तक मानसून चालू सीजन के 65 प्रतिशत दिन चरम मौसम की घटनाएं दर्ज हुई, जबकि ये घटनाएं 2024 में 59 प्रतिशत, 2023 में 47 प्रतिशत और 2022 में 33 प्रतिशत थी। इसका अर्थ है कि इस साल की स्थिति पिछले साल से बदतर हो रही है।
भारत मौसम विज्ञान विभाग के अनुसार, मानसून का समय जून से सितंबर तक कुल 122 दिनों का होता है। 5 अगस्त इसके मध्य बिंदु को दर्शाता है, यानी आधिकारिक रूप से 30 सितंबर को समाप्त होने तक 56 दिन शेष हैं। फिर भी, उत्तराखंड में अब तक चरम मौसम वाले दिनों की संख्या 43 पहुंच चुकी है। साल 2022 के पूरे मानसून सीजन में 44 दिन चरम मौसम के थे।
विश्लेषण में आगे 2022 से अब तक एक समान पैटर्न भी दिखता है। मानसून के दूसरे हिस्से (6 अगस्त से 30 सितंबर) में आमतौर पर पहले हिस्से (1 जून से 5 अगस्त तक) जितने ही चरम मौसम वाले दिन दर्ज होते हैं।
अगर यह पैटर्न जारी रहा तो सितंबर के अंत तक उत्तराखंड में 40 से 43 और चरम मौसम वाले दिन दर्ज हो सकते हैं, जिससे इस मानसून के कुल चरम मौसम वाले दिन 83 से 86 तक पहुंच जाएंगे — जो पिछले चार वर्षों में सबसे अधिक होगा।
मानवीय क्षति
यह बिगड़ती प्रवृत्ति पहले से ही घातक असर दिखा रही है। इस साल जून से 5 अगस्त के बीच, उत्तराखंड में मौसम से जुड़ी आपदाओं के कारण कम से कम 48 लोगों की मौत हो चुकी है। यह संख्या 2022 के पूरे मानसून सीजन में दर्ज कुल मौतों (56) का 86 प्रतिशत है और 2023 में हुई कुल मौतों (104) का लगभग आधा (46 प्रतिशत) है।
और यह आंकड़ा और बढ़ सकता है। 5 अगस्त को उत्तरकाशी जिले के धराली गांव में अचानक आई बाढ़ ने घरों और लोगों को बहा दिया। अब तक चार मौतों की पुष्टि हो चुकी है, लेकिन 100 से अधिक लोग अब भी लापता हैं।
उत्तराखंड सरकार ने शुरू में इस आपदा को “बादल फटना” (क्लाउडबर्स्ट) बताया। हालांकि, भारत मौसम विज्ञान विभाग ने स्पष्ट किया कि यह घटना तकनीकी परिभाषा पर खरी नहीं उतरती। क्लाउडबर्स्ट का अर्थ है किसी छोटे क्षेत्र में एक घंटे में कम से कम 10 सेंटीमीटर बारिश होना। धराली में यह आपदा कई घंटों तक लगातार और भारी बारिश के कारण हुई।
आईएमडी के देहरादून स्थित प्रभारी रोहित थपलियाल के अनुसार, उत्तरकाशी जिले में आधिकारिक तौर पर केवल हल्की से मध्यम बारिश दर्ज की गई। लेकिन जमीनी स्तर पर इसका असर बिल्कुल साधारण नहीं था। रीडिंग विश्वविद्यालय के शोध वैज्ञानिक अक्षय देवोरस ने इस मूसलाधार बारिश को “चरम” बताया।
उन्होंने बताया कि 5 से 6 अगस्त के बीच, उत्तरकाशी जिले में औसत से 421 प्रतिशत अधिक वर्षा हुई। “सिर्फ 5 अगस्त को सात घंटों में ही 100 मिलीमीटर से ज्यादा बारिश दर्ज की गई। आस-पास के क्षेत्रों में कुछ ही घंटों में 400 मिमी से अधिक वर्षा हुई, जो लंदन हीथ्रो की औसत सालाना बारिश का लगभग दो-तिहाई है।”
पूरे हिमालय में संकट
धराली की घटना हिमालयी क्षेत्र में बढ़ते संकट को दर्शाती है। डाउन टू अर्थ और सीएसई के विश्लेषण के अनुसार, उत्तराखंड उन 13 हिमालयी राज्यों में से एक है, जिन्होंने पिछले तीन वर्षों में मानसून के लगभग 70 प्रतिशत दिनों में चरम मौसम का सामना किया।
वैज्ञानिक आमतौर पर इस चरम घटनाओं की बढ़ोतरी के लिए जलवायु परिवर्तन को जिम्मेदार मानते हैं। मौसम विभाग के 2024 के सालाना जलवायु विवरण् में पुष्टि की गई कि उत्तराखंड ने 1901 के बाद से अपना सबसे गर्म मानसून सीजन दर्ज किया, जिसमें औसत तापमान सामान्य से 1.5 डिग्री सेल्सियस अधिक रहा। सिर्फ जून 2024 में अधिकतम तापमान औसत से 3.8 डिग्री सेल्सियस अधिक और न्यूनतम तापमान 1.8 डिग्री सेल्सियस अधिक दर्ज किया गया। गर्म वातावरण में अधिक नमी रहती है, जिसके कारण जब बारिश होती है तो वह कहीं ज्यादा तेज़ और भारी होती है।
देवरस कहते हैं, “हम देख रहे हैं कि बहुत गर्म और नमी की ज़रूरत वाले माहौल का नाजुक पहाड़ी इलाकों से तेज टकराव हो रहा है। जलवायु परिवर्तन इन घटनाओं को और खतरनाक बना रहा है, क्योंकि अब मानसून के तूफ़ान गरम वातावरण में बनते हैं, जो थोड़े समय में बहुत ज़्यादा बारिश कराते हैं, जिससे अचानक बाढ़ और भूस्खलन होते हैं।”
2014 से उत्तराखंड में सड़क और बुनियादी ढांचे के विकास में तेजी आई है, जो अक्सर पारिस्थितिक स्थिरता की कीमत पर हुआ है। पीपुल्स एसोसिएशन फॉर हिमालयन एरिया रिसर्च* के संस्थापक शेखर पाठक के अनुसार, पिछले एक दशक में अव्यवस्थित निर्माण, वनों की कटाई और जल निकासी प्रणालियों में अवरोध ने कई क्षेत्रों को आपदा के प्रति और अधिक संवेदनशील बना दिया है।
जैसे-जैसे मानसून आगे बढ़ रहा है, सभी संकेत इस ओर इशारा करते हैं कि सबसे बुरा शायद अभी आना बाकी है।