16 साल की ग्रेटा थनबर्ग के रोषपूर्ण भाषण के बाद एक बार फिर से दुनिया भर में जलवायु परिवर्तन को लेकर गंभीर चर्चा शुरू हो गई है। हालांकि इस पर बात दिसंबर 2015 से शुरू हो गई थी और दुनिया भर के देशों ने आपस में समझौता किया था। भारत ने भी इस पर हस्ताक्षर किए हैं। आइए, पेरिस समझौते से जुड़े दस प्रमुख सवालों के जवाब जानते हैं :
सीओपी क्या है?
जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र के ढांचे यानी यूएनएफसीसीसी में शामिल सदस्यों का सम्मेलन कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टिज (सीओपी) कहलाता है। ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को स्थिर करने और पृथ्वी को जलवायु परिवर्तन के खतरे बचने के लिए सन 1994 में यूएनएफसीसीसी का गठन हुआ था। वर्ष 1995 से सीओपी के सदस्य हर साल मिलते रहे हैं। साल 2015 तक यूएनएफसीसीसी में सदस्य देशों की संख्या 197 तक पहुंच गई।
सीओपी-21 समझौता क्या है?
दिसंबर 2015 में पेरिस में हुई सीओपी की 21वीं बैठक में कार्बन उत्सर्जन में कटौती के जरिये वैश्विक तापमान में वृद्धि को 2 डिग्री सेल्सियस के अंदर सीमित रखने और 1.5 डिग्री सेल्सियस के आदर्श लक्ष्य को लेकर एक व्यापक सहमति बनी थी। इस बैठक के बाद सामने आए 18 पन्नों के दस्तावेज को सीओपी21 समझौता या पेरिस समझौता कहा जाता है। अक्तूबर, 2016 तक 191 सदस्य देशों ने इस समझौते पर हस्ताक्षर कर दिए। यानी अधिकांश देश ग्लोबल वार्मिंग पर काबू पाने के लिए जरूरी तौर-तरीके अपनाने पर राजी हो गए। जो एक बड़ी उपलब्धि माना गया।
इस समझौते का क्या महत्व है?
पेरिस संधि पर शुरुआत में ही 177 सदस्यों ने हस्ताक्षर कर दिए थे। ऐसा पहली बार हुआ जब किसी अंतरराष्ट्रीय समझौते के पहले ही दिन इतनी बड़ी संख्या में सदस्यों ने सहमति व्यक्त की। इसी तरह का एक समझौता 1997 का क्योटो प्रोटोकॉल है, जिसकी वैधता 2020 तक बढ़ाने के लिए 2012 में इसमें संशोधन किया गया था। लेकिन व्यापक सहमति के अभाव में ये संशोधन अभी तक लागू नहीं हो पाए हैं।
जलवायु परिवर्तन पर सहमति बनाने में इतना समय क्यों लगा?
पिछले 22 सालों से सीओपी बैठकों में विवाद का सबसे बड़ा बिंदु सदस्य देशों के बीच जलवायु परिवर्तन से निपटने की जिम्मेदारी और इसके बोझ के उचित बंटवारे का रहा है। विकसित देश भारत और चीन जैसे विकासशील देशों पर वैश्विक उत्सर्जन बढ़ाने का दोष लगाते हुए कार्बन उत्सर्जन में वृद्धि की अपनी ऐतिहासिक जिम्मेदारी से बचते रहे हैं, जबकि आज भी विकासशील और विकसित देशों के बीच प्रति व्यक्ति काबर्न उत्सर्जन में बड़ा अंतर है।
इस समझौते में सदस्य देशों की क्या भूमिका है?
कार्बन उत्सर्जन और ग्लोबल वार्मिंग को काबू में रखने के लिए पेरिस सम्मेलन के दौरान सदस्य देशों ने अपने-अपने योगदान को लेकर प्रतिबद्धता जताई थी। हरेक देश ने स्वेच्छा से कार्बन उत्सर्जन में कटौती के अपने लक्ष्य पेश किए थे। ये लक्ष्य न तो कानूनी रूप से बाध्यकारी हैं और न ही इन्हें लागू कराने के लिए कोई व्यवस्था बनी है।
यह समझौता भारत को कैसे प्रभावित करेगा?
भारत जलवायु परिवर्तन के खतरों से प्रभावित होने वाले देशों में से है। साथ ही कार्बन उत्सर्जन में कटौती का असर भी भारत जैसी तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं पर सबसे अधिक पड़ेगा। साल 2030 तक भारत ने अपनी उत्सर्जन तीव्रता को 2005 के मुकाबले 33-35 फीसदी तक कम करने का लक्ष्य रखा है। इसके लिए कृषि, जल संसाधन, तटीय क्षेत्रों, स्वास्थ्य और आपदा प्रबंधन के मोर्चे पर भारी निवेश की जरूरत है। पेरिस समझौते में भारत विकासशील और विकसित देशों के बीच अंतर स्थापित करने में कामयाब रहा है। यह बड़ी सफलता है।
यह समझौता कब अस्तित्व में आया?
पेरिस समझौते के लागू होने के लिए 2020 को आधार वर्ष माना गया है। यूरोपीय संघ ने 5 अक्टूबर 2016 को पेरिस समझौते को मंजूरी दी। यह समझौता नवंबर, 2016 को औपचारिक रूप से अस्तित्व में आ गया।
क्या भारत ने समझौते की पुष्टि की है?
हां, भारत ने 2 अक्टूबर, 2016 को समझौते पर हस्ताक्षर कर दिए। अमेरिका और चीन ने पहले समझौते को स्वीकार नहीं किया था, लेकिन बाद में ये देश भी तैयार हो गए।
क्या यह समझौता जलवायु परिवर्तन से निपटने में सक्षम है?
पेरिस समझौता सही दिशा में एक बड़ी पहल है। हालांकि, यह समझौता बहुत सीमित और देरी से उठाया गया कदम है। कार्बन डाइऑक्साइड का स्तर पूर्व औद्योगिक स्तर की तुलना में 30 प्रतिशत बढ़ चुका है। इस समझौते की एक प्रमुख आलोचना है कि यह जलवायु परिवर्तन के पहले से दिखाई पड़ रहे प्रभावों को नजरअंदाज करते हुए अब भी इसे भविष्य के खतरे के तौर पर देखता है। आलोचकों ने इस मुद्दे को भी उठाया कि यह समझौता कार्बन उत्सर्जन रोकने के उपायों को पर तो जोर देता है लेकिन इन उपायों को प्रभावी ढंग से लागू करने की व्यवस्था सुनिश्चित नहीं करता।
सीओपी की बैठक में बातचीत का मुख्य मुद्दा क्या होता है?
सीओपी में जलवायु परिवर्तन का सामना कर रहे देशों के लिए वित्त जुटाने पर विचार-विमर्श होता है। जलवायु परिवर्तन के हिसाब से ढलने के लिए देशों के पास पर्याप्त फंड उपलब्ध नहीं हो पा रहा है।
प्रस्तुति : श्रीशन वेंकटेश