
एक हालिया अध्ययन में पता चला है कि लक्षद्वीप की प्रवाल भित्तियां (कोरल रीफ) पिछले 24 वर्षों में आधी खत्म हो गई हैं। 24 साल के इस अध्ययन में मौजूदा हालात के लिए समुद्री हीटवेव को जिम्मेदार ठहराया गया है।
यह अध्ययन 17 जुलाई, 2025 को डायवर्सिटी एंड डिस्ट्रीब्यूशंस पत्रिका में प्रकाशित हुआ है। इसे भारत और स्पेन के शोधकर्ताओं ने मिलकर किया है। अध्ययन के अनुसार, भले ही समय के साथ प्रवाल की मृत्यु दर में कमी आई हो, लेकिन तब इनकी रिकवरी की क्षमता घट गई है, जब उन्हें लंबे समय तक बिना किसी व्यवधान के पुनः उभरने का मौका नहीं मिला। यह जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए तत्काल वैश्विक कार्रवाई की आवश्यकता को दर्शाता है।
वैज्ञानिकों ने डाउन टू अर्थ को बताया कि भारत के तटीय इलाकों में कोरल ब्लीचिंग की मार सबसे अधिक लक्षद्वीप ने झेली है। लक्षद्वीप केंद्र शासित प्रदेश में 12 प्रवाल द्वीप हैं। शोधकर्ताओं ने इनमें से तीन अगत्ती, कदमत और कवरत्ती की 12 रीफ साइटों से 1998 से 2022 तक प्रवाल की स्थिति पर नजर रखी। अध्ययन अवधि के दौरान लक्षद्वीप ने तीन प्रमुख समुद्री हीटवेव 1998, 2010 और 2016 में झेली। जलवायु घटना एल नीनो साउदर्न ऑस्सीलेशन (ईएनएसओ), खासकर अल नीनो ने समुद्र की सतह के तापमान को बढ़ाकर प्रवाल भित्तियों की ब्लीचिंग को बढ़ाने का काम किया।
डिग्री हीटिंग वीक (डीएचडब्ल्यू) वह माप है जो बताता है कि कितने समय तक और कितनी अधिक समुद्र की सतह का तापमान कोरल ब्लीचिंग की सीमा से ऊपर रहा। 1998 में डीएचडब्ल्यू 5.3, 2010 में 6.7 और 2016 में 5.2 यानी 2010 सबसे गंभीर था। जीवित प्रवाल की मात्रा 1998 में औसतन 37.24 प्रतिशत थी, जो 2022 में घटकर 19.06 प्रतिशत रह गई। हालांकि, 2016 की हीटवेव के दौरान केवल 1.8 प्रतिशत की औसत गिरावट देखी गई जो पहले की घटनाओं की तुलना में कम है, जब 28 प्रतिशत तक की गिरावट देखी गई थी।
लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि प्रवाल हीटवेव के प्रति अनुकूल हो गए हैं। दरअसल, शोधकर्ताओं ने सुझाव दिया कि हीट-संवेदनशील प्रवाल की कई प्रजातियां पहले ही समाप्त हो चुकी हैं, इसलिए खत्म होने के लिए कम ही प्रवाल बचे थे।
अध्ययन में बताया गया कि अब जो प्रवाल बचे हैं वे “तनाव सहन करने वाली” प्रजातियां हैं जैसे पोराइट्स। साथ ही आइसोपोरा, फेबिया, पोलिसोपोरा और गोनियापोरा जैसी मिश्रित संरचनाएं भी मौजूद हैं।
एक महत्वपूर्ण खोज यह रही कि प्रवाल भित्तियां तभी तेजी से रिकवर कर पाती हैं जब दो ब्लीचिंग घटनाओं के बीच कम से कम छह वर्षों का अंतर हो। 2010 और 2016 के बीच जैसे कम अंतराल में तेजी से बढ़ने वाली एबरोपोरा जैसी प्रजातियां भी ठीक से उभर नहीं पाईं।
यह अध्ययन पूर्वानुमान का ढांचा प्रदान करता है, जो लक्षद्वीप जैसे क्षेत्र में संरक्षण की योजना बनाने में मदद कर सकता है, जहां कोई औपचारिक प्रवाल प्रबंधन नीति मौजूद नहीं है।
शोधकर्ताओं का मानना है कि यह जानना जरूरी है कि कौन-सी प्रवाल भित्तियां सबसे अधिक संकट में हैं और कौन-सी बेहतर तरीके से रिकवर कर सकती हैं ताकि संरक्षण और पुनर्स्थापन की प्राथमिकताएं तय की जा सकें।
लेकिन लेखकों ने यह भी स्पष्ट किया कि स्थानीय स्तर की कार्रवाई की अपनी सीमाएं हैं। उनके अनुसार, “अंततः जलवायु संकट की वैश्विक पहुंच का सामना वैश्विक और स्थानीय दोनों स्तरों पर समुचित उपायों से ही किया जा सकता है।”
वे चेतावनी देते हैं कि यहां तक कि सबसे सहनशील प्रवाल समुदाय भी लगातार बढ़ती हीटवेव्स को अनंत समय तक सहन नहीं कर सकते।