पूरी दुनिया में मांस के बढ़ते उपभोग ने जमीनों पर अत्यधिक दबाव बढ़ा दिया है। संयुक्त राष्ट्र मरुस्थलीकरण रोकथाम कन्वेंशन (यूएनसीसीडी) की ओर से बहुत जल्द ही एक जारी होने वाली रिपोर्ट में यह बात कही गई है।
यूएनसीसीडी की ओर से शीघ्र ही ग्लोबल लैंड आउटलुक रिपोर्ट जारी की जाएगी। इसमें कहा गया है कि यदि प्रति दिन प्रति व्यक्ति मांस के 100 ग्राम उपभोग में महज 10 ग्राम की कटौती कर दे यानी 100 ग्राम के बजाए 90 ग्राम उपभोग करे तो न सिर्फ मानव स्वास्थ्य पर बेहतर प्रभाव पड़ेगा बल्कि जलवायु परिवर्तन की समस्या को कम करने में काफी मदद मिल सकती है।
रिपोर्ट में खाद्य सुरक्षा और कृषि संबंधित भाग में कहा गया है कि धरती के संसाधनों पर कई और कारक हैं जो दबाव बना रहे हैं। इन कारकों में संसाधनों का पूरी क्षमताओं के साथ और खराब तरीके से किया जाने वाला प्रबंधन शामिल है, जिससे अच्छी पैदावार नहीं हो रही। खाने की मांग और उसकी बर्बादी, खाने की आदतों में बदलाव, जमीनों के इस्तेमाल में प्रतिस्पर्धा, जमीन पर कब्जा और जलवायु परिवर्तन आदि शामिल हैं।
रिपोर्ट में कहा गया है कि कृषि के बढ़ते विस्तार के कारण प्राकृतिक पर्यावासों और प्रजातियों का नुकसान बढ़ रहा है। यह दुनिया ज्यादा पैदा कर रही है ताकि सबका पेट भरा जा सके लेकिन इसका अंतिम परिणाम खाद्य असुरक्षा ही होगा। एक अनुमान लगाया गया है कि जो भी हम पैदा कर रहे हैं दुनिया में उसका एक-तिहाई हिस्सा हर वर्ष बर्बाद हो जाता है। यदि इसे आंकड़ों में देखें तो 1.3 अरब टन खाना हर साल बर्बाद होता है जो कि 1.4 अरब हेक्टेयर भूमि पर उगाया गया था। अनाज उत्पादन का यह क्षेत्रफल चीन के क्षेत्रफल से भी बड़ा है। इतने अनाज उत्पादन के लिए करीब 250 घन किलोमीटर पानी का इस्तेमाल किया गया, जिसकी कीमत करीब 750 अरब डॉलर के बराबर होगी।
रिपोर्ट के मुताबिक यदि विश्व समुदाय इस बर्बादी को रोक सके तो 2050 तक खाद्य मांग के लिए अनुमानित उत्पादन को 60 फीसदी तक कम किया जा सकता है। रिपोर्ट में खान-पान की बदलती आदतों के बारे में भी बात की गई है। इसके मुताबिक मांस और फसल आधारित मवेशियों के चारे के लिए (अधिकांश अनाज और सोया) की मांग में 2050 तक 50 फीसदी की बढ़ोत्तरी अनुमानित है। मांस और जमीन आधारित अन्य गहन भोजन (सोय और पाम से प्रंस्सकृत) की बढ़ती हुई यह मांग जमीन की कमी और खाद्य असुरक्षा को बढ़ावा देगी।
1960 से अब तक वैश्विक मांस उपभोग दोगुना हो चुका है। रिपोर्ट के अनुसार 1967 से 2007 के बीच सुअर का उत्पादन 294 फीसदी, अंडे का उत्पादन 353 फीसदी और पोल्ट्री मांस का उत्पादन 711 फीसदी दर्ज किया गया है।
यदि इन तथ्यों को अन्य उपभोग जैसे पानी के उपभोग से जोड़ा जाए तो स्थिति और भी भयावह पैदा होती है। रिपोर्ट में इस तथ्य को रेखांकित किया गया है कि पौधा आधारित प्रति यूनिट पौष्टिक मूल्यों के समकक्ष मांस उत्पादन के लिए पांच गुना अधिक जमीन की जरूरत होगी।
मक्का, गेहूं और धान की प्रति टन पैदावार के लिए पानी का औसत उपभोग क्रमश: 900, 1300 और 3000 घन मीटर होता है जबकि चिकन, पोर्क (सुअर) और बीफ के लिए क्रमश: 3900, 4900 और 15,500 घन मीटर प्रति टन की जरूरत होगी।
रिपोर्ट में गौवंश से जुड़े मांस उत्पादन को लेकर कहा गया है कि सभी पशुधन में अक्षमता और जमीन उपयोग व प्रदूषण के लिहाज से यह बेहद खर्चीला है। गौवंश के लिए 28 गुना अधिक जमीन और 11 गुना अधिक पानी की जरूरत होगी। रिपोर्ट में मांस का उपभोग कम करने की सिफारिश की गई है। वहीं, यह भी गौर किया गया है कि यदि चराई और चारा फसलों को मिलाया जाता है, तो पशुधन उत्पादन लगभग 70 प्रतिशत कृषि भूमि के लिए होगा, जो शायद जैव विविधता के नुकसान का सबसे बड़ा चालक साबित हो। यह रिपोर्ट 6 सितंबर, 2019 को यूएनासीसीडी की ओर से जारी की जाएगी।