खाने की थाली में ऐसे करें बदलाव, आपकी और पर्यावरण की सेहत में हो जाएगा सुधार

दो दशकों में खाद्य आपूर्ति श्रंखला से जुड़े उत्सर्जन में 14 फीसदी की वृद्धि हुई है। रिसर्च के मुताबिक इस बढ़ते उत्सर्जन के लिए तेजी से बढ़ती आबादी और पशु आधारित उत्पादों की बढ़ती खपत जिम्मेवार है
पर्यावरण के लिए हानिकारक है लाल मीट का बढ़ता सेवन; फोटो: पिक्साबे
पर्यावरण के लिए हानिकारक है लाल मीट का बढ़ता सेवन; फोटो: पिक्साबे
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आहार एक ऐसी जरूरत है जिसके बिना जीवन संभव नहीं। लेकिन इस आहार में क्या कुछ शामिल होगा, वो हमारे स्वास्थ्य और पर्यावरण को प्रभावित करता है। आज बढ़ती आबादी का पेट भरना मुश्किल होता जा रहा है। साथ ही आहार की बढ़ती मांग के साथ पर्यावरण पर भी दबाव बढ़ता जा रहा है।

संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक अगले 27 वर्षों में दुनिया की आबादी बढ़कर 910 करोड़ पर पहुंच जाएगी, जिसका पेट भरने के लिए हमें मौजूदा खाद्य उत्पादन में 70 फीसदी की वृद्धि करने की आवश्यकता होगी। ऐसे में हमारी खाद्य आपूर्ति श्रृंखला से होने वाले उत्सर्जन में भी वृद्धि हो जाएगी।

देखा जाए तो जिस तरह से हम भोजन का उत्पादन और उपभोग कर रहे है वो पर्यावरण पर गहरा दबाव डाल रहा है। अनुमान है कि यह वैश्विक स्तर पर इंसानों द्वारा ग्रीनहाउस गैसों के किए जा रहे उत्सर्जन के करीब एक तिहाई हिस्से के लिए जिम्मेवार है। ऐसे में जैसे-जैसे आबादी में वृद्धि होगी और मवेशियों पर हमारी खाद्य निर्भरता बढ़ती जाएगी तो इनसे होने वाले उत्सर्जन में कहीं ज्यादा वृद्धि होने की आशंका है।

इस बारे में अंतराष्ट्रीय शोधकर्ताओं द्वारा किए एक नए अध्ययन से पता चला है कि पिछले 20 वर्षों में खाद्य आपूर्ति श्रंखला से जुड़े ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में 14 फीसदी की वृद्धि हुई है, जोकि 200 करोड़ मीट्रिक टन कार्बन डाइऑक्साइड के बराबर है। जर्नल नेचर फूड में प्रकाशित इस रिसर्च के मुताबिक उत्सर्जन में होती इस वृद्धि के लिए मुख्य तौर पर पशु आधारित उत्पादों की बढ़ती खपत जिम्मेवार है।

अनुमान है कि इसने आहार से जुड़े बढ़ते उत्सर्जन में करीब 95 फीसदी का योगदान दिया है। विशेष रूप से इसमें बीफ और डेयरी उत्पादों का बड़ा हाथ है। शोधकर्ताओं के मुताबिक पशु-आधारित उत्सर्जन में होती वृद्धि के 32 फीसदी हिस्से के लिए बीफ जिम्मेवार था। वहीं डेयरी उत्पादों की इसमें हिस्सेदारी करीब 46 फीसदी रही। ऐसे में शोधकर्ताओं का कहना है कि यदि जलवायु में आते बदलावों को रोकना है तो हमें वैश्विक खाद्य प्रणाली से होते ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को सीमित करना होगा।

अपने इस अध्ययन शोधकर्ताओं ने 2000 से 2019 के खाद्य क्षेत्र से होते उत्सर्जन और उपभोक्ताओं से जुड़े आंकड़ों का विश्लेषण किया है। इस विश्लेषण से पता चला है कि 2019 में पांच सबसे बड़े उत्सर्जक देश वैश्विक खाद्य आपूर्ति श्रृंखला से होने वाले 40 फीसदी से अधिक उत्सर्जन के लिए जिम्मेवार थे।

इसमें चीन की हिस्सेदारी करीब 200 करोड़ टन कार्बन डाइऑक्साइड के बराबर, भारत की 130 करोड़ मीट्रिक टन,  इंडोनेशिया की 110 करोड़ मीट्रिक टन, थी। वहीं ब्राजील  और अमेरिका दोनों ही 100-100 करोड़ मीट्रिक टन उत्सर्जन के लिए जिम्मेवार थे।

अनाजों से होने वाले करीब आधे उत्सर्जन के लिए जिम्मेवार है अकेला धान

अध्ययन के जो निष्कर्ष सामने आए हैं उनके मुताबिक 2019 में जहां पौधों से होने वाले उत्सर्जन के करीब 43 फीसदी के लिए अनाजों की खपत जिम्मेवार थी। इनसे होने वाला कुल उत्सर्जन करीब 340 करोड़ मीट्रिक टन कार्बन डाइऑक्साइड के बराबर था। वहीं तिलहन फसलों की खपत के चलते 23 फीसदी उत्सर्जन हुआ था जोकि करीब 190 करोड़ मीट्रिक टन कार्बन डाइऑक्साइड के बराबर था। यदि धान से जुड़े आंकड़ों को देखें तो अनाजों के कारण जितना भी उत्सर्जन होता था उसके करीब आधे उत्सर्जन के लिए धान ही जिम्मेवार था।

यह उत्सर्जन करीब 170 करोड़ मीट्रिक टन कार्बन डाइऑक्साइड के बराबर था। इसमें  इंडोनेशिया, चीन , और भारत की बड़ी भूमिका रही। आंकड़ों के मुताबिक जहां धान से होने वाले कुल वैश्विक उत्सर्जन के 20 फीसदी के लिए इंडोनेशिया, 18 फीसदी के लिए चीन जबकि दस फीसदी हिस्से के लिए भारत जिम्मेवार था।

वहीं यदि तिलहन फसलों से जुड़े आंकड़ों को देखें तो जहां सोयाबीन वैश्विक स्तर पर 60 करोड़ मीट्रिक टन सीओ2 के बराबर उत्सर्जन के लिए जिम्मेवार था। जो तिलहन फसलों से होने वाले कुल उत्सर्जन का करीब 30 फीसदी है। वहीं पाम आयल ने उत्सर्जन में 60 करोड़ मीट्रिक टन का योगदान दिया था। जो तिलहन फसलों के कुल उत्सर्जन का करीब 46 फीसदी है।

इसमें सबसे बड़ा योगदान इंडोनेशिया का रहा जो 2019 में पाम आयल से होने वाले कुल उत्सर्जन के करीब 35 फीसदी के लिए जिम्मेवार था। वहीं इस मामले में दक्षिण पूर्व एशिया की हिस्सेदारी 13 फीसदी, पश्चिमी यूरोप की दस फीसदी और चीन की नौ फीसदी रही।

इस अध्ययन में जो सामने निकलकर आया है उसके अनुसार उत्तरी अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, दक्षिण अमेरिका और कैरिबियन देशों का आहार से होने वाला प्रति व्यक्ति उत्सर्जन बहुत ज्यादा है, जिसके लिए लाल मांस जिम्मेवार है। वहीं दूसरी तरफ जापान और यूरोप जैसे विकसित देश जो बहुत हद तक आयात पर निर्भर हैं वो इसे आउटसोर्स कर रहे हैं।

वहीं चीन, भारत, दक्षिण एशिया, उत्तरी अफ्रीका जैसे क्षेत्र जहां आबादी तेजी से बढ़ रही और जो बेहतर जीवन स्तर के लिए प्रयास कर रहे हैं वहां आहार श्रंखला से होने वाले उत्सर्जन में तेजी से वृद्धि हो रही है। इसी तरह जिन देशों में उत्सर्जन बहुत ज्यादा है और जो भूमि उपयोग में व्यापक बदलाव के कारण इससे जूझ रहे है उनमें ब्राजील, इंडोनेशिया के साथ दक्षिण और मध्य अफ्रीकी देश शामिल हैं।

व्यापार नीतियों में बदलाव भी उत्सर्जन में कर सकता है कमी

शोधकर्ताओं ने यह भी पाया है कि कुछ व्यापार नीतियों के चलते उत्सर्जन तेजी से बढ़ रहा है। इन नीतियों में उन देशों या क्षेत्रों से अधिक भोजन को आयात करना शामिल है जो इसे ऐसे तरीकों से उत्पादित करते हैं जो बहुत अधिक मात्रा में उत्सर्जन पैदा करता है। उदाहरण के लिए जहां यूरोपियन यूनियन की ग्रीन डील यूरोप के भीतर कम प्रदूषण पैदा करने वाली कृषि को बढ़ावा दे रही है लेकिन साथ ही ब्राजील, अमेरिका, इंडोनेशिया और मलेशिया जैसी जगहों से कृषि उत्पादों के आयात को प्रोत्साहित कर रही हैं।

ग्रोनिंगन विश्वविद्यालय और अध्ययन से जुड़े शोधकर्ता प्रोफेसर क्लॉस हबसेक का इस बारे में कहना है कि ऐसे में इस बढ़ते उत्सर्जन से निपटने के लिए वैश्विक स्तर पर भोजन में किया बदलाव जरूरी है। इसमें लाल मांस का सेवन तेजी से कम करना और पौधों से मिलने वाले प्रोटीन को बढ़ावा देना शामिल है। उनके मुताबिक यह बदलाव न केवल बढ़ते उत्सर्जन में लगाम लगाएगा, साथ ही लोगों के स्वास्थ्य को भी इन बदलावों से फायदा होगा। यह मोटापे और हृदय संबंधी विकारों को कम करने में फायदेमंद हो सकता है।

शोधकर्ताओं की मानें तो वैश्विक खाद्य आपूर्ति श्रृंखला के कारण उत्सर्जन में जो वृद्धि हो रही है उसके लिए तेजी से विकसित होती अर्थव्यवस्थाएं जैसे भारत और चीन भी कहीं हद तक जिम्मेवार हैं। जहां मांस और डेयरी उत्पादों की खपत में तेजी से वृद्धि हो रही है।

ग्रोनिंगन विश्वविद्यालय और अध्ययन से जुड़े प्रमुख शोधकर्ता यान्क्सियन ली का इस बारे में कहना है कि, "अगर हम बढ़ते तापमान को सीमित करना चाहते हैं तो हमें उत्पादन से लेकर खपत तक खाद्य आपूर्ति श्रृंखला के हर चरण में होते उत्सर्जन को कम करना जरूरी है।"

उनके मुताबिक आहार में व्यापक और स्थाई तौर पर जल्द बदलाव करना मुश्किल है। लेकिन उपभोक्ताओं को लाल मांस के सेवन को कम करना या पर्यावरण अनुकूल उत्पादों को खरीदने के लिए प्रोत्साहित करने से खाद्य क्षेत्र से होते उत्सर्जन में कटौती करने में मदद मिल सकती है।

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