दिल्ली में कार्यरत पर्यावरण कानून मामलों के जानकार और अधिवक्ता ऋत्विक दत्ता

जलवायु परिवर्तन पर अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय की राय: भारत के लिए क्या संदेश?

दिल्ली में कार्यरत पर्यावरण कानून मामलों के जानकार और अधिवक्ता ऋत्विक दत्ता से विवेक मिश्रा की बातचीत...
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जलवायु परिवर्तन पर अंतरराष्ट्रीय न्यायालय के हालिया आदेश को किस रूप में देखा जाए?

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यह राय केवल परामर्शात्मक है फिर भी इसे अंतरराष्ट्रीय पर्यावरण कानून में एक ऐतिहासिक कदम माना जा रहा है। न्यायालय ने स्पष्ट कहा कि राज्यों की सबसे बड़ी जिम्मेदारी है कि वे जलवायु प्रणाली और पर्यावरण के अन्य हिस्सों को गंभीर नुकसान से बचाएं। इस कथन के कई स्तर हैं। पहला, राज्यों को जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए जलवायु प्रणाली को होने वाले नुकसान को रोकना होगा। दूसरा, उन्हें पर्यावरण के अन्य हिस्सों की रक्षा करनी होगी। तीसरा, यह रोकथाम केवल कार्बन उत्सर्जन तक सीमित नहीं है, बल्कि व्यापक रूप से गंभीर नुकसान रोकने से जुड़ी है। इस राय ने जलवायु परिवर्तन की बहस को केवल कार्बन और उत्सर्जन की संकीर्ण परिधि से निकालकर व्यापक पारिस्थितिक तंत्र और अधिकार आधारित दृष्टिकोण की ओर मोड़ दिया है।

यह राय जलवायु परिवर्तन और जलवायु प्रणाली की रक्षा से जुड़े विधिक ढांचे को स्पष्ट करती है। न्यायालय ने अंतरराष्ट्रीय कानून की केंद्रीय भूमिका पर जोर देते हुए कहा कि गंभीर नुकसान न पहुंचाने का सिद्धांत और सहयोग की बाध्यता दोनों ही अंतरराष्ट्रीय प्रथागत कानून के तहत कानूनी दायित्व और दुष्परिणाम तय करते हैं। अदालत ने तीन प्रकार के राज्यों का उल्लेख किया है, इनमें पहले वो हैं जो जलवायु परिवर्तन से प्रभावित हैं, दूसरे जो आहत हुए हैं और तीसरे जो विशेष रूप से प्रभावित व अत्यधिक संवेदनशील हैं। हालांकि, यह ध्यान देना जरूरी है कि संयुक्त राष्ट्र ने जो प्रश्न न्यायालय को भेजा था वह सीमित था, यानी केवल अंतरराष्ट्रीय कानून के तहत राज्यों की जिम्मेदारियों तक। इसलिए न्यायालय ने अपने विचार अंतरराष्ट्रीय संधियों और प्रथागत कानून तक सीमित रखे। न्यायालय ने यह भी कहा कि वह कानून बनाने वाला निकाय नहीं है, इसलिए भविष्य के किसी कानून की कल्पना नहीं कर सकता।

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भारत पर इस राय का क्या प्रभाव होगा?

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इसका असर इस बात पर निर्भर करेगा कि भारत की सरकार और नागरिक समाज इसे कितनी गंभीरता से लेते हैं। यह राय जलवायु समझौतों और अन्य पर्यावरणीय संधियों के बीच संबंध को स्पष्ट करती है। अब पेरिस समझौते जैसे जलवायु समझौतों को जैव विविधता सम्मेलन, मरुस्थलीकरण से निपटने का सम्मेलन और मानवाधिकार संधियों जैसे बाल अधिकार सम्मेलन के साथ पढ़ा जाना होगा। यह भारत जैसे देशों के लिए महत्वपूर्ण संदेश है जो जलवायु परिवर्तन को केवल उत्सर्जन की दृष्टि से देखते हैं। न्यायालय ने यह रेखांकित किया है कि पारिस्थितिकीय संरक्षण के उपाय जलवायु परिवर्तन से निपटने के उपाय भी हो सकते हैं। इससे भारत को अपनी कुछ नवीकरणीय ऊर्जा योजनाओं पर पुनर्विचार करना पड़ सकता है, क्योंकि वे अक्सर स्थानीय पारिस्थितिकी और समुदायों के अधिकारों की अनदेखी करती हैं। यह राय भारत में पर्यावरण न्यायशास्त्र के विकास का कारण बन सकती है। भारत की अदालतें अब भी 1970 के स्टॉकहोम सम्मेलन के बाद के सिद्धांतों पर आधारित हैं, जब जलवायु परिवर्तन कोई केंद्रीय मुद्दा नहीं था।

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क्या भारतीय अदालतें जलवायु परिवर्तन से जुड़ी याचिकाओं पर सीधे फैसले देती हैं? भारत में इसका क्या कानूनी ढांचा है?

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भारत में जलवायु परिवर्तन केवल एक सजावटी शब्द भर है। न्यायिक फैसलों में इसका वास्तविक प्रभाव नहीं दिखता। नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल के कई निर्णयों में जलवायु परिवर्तन का जिक्र मुश्किल से मिलता है। अगर मिलता भी है तो केवल टिप्पणी के रूप में ना कि निर्णय को प्रभावित करने वाले तत्व के रूप में। साल 2024 में एम. के. रंजीतसिंह बनाम भारत सरकार के ऐतिहासिक फैसले में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि प्रत्येक नागरिक को जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल प्रभावों से मुक्त रहने का अधिकार है। परंतु इस निर्णय का कोई वास्तविक असर अदालतों की कार्यप्रणाली में नहीं दिखता। अदालतें अब भी अधिकतर वैधानिक उल्लंघनों पर ध्यान देती हैं, ना कि पारिस्थितिकी के विनाश के दीर्घकालिक प्रभावों पर। विकास और पर्यावरण के बीच संतुलन स्थापित करते समय प्रकृति ही अधिकतर हारती है।

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भारत में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष जलवायु याचिकाओं की क्या स्थिति है?

A

जलवायु मुकदमे भारत में एक मान्यता प्राप्त शब्द नहीं है। भारत की किसी भी अदालत, चाहे वह एनजीटी, उच्च न्यायालय या उच्चतम न्यायालय हो, उनमें जलवायु केंद्रित याचिकाओं का सीधा अस्तित्व नहीं दिखता। बार और बेंच दोनों स्तरों पर जलवायु परिवर्तन की समझ का अभाव है। अनुकूलन और शमन जैसे शब्द आज भी पर्यावरण याचिकाओं में अनुपस्थित हैं। हाल ही में एक अपवाद के रूप में राजस्थान उच्च न्यायालय का हीट एक्शन प्लान पर दिया गया निर्णय जरूर सकारात्मक संकेत है।

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क्या विकसित बनाम विकासशील देशों के तर्क से देश उत्तरदायित्व से बचने की कोशिश करेंगे?

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न्यायालय ने कहा है कि जलवायु प्रणाली की रक्षा की जिम्मेदारी एरगा ओम्नेस है, यानी यह सभी के प्रति उत्तरदायित्व है। जलवायु प्रणाली की रक्षा मानवता की साझा चिंता है और इसलिए यह प्रथागत अंतरराष्ट्रीय कानून का हिस्सा है। न्यायालय ने स्पष्ट किया है कि सभी राष्ट्र जलवायु संकट में योगदान करते हैं, कोई कम तो कोई अधिक और सभी प्रभावित होते हैं। इसलिए अब विकसित और विकासशील देशों की बहस से ऊपर उठकर वैश्विक दक्षिण के देशों को भी समझना होगा कि जलवायु कार्रवाई, विशेषकर पारिस्थितिकी की रक्षा, उनके अपने नागरिकों के हित में है।

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क्या न्यायालय की इस सलाह से जलवायु उत्तरदायित्व अंतरराष्ट्रीय कानून के दायरे में आ सकता है?

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अभी न्यायालय की प्रक्रिया सीमित है। केवल राज्य और संयुक्त राष्ट्र के निकाय ही वहां जा सकते हैं। नागरिकों या नागरिक संगठनों को वहां कोई सीधा अधिकार नहीं है। जब तक राष्ट्र स्वयं जलवायु परिवर्तन को गंभीरता से लेकर इसे कानूनी उल्लंघन के रूप में नहीं देखते, न्यायालय की राय से सीधे कोई कानूनी परिणाम निकलने की संभावना कम है।

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भारत और वैश्विक समुदाय के लिए आगे का रास्ता क्या होना चाहिए?

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न्यायालय की राय ने मानक आचरण, उचित परिश्रम, हर्जाना, मुआवजा और पुनर्स्थापना जैसे सिद्धांतों को रेखांकित किया है, जिनके लिए विस्तृत नियम और प्रक्रियाएं विकसित करनी होंगी। भारत में अभी जलवायु परिवर्तन का कोई विशेष कानून नहीं है। लेकिन समाधान नया कानून बनाने में नहीं, बल्कि यह देखने में है कि हम जलवायु संबंधी सरोकारों को मौजूदा कानूनों, नीतियों और निर्णयों में कितनी प्रभावी रूप से समाहित कर सकते हैं।

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