डोनाल्ड ट्रंप अब संयुक्त राज्य अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति हैं और आखिरकार अब आप चैन की सांस ले सकते हैं। नए चुने गए राष्ट्रपति जो बाइडन और उनकी उपराष्ट्रपति कमला हैरिस ने कहा है कि वे पेरिस में हुए जलवायु परिवर्तन समझौते की शर्तों को मानेंगे।
इसलिए धरती के लिए सबसे बड़े खतरे को नकार देना अब बीते जमाने की बात हो गई है। अब हमें दृढ़ता से आगे बढ़कर काम करने होंगे। हमें ऐसी उम्मीद भी है।
यही वह समय है जब हमें यथार्थवाद की एक खुराक की सख्त जरूरत है।
मैं बाइडेन-हैरिस की जीत को कम करके नहीं आंक रही हूं, बल्कि मेरा उद्देश्य केवल भविष्य में आनेवाली कठिनाइयों की ओर ध्यान आकर्षित करना है। हमारी धरती पूरी गति से एक जलवायु परिवर्तन जनित प्रलय की ओर अग्रसर है। अब आधे-अधूरे कदम उठाने का समय नहीं रहा।
हमें बाइडन-हैरिस की जीत पर आत्मनिरीक्षण करने की आवश्यकता है। वे जीत चुके हैं यह सच है लेकिन ट्रंपवाद का अंत नहीं हुआ है, यह भी उतना ही बड़ा सच है। लगभग आधे अमेरिकियों ने ट्रंप के समर्थन में मतदान किया है और यह चुनाव अमरीका के बाहर से देख रहे हम जैसे अधिकांश लोगों के लिए यह चौंकाने वाली बात है।
ट्रंप कोविड महामारी के प्रसार को रोकने में असफल तो साबित हुए ही हैं, साथ ही साथ उन्होंने जलवायु परिवर्तन को नकारा है और लिंग व नस्ल संबंधी विवादों को भी बढ़ावा दिया। इसके बावजूद ट्रंप को 2020 में 2016 की तुलना में अधिक मत प्राप्त हुए। हमें यह याद रखने की जरूरत है।
अमेरिका एक बटा हुआ मुल्क है, उसकी बुनियाद में गहरी दरारें हैं और लगभग अमेरिका की आधी आबादी यही चाहती है। आप कह सकते हैं कि बाइडन -हैरिस इसलिए जीते, क्योंकि उन्होंने कहा कि वे वायरस को नियंत्रित करेंगे; वे मास्क पहनने की आवश्यकता पर वैज्ञानिक सलाह सुनेंगे और जरूरत पड़ने पर लॉकडाउन लगाएंगे।
लेकिन इन सब के बावजूद लोगों ने ट्रंप को वोट दिया, जिसका साफ मतलब है कि जनता को इन चीजों की कोई परवाह नहीं। उनका मानना है कि अर्थव्यवस्था वायरस से ज्यादा महत्वपूर्ण है। आप यह तर्क दे सकते हैं कि वायरस भेदभाव नहीं करता है, लेकिन यह गरीब लोगों को अधिक प्रभावित करता है, इससे इनकार नहीं किया जा सकता लेकिन वे सुनना ही नहीं चाहते।
मैं यह भी स्पष्ट कर दूं कि इस बार अमरीका में चुनाव के मुख्य मुद्दों में से एक जलवायु परिवर्तन था। यह मुद्दा बहस का केंद्र था और ऐसा ट्रंप ने स्वयं सुनिश्चित किया था। वे इस “नकली” विज्ञान का पुरजोर विरोध करते हुए दिखे।
उन्होंने कोयले के इस्तेमाल को लेकर अपनी प्रतिबद्धता जाहिर की और “मेड इन यूएसए” का नारा देकर अमरीका में इसके उत्पादन को बढ़ावा दिया। जंगल की भयानक आग व चक्रवाती तूफानों से हुए नुकसान के बावजूद ट्रंप ने अपना ध्यान जलवायु विज्ञान की खिलाफत पर केंद्रित रखा।
उनका मानना था कि अमरीकी अर्थव्यवस्था के लिए यह जरूरी है। उनके समर्थकों ने यह सब साफ-साफ देखा होगा। हमें अपनी आंखों पर चढ़ा गुलाबी चश्मा उतारना होगा कि “सब कुछ ठीक है”। जहां तक जलवायु कार्रवाई का संबंध है, अमेरिका हमेशा से ही एक पाखण्डी राष्ट्र रहा है।
पेरिस समझौते के तहत उसके स्वयं के लिए तय किए गए मामूली लक्ष्य इस बात के प्रमाण हैं। हां, यह और बात है कि बाइडन-हैरिस जलवायु परिवर्तन को नकारने की बजाय कम से कम कुछ तो करेंगे, लेकिन यह केवल इसलिए है, क्योंकि ट्रंपवाद हमें उतना नीचे तक ले गया है जिसकी हमने पहले कभी कल्पना नहीं की थी।
हालांकि यह ठीक है कि ट्रंप एक मामले में सही (और पूरी तरह से गलत) भी हैं। वह कहते हैं कि उनके देश का ऊर्जा उत्सर्जन उनके कार्यकाल के दौरान सबसे कम था, यह सही है। पिछले एक दशक में अमेरिकी ऊर्जा क्षेत्र के उत्सर्जन में 30 प्रतिशत की भारी गिरावट आई है।
इस बदलाव का मुख्य कारण बाजार के कारक थे, जिनके फलस्वरूप ऊर्जा उत्पादन के लिए कोयले की बजाय शेल व प्राकृतिक गैस को प्रयोग में लाया जाने लगा। निजी शोध फर्म रोडियम ग्रुप के आंकड़ों के मुताबिक, अकेले पिछले साल ही कोयला आधारित बिजली उत्पादन में 18 फीसदी की गिरावट आई थी। हालांकि अच्छी खबर का यहीं पर अंत हो जाता है।
दरअसल हुआ यह कि कोयले की जगह पर सस्ती शेल गैस का प्रयोग तेजी से बढ़ा और इसने अक्षय ऊर्जा के उत्पादन में हो रही वृद्धि को भी पीछे छोड़ दिया। वर्तमान में गैस के मूल्य रिकॉर्ड निचले स्तर पर हैं।
यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि बाइडन ने अपनी डिप्टी के न्यू ग्रीन डील अजेंडा से हटकर राय जाहिर करते हुए कहा है कि वे निजी भूमि (जहां गैस का अधिकांश हिस्सा पाया जाता है) पर निकाली जा रही शेल गैस की प्रक्रिया को नहीं रोकेंगे। लेकिन इससे भी बड़ी समस्या यह है कि अमेरिकी अर्थव्यवस्था के अन्य क्षेत्र अब प्रदूषणकारी कोयले के इस्तेमाल में आई कमी से होने वाले लाभ को उलट रहे हैं। परिवहन क्षेत्र के उत्सर्जनों के मामले में ऊर्जा क्षेत्र से आगे निकल गया है और औद्योगिक क्षेत्र का उत्सर्जन भी बढ़ा है।
लब्बोलुआब यह है कि भले ही वर्ष 2019 में अमेरिकी उत्सर्जन कुछ 2 प्रतिशत कम हो गया और 2005 की आधारभूत रेखा के अनुसार 12.3 प्रतिशत की गिरावट आई हो, लेकिन यह देश अभी भी अपने लक्ष्यों से कोसों दूर है।
कोपेनहेगन समझौते के अनुसार अमरीका को अपने उत्सर्जन को 2020 के अंत तक 2005 के स्तर से 17 प्रतिशत नीचे व पेरिस समझौते के अनुसार 2025 तक 2005 के स्तर से 26-28 प्रतिशत नीचे लाना था।
वास्तव में 2019 में कुल अमेरिकी ग्रीनहाउस उत्सर्जन, 2016 (जब ट्रंप राष्ट्रपति बने थे ) के स्तर से अधिक था। उत्सर्जन की मात्रा में आगे गिरावट लाना मुश्किल है और यह चिंता की बात है। यह केवल ट्रंप के वोट शेयर में वृद्धि के कारण नहीं है, इसका कारण यह है कि उत्सर्जन में कटौती का कोई तेज और परिवर्तनकारी समाधान नहीं है।
हालांकि अमरीका अब कोयले का आदी नहीं रहा, लेकिन यह देश सस्ती ऊर्जा का पुजारी है। साथ ही अमरीका आर्थिक महाशक्ति की अपनी भूमिका को चीन के कब्जे से वापस लेना चाहता है।
इसका मतलब होगा औद्योगिक विकास के लिए अधिक ईंधन जलाना और अधिक ऊर्जा का उपयोग करना जो स्वच्छ ईंधन के सभी लाभों को नकार देगा। इसलिए यह समझने की जरूरत नहीं है कि अब बाइडन-हैरिस सत्ता में हैं तो सब ठीक हो जाएगा। अब समय आ गया है कि हम उन्हें इस राह पर चलने की बजाय दौड़ने को मजबूर करें।