“ज्यादातर देशों में कम अनुभवी नेता संभाल रहे हैं पर्यावरण मंत्रालय की जिम्मेदारी”

21वीं सदी में पर्यावरण और विकास संबंधी मुद्दों के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कदम उठाने के लिए 1992 के रियो पृथ्वी शिखर सम्मेलन में रोड मैप तैयार किया गया था। इस सम्मेलन के उप महासचिव रहे नितिन देसाई ने राजित सेनगुप्ता के साथ बातचीत
इलस्ट्रेशन: योगेन्द्र आनंद / सीएसई
इलस्ट्रेशन: योगेन्द्र आनंद / सीएसई
Published on

क्या 1992 में रियो पृथ्वी शिखर सम्मेलन के दौरान जलवायु परिवर्तन पर राजनीतिक सहमति बनी थी?

जब 1992 में जलवायु सम्मेलन पर हस्ताक्षर किए गए तो अमेरिका जैसे कई देश इस बात को लेकर संशय में थे कि क्या वाकई में इंसानों की वजह से जलवायु परिवर्तन हो रहा है। इस संदेह की वजह जलवायु परिवर्तन पर 1990 में आई संयुक्त राष्ट्र के अंतर-सरकारी पैनल की पहली रिपोर्ट थी, जिसमें जलवायु परिवर्तन के लिए मानवीय कार्यों को खुले तौर पर जिम्मेदार नहीं ठहराया गया था। इस तथ्य को पैनल ने 2001 में आई अपनी तीसरी रिपोर्ट में स्वीकार किया।

हालांकि, अब समय बदल चुका है। आज इस बात पर आम सहमति है कि जलवायु परिवर्तन मानवीय कार्यों का परिणाम है और इसमें सुधार के लिए मनुष्यों का प्रकृति के साथ परस्पर व्यवहार में बदलाव की जरूरत है। यहां तक कि एक्सॉन जैसे कॉरपोरेशन भी जलवायु परिवर्तन को मान्यता देते हैं और इसके खिलाफ कार्रवाई करने की दिशा में आगे बढ़े हैं, जो एक व्यापक स्तर पर आम सहमति का संकेत है।

क्या वैश्विक सहमति से जलवायु-संबंधी प्रयासों में गति आई है?

कुछ हद तक प्रगति हुई है, खासकर नवीकरणीय ऊर्जा के विस्तार में, लेकिन अभी कार्रवाई अधूरी है। सौर ऊर्जा की लागत में प्रभावशाली कमी एक उल्लेखनीय प्रगति रही है। यह कमी मुख्य रूप से चीन के कदमों का नतीजा है। लेकिन ऊर्जा दक्षता और अन्य क्षेत्रों के लिए पर्याप्त प्रयास नहीं किए गए हैं।

जलवायु-संबंधी मुद्दों पर चर्चा के प्रति लोगों की उदासीनता गंभीर समस्या है। एक प्रचलित धारणा यह है कि ग्रीनहाउस गैसों के जमाव में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका विकसित देशों की है, इसलिए जलवायु परिवर्तन से निपटने की जिम्मेदारी मुख्य तौर पर उनकी है। अगर हम बीते समय में हुए उत्सर्जन को अलग कर सिर्फ भविष्य के अनुमानों पर ध्यान केंद्रित करें, तो भी यह दृष्टिकोण चिंताजनक है।

वैज्ञानिकों का अनुमान है कि 2020 और 2050 के बीच दुनिया भर की सरकारें लगभग 500 बिलियन टन कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जित कर सकती हैं। अगर इस उत्सर्जन को प्रति व्यक्ति अगले 30 वर्षों के लिए बांटा जाए तो इसका प्रति व्यक्ति सालाना औसत लगभग 1.8 टन होता है।

अगर हम मान लें कि चीन और अमेरिका अपने 2030 के नेट जीरो उत्सर्जन के लक्ष्य को हासिल कर लेते हैं और फिर प्रति व्यक्ति अनुमानित उत्सर्जन की तुलना उनके असली आंकड़ों से करते हैं, तो हमें चौंका देने वाली असमानता दिखाई पड़ती है, जो अनुशंसित दर से चार गुना ज्यादा है। इस मामले की जड़ दो प्रमुख उत्सर्जकों के बीच है। उत्सर्जन में इस भारी अंतर पर ध्यान दे पाने में विफलता का मतलब जलवायु के मुद्दे पर न्याय न कर पाना है। वैश्विक स्तर पर इस मुद्दे पर सहयोग को लेकर भ्रम की स्थिति बनी हुई है। लेकिन, हम इस इंतजार में बैठे हैं कि अलग-अलग देश खुद अपने जलवायु-संबंधी कार्यों के बारे में बताएंगे।

इस तरह की टुकड़ों में की गई पहल जलवायु परिवर्तन की सामूहिक चुनौती से निपटने के लिए काफी नहीं है। जिम्मेदारियों को बांटने के लिए किसी एक राय पर सहमत न होना दुनिया की एक बड़ी कमजोरी है। हम अक्सर देखते हैं कि जब गांव में कोई संकट आता है तो गांव के लोगों में एक सहमति होती है कि इस संकट की घड़ी में कौन क्या काम करेगा। वैश्विक स्तर पर इस प्रकार की सोच और समझौते का घोर अभाव है।

क्या आप मानते हैं कि सतत विकास की अवधारणा का पर्याप्त प्रचार किया गया है?

आज सतत विकास एक प्रचलित शब्द बन गया है, लेकिन विभिन्न क्षेत्रों में इसका समावेश अधूरा है। विशेष तौर पर पर्यावरण संरक्षण और आजीविका की स्थिरता से संबंधित क्षेत्रों में इसका इस्तेमाल बहुत कम हो रहा है। विकास के लिए किए गए प्रयासों में पर्यावरणीय प्रभावों और प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर समुदायों की भलाई पर विचार किया जाना चाहिए। वर्तमान जरूरतों को दीर्घकालिक पर्यावरणीय लक्ष्यों से जोड़ते हुए, सतत विकास की अवधारणा को स्थायी आजीविका को बढ़ावा देने वाले साधन के तौर पर तैयार किया जाना चाहिए। यह काफी महत्वपूर्ण मुद्दा है, क्योंकि समुद्र के स्तर में बढ़ोतरी जैसे जलवायु परिवर्तन से जुड़े अधिकतर प्रभाव लंबे समय के लिए होते हैं। इंसान प्राकृतिक संसाधनों की रक्षा तभी करेंगे, जब इससे उन्हें अभी लाभ मिलेगा।

क्या आपको लगता है कि दुनिया को रियो शिखर सम्मेलन की तरह जलवायु परिवर्तन पर एक नए समझौते की जरूरत है?

तुरंत नहीं। वर्तमान राजनीतिक माहौल में पर्यावरणीय चुनौतियों से व्यापक रूप से निपटने के लिए आवश्यक प्रतिबद्धता का अभाव है। वार्षिक जलवायु सम्मेलनों के आयोजन के दौरान अर्थपूर्ण प्रगति के लिए सार्थक नेतृत्व की आवश्यकता होती है। भारत और चीन जैसे देश संभावित रूप से नेतृत्व कर सकते हैं, लेकिन इसके लिए व्यापक अंतरराष्ट्रीय सहयोग जरूरी है।

आप पर्यावरणीय मुद्दों के संबंध में भविष्य के राजनयिक प्रयासों को किस तरह देखते हैं?

राजनयिक प्रयासों के जरिए सभी क्षेत्रों को पर्यावरण के मुद्दे से जोड़ना चाहिए। फिलहाल पर्यावरण-संबंधी चर्चाओं और व्यापार व आर्थिक मुद्दों जैसे राजनयिक प्रयासों के बीच तालमेल का भारी अभाव है। आर्थिक और राजनीतिक हितों के साथ-साथ पर्यावरणीय चिंताओं को भी प्राथमिकता देना आवश्यक है। अधिकतर देशों में पर्यावरण मंत्रालयों का नेतृत्व एक और महत्वपूर्ण चुनौती है। अक्सर इन मंत्रालयों का नेतृत्व अनुभवहीन राजनेता करते हैं। निर्णय लेने की प्रक्रियाओं में ऐसे नेताओं की भागीदारी कम ही होती है। हमें ऐसे बदलाव की कोशिश करनी चाहिए, जहां पर्यावरण मंत्रालयों के विचारों को उतनी ही अहमियत मिले, जितनी केंद्रीय बैंकों और दूसरे प्रमुख संस्थानों को मिलती है। ऐसी संस्कृति को बढ़ावा देने की बेहद जरूरत है, जो नीति निर्माण के विस्तृत ढांचे के भीतर रहते हुए पर्यावरणीय शासन की भूमिका को स्वीकार करे।

Related Stories

No stories found.
Down to Earth- Hindi
hindi.downtoearth.org.in