तेजी से बढ़ रही हिमनदीय झील से मंडराया कारगिल-कश्मीर बॉर्डर पर दोहरा खतरा
हिमालय, ध्रुवीय क्षेत्रो को छोड़ कर, पृथ्वी पर सबसे बड़ा बर्फ का भंडार है, जिसमें 10 हजार से ज्यादा छोटे बड़े हिमनद (ग्लेशियर) है, जिस कारण से इसे तीसरा ध्रुव भी कहा जाता है।
इंडस, गंगा, और ब्रह्मपुत्र नदियां हिमालय के इन्हीं हिमनदों से निकलती हैं और हिमालय के साथ-साथ इन नदियों के निचले क्षेत्रों में रहने वाले लगभग 50 करोड़ लोगों की आजीविका इन पर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप पर निर्भर करती है।
लेकिन जलवायु परिवर्तन के कारण हिमालय के ग्लेशियर लगातार पिघलते जा रहे है और नदियों के जल प्रवाह को प्रभावित कर रहे है। इसके साथ ही साथ पिघलते ग्लेशियर, हिमालय क्षेत्रों मे रहने वालों के लिए भी खतरा बनते जा रहे हैं, जिसमे हिमस्खलन (एवलांच) और ग्लेशियर झील के फटने से बाढ़ (ग्लेशियल लेक आउटब्रस्ट फ्लड) जैसी घटनाएं प्रमुख हैं।
ग्लेशियर क्षेत्र में विभिन्न प्रकार की झीलें, जैसे मोरेन डैम, सर्क, लैटरल बेसिन, सुप्राग्लैसिअल, प्रोग्लेसिअल आदि पाई जाती हैं परन्तु सभी झीलें खतरनाक नहीं होती है और यह समय के साथ बनती और खत्म होती रहती हैं।
ग्लेशियर के मुहाने पर इसके द्वारा लाए गए मलबे के रुकने से बनी झील को प्रोग्लेसिअल मोरेन डैम झील कहते है और यह ग्लेशियर के पास रहने वाली आबादी के लिए सबसे खतरनाक होती है। इसरो के अध्यन के अनुसार हिमालय में वर्ष 2016 -17 में 10 हेक्टेयर से बड़ी लगभग 2431 ग्लेशियर झीले थी।
रिपोर्ट बताती हैं कि इनमे से 676 झीलों का क्षेत्रफल पिछले तीन दशकों (1984-2023 ) में दोगुने का इजाफा हुआ है; जिनमें से सबसे अधिक (307) मोरेन डैम झीले ही है। साल 2023, अक्टूबर में सिक्किम के साउथ लोनक ग्लेशियर झील, जो एक मोरेन डेम्ड झील है, के फटने से तीस्ता नदी में प्रयलंकार बाढ़ आयी थी जिसमे 200 से अधिक लोगोंं को अपनी जान गंवानी पड़ी थी और चांगथांग जैसे बड़े बांध के साथ- साथ अनेको पुल और सड़कें तबाह हो गई थी।
कश्मीर-कारगिल हिमालय बॉर्डर क्षेत्र पर भी एक ऐसी ही प्रोग्लेसिअल मोरेन डैम झील लामो ग्लेशियर के मुहाने पर 4100 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। लामो ग्लेशियर झील से निकलने वाली नदी, चेलोंग नदी के नाम से जानी जाती है और यह नदी कारगिल से 60 किमी दूर राष्ट्रीय राजमार्ग 301 पर पानीखर गांव (ऊंचाई - 3250 मीटर) में सुरु नदी से मिलती है।
लामो ग्लेशियर झील का क्षेत्रफल पिछले ढाई दशकों में 0.026 (1990 ) वर्ग किमी से बढ़कर 0.52 (2024 ) वर्ग किमी, लगभग 56% की अप्रत्याशित दर से बढा है। सबसे अधिक परिवर्तन (0.14 वर्ग किमी) वर्ष 2010 से 2016 के बीच देखने को मिला है। झील के बढ़ने का मुख्य कारण ग्लोबल वार्मिंग है।
इसका बढ़ता हुए आकार के कारण पानीखर गांव में चेलोंग नदी के किनारे बसे लोगों पर सर्वाधिक खतरा मंडरा रहा है। झील के फटने की स्थिति में चेलोंग नदी के दोनों ओर बने घर, होटल, दुकान समेत पांच छोटे बड़े पुल, राष्ट्रीय राजमार्ग 301 बाढ़ की जद में आ सकते हैं।
अगर झील टूटती है तो इसका असर पानीखर की कृषि भूमि के साथ साथ पनकीखर से लगे कारगी गांव को भी प्रभावित कर सकता है। इतना ही नहीं, लामो झील फटने से सुरु नदी में पानी का बढ़ा हुआ स्तर पनिखर से 30 किमी दूर संकू भी देखा जा सकेगा।
इस झील के बढ़ने से पानीखर गांव पर खतरा तो है ही, इसके साथ ही सुरु घाटी से कश्मीर घाटी को जोड़ने वाला लोमविलाड़ पास (दर्रा) भी बंद होने की दहलीज पर खड़ा है। यह पास सुरु घाटी के पानीखर गांव से शुरू होकर कश्मीर के वरवान घाटी के सुखनई को जोड़ता है।
गर्मियों के मौसम में यह पास ट्रेकिंग में रूचि रखने वालो से भरा रहता है। ट्रेकर्स के साथ जम्मू-कश्मीर के बकरवाल समुदाय (भेड़ -बकरी-खच्चर का व्यवसाय करने वाले) के लोग अपने पशुओ को लेकर बहुतायत संख्या में आते है।
मैती गांव के ट्रेकिंग गाइड का काम करने वाले मोहम्मद इलियास बताते है कि वह हर साल 5 से 10 लोगो के ग्रुप को लेकर लगभग 10 बार आते है। इसी बात को आगे बढ़ाते हुए वह बताते है कि लगभग 1000-1100 टूरिस्ट (गाइड और ट्रैकर्स) और 30-40 बकरवाल अपनी 5000 से 8000 भेड़ बकरिया इस पार से उस पार आते जाते हैं।
भेड़ बकरी पालन बकरवाल समुदाय मुख्य व्यवसाय है। आज से कई दशक पहले जब कश्मीर -कारगिल-लद्दाख मोटर मार्ग वर्तमान स्वरुप में नहीं था तब लद्दाख से कश्मीर जाने का पौराणिक पैदल मार्ग हुआ करता था।
इतना ही नहीं, यह पास पूर्व में सेना द्वारा भी प्रयोग में लाया जाता रहा है। हिमालयन जर्नल में लोमविलाड़ पास को वर्ष 1930 के आस-पास नुन-कुन पर्वतारोहियो द्वारा प्रयुक्त करने का जिक्र भी मिलता है। परन्तु वर्तमान में तेजी से पिघलते लामो ग्लेशियर और बढ़ती झील से सुलभ पैदल मार्ग न होने की वजह से यह ऐतिहासिक पास बंद होने की कगार पर है।
ट्रैकर्स मिडोज के नाम से ट्रैकिंग कंपनी चलने वाले सदाकत और नबी बताते है कि झील के एक किनारे पर मिट्टी पत्थर से ढ़की हुई बर्फ पार करते हुए साल 2022 में 1 यात्री और 1 खच्चर झील में गिर चुके है। अगर यह पास पूरी तरह से बंद हो जाता है तो ट्रैक गाइड और बकरवाल व्यवसायियों की आजीविका पर गहरा प्रभाव पड़ेगा।
बीते साल 2024 के अगस्त महीने में आईआईटी मद्रास (चेन्नई), आईआईटी (रूड़की), इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस एजुकेशन एंड रिसर्च (आईआईएसइआर) पुणे और कश्मीर यूनिवर्सिटी की 9 वैज्ञानिकों की सयुंक्त टीम ने लामो ग्लेशियर झील के आस -पास के क्षेत्र का जायजा लिया और महत्वपूर्ण डाटा संकलित किया।
आईआईटी मद्रास के जियोफिजिकल फ़्लोज लैब में प्रोफेसर मणिकंदन माथुर, प्रोफेसर चन्दन सारंगी और प्रोफेसर भरत गोबिंदराजन के साथ काम करने वाले पोस्टडाक्टरल फेलो डॉक्टर आदित्य मिश्रा (लेखक) ने अपने और अन्य वैज्ञानिकों के भ्रमण पर विस्तार से चर्चा की।
जलवायु परिवर्तन से हो रहे ग्लेशियर में होने वाले बदलावों को देखने के लिए रिसर्च टीम का उद्देश्य जमीनी हकीकत को जानना था, जो कि सेटेलाइट चित्रों द्वारा संभव नहीं है और उसके आधार पर भविष्य में प्रभावी शोध को आगे बढ़ाना था।
इस टीम के द्वारा वायु तापमान, ऐरोसोल (हवा में विद्यमान धुल-मिट्टी के कण), ड्रोन सर्वे तथा लामो झील से निकलने वाले पानी का मापन किया गया। आईआईटी (रूडकी) के प्रोफेसर सौरव विजय ने लामो ग्लेशियर और झील में होने वाले बदलाव को लगातार नापने के लिए टेरेस्टियल कैमरा स्थापित किया है जो पूरे साल भर फोटो लेता रहेगा।
इन फोटोओं को वह वर्ष 2025 की फील्ड ट्रिप में देख पाएंगे। कश्मीर यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर इरफान रशीद का उद्देश्य लामो ग्लेशियर के मास बैलेंस और भूभौतकीय विधि द्वारा झील की गहराई को नापना है।
प्रोफेसर अर्घा बनर्जी (आईआईएसइआर पुणे) ने विस्तार पूर्वक समझाया कि उनका उद्देश्य विभिन्न विधियों द्वारा इस क्षेत्र का उत्तम श्रेणी के डाटा को एकत्रित करके जलवायु परिवर्तन के कारण भविष्य में ग्लेश्यिर और झील की स्थिति को अध्यन करना है।
इसके साथ ही उन्होंने यह भी बताया कि उनका मकसद झील के फटने की दशा में होने वाले नुकसान का पूर्वानुमान करना और दुष्प्रभावों का आंकलन करना भी है जिससे पानीखर गांव के आस-पास जानमाल का कम से कम नुकसान हो।
अंततः स्थानीय प्रशासन द्वारा व्यापक जागरकता अभियान चलाया जाना चाहिए जिससे पानीखर गांववासी झील में हो रहे बदलावों से अवगत और चेलोंग नदी के किनारों पर निर्माण से पहले से जागरूक और सचेत रहेंं। राज्य आपदा प्रबंधन और प्रशासन झील की आधुनिक तकनीकि से निगरानी और पूर्व चेतावनी प्रणाली (अर्ली वार्निंग सिस्टम) नितांत आवश्यकता है जिससे झील के फटने की स्थिति में अधिकाधिक लोगो की जान बचाई जा सके।