संकट में हिमालय: दोष मढ़ने की बजाय मौसम को समझें

उच्च हिमालयी क्षेत्रों में वेदर स्टेशन के अलावा अर्ली वार्निंग सिस्टम का जाल बिछाना होगा, लेकिन उससे ज्यादा जरूरी अपने विकास मॉडल की पड़ताल करना है
इलस्ट्रेशन: योगेन्द्र आनंद
इलस्ट्रेशन: योगेन्द्र आनंद
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इन दिनों हिमालयी राज्यों उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश व जम्मू कश्मीर एक के बाद एक आपदाओं का सामाना कर रहा है। इन सभी आपदाओं को मौसम की मार माना जा रहा है, लेकिन क्या ऐसा ही है, यह जानने के लिए राजेश डोबरियाल ने भारतीय मौसम विज्ञान सोसायटी के मौजूदा अध्यक्ष एवं भारतीय मौसम विज्ञान विभाग में अतिरिक्त महानिदेशक के पद से रिटायर हुए आनंद शर्मा से विस्तृत बातचीत की। इस बातचीत को शर्मा के शब्दों में ज्यों का त्यों प्रकाशित किया जा रहा है

देश में मौसम का पूर्वानुमान समय के साथ बहुत बेहतर हुआ है और लगातार बेहतर हो रहा है, लेकिन जान बचाने के लिए मौसम विभाग से मिलने वाली चेतावनियों पर प्रतिक्रिया ज्यादा महत्वपूर्ण है।

हालांकि हमें ध्यान रखना होगा कि कोई वेल डिफाइंड वेदर सिस्टम (सुस्पष्ट मौसम प्रणाली) हो तो मौसम संबंधी चेतावनियां दो-चार दिन पहले दी जा सकती है, जैसे कि हमने केदारनाथ आपदा (2013) के समय किया, लेकिन अगर कोई मेजोस्केल सिस्टम (10 किलोमीटर से 100 किलोमीटर के दायरे वाला) है, जिसमें एक जगह पर बादल 15 किलोमीटर तक ऊपर बनता है और उस कैचमेंट में जमकर बारिश कर देता है तो मामला पेचीदा होता है।

इस सिस्टम के बनने से लेकर बारिश खत्म होने तक करीब एक घंटे का वक्त लगता है। जब तक राडार में, सैटेलाइट से उसका पता लगाया जाता है और निगरानी की जाती है कि यह किस दिशा में जा रहा है और जब तक यह साफ होता है कि यह बहुत भारी बारिश करने वाला है या बादल फटने जैसी स्थिति होने वाली है तब तक आपके पास समय बहुत कम रह जाता है।  आपको 10-15 मिनट का समय मिलता है। इसमें भी आपने प्रभावित होने वाले लोगों तक इसकी चेतावनी पहुंचा दी तो जानें बच सकती है।  घर तो नहीं बचेंगे, लेकिन जान बच सकती हैं।

बात यह भी है कि किसी मौसम तंत्र (जैसे कम दबाव क्षेत्र, चक्रवात, पश्चिमी विक्षोभ आदि) की गतिविधि रात को होती है तो किसको और कैसे बताएंगे? जिम्मेदार व्यक्ति मोबाइल बंद करके बैठ गया हो या जहां वॉर्निंग दी जानी है, वहां मोबाइल नेटवर्क काम न कर रहे हों तो? रेडियो-टीवी तो रात के समय आमतौर पर बंद ही रहते हैं।

इसलिए एक ऑल वेदर कम्युनिकेशन सिस्टम भी तैयार करना होगा। हैम रेडियो एक अच्छा उपाय है, उससे कम्युनिटी रेडियो बनाएं, ताकि अगर मोबाइल सिस्टम काम न करे तो भी वॉर्निंग दी जा सके। स्थानीय लोगों को शामिल करें और ट्रेनिंग दें ताकि वह अपनी और दूसरों की जान बचा सकें।  हालांकि यह भी हो सकता है कि मौसम विभाग का पूर्वानुमान ही सही न हो।  

कितने राडार, कितने वेदर स्टेशन  

इसमें किसी को कोई भ्रम नहीं होना चाहिए कि धराली या चिशोती में जो फ्लैश फ्लड आए हैं, वह वहां हुई बारिश की वजह से आई है। इन नदियों-गदेरों के कैचमेंट एरिया में 20 से 50 किलोमीटर ऊपर कितनी बारिश हुई है, यह पता करना होगा। हो सकता है कि यह किसी राडार ने न पकड़ा हो और वहां ऑटोमेटिक वेदर स्टेशन (एडब्ल्यूएस) न हो।  

ऐसे में मौसम पर नजर रखने वाले तंत्र को मजबूत करना होगा। सबसे बड़ी चुनौती है, हिमालय का भूगोल। यह इतना जटिल है कि हर घाटी का अपना मौसम है, अपना अलग बर्ताव है। सबको कैप्चर करने के लिए तो बड़ी संख्या में राडार, एडब्ल्यूएस लगाने पड़ेंगे और उसके लिए एक विशेष अध्ययन की जरूरत होगी कि कहां राडार या एडब्ल्यूएस लगाए जाने हैं। फिर यह जरूरी नहीं कि हर बार राडार या एडब्ल्यूएस हर बदलाव को पकड़ ही ले।  

लेकिन लंबे समय तक नजर रखने और उसके आंकड़ों का अध्ययन करने का फायदा होता है। जैसे कि 100 साल का डाटा हमें दिखा रहा है कि अमुक जगह हर 10-15 साल में खास घटनाक्रम (जैसे कि फ्लैश फ्लड आना) हो जाता है, तो हमें वहां बहुत अच्छी मॉनीटरिंग करनी होगी। नदियों, गदेरों के कैचमेंट एरिया पर विशेष ध्यान देना होगा। इन कैचमेंट में एडब्ल्यूएस लगने चाहिए।

विकास का मॉडल ही गलत है...

लेकिन असल सवाल यह है कि हम किस तरह का विकास कर रहे हैं? नदियों, गदेरों की जमीन का अतिक्रमण हो रहा है। वह जमीनें खाली रहनी चाहिएं, वहां पेड़-पौधे लगाओ। जापान में समुद्र के किनारे कई किलोमीटर के सघन वन लगाए गए हैं,  ताकि कोई चक्रवात या सुनामी आए भी तो वह पहले पेड़ों से टकराए।

प्लानिंग और डेवलपमेंट हमारा प्रकृति के अनुरूप होना चाहिए, सस्टेनेबल होना चाहिए। नदी-गदेरों से दूर रहना है। नया अतिक्रमण होने नहीं देना है और पुराने को हटाना है। पहले पहाड़ों में ऐसा ही होता था, घर-गांव नदियों-गदेरों से दूर बनते थे।

अंग्रेजों ने भी यही किया और पहाड़ों पर निर्माण किए, लेकिन सब पहाड़ों पर भी नहीं किए, देखा कि कौन सा मजबूत है और फिर आगे बढ़े। अंग्रेज़ों का बनाया तो कुछ नहीं गिरा. सौ साल हो गए हिमाचल की रेलवे को, कोई दिक्कत आई? इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ एडवांस स्टडीज जैसी बड़ी-बड़ी बिल्डिंगें बनाई पहाड़ों में जिन्हें 100-100 साल हो गए हैं लेकिन उन्हें कुछ नहीं होता

दरअसल अंग्रेजों ने पहले ठीक से चेक किया कि यह पहाड़ सॉलिड पहाड़ है और उस पर बिल्डिंग बनाने के बायलॉज तैयार किए, भूकंप आदि से सुरक्षित इमारतें तैयार कीं। उनकी बनाई कोई भी सड़क नदी के पास नहीं है। अंग्रेजों ने रानीखेत वाली सड़क बनाई, उसे कुछ नहीं होता, लेकिन अब जो देहरादून में मालदेवता के पास सड़क बनाई है, नदी में घुसकर निर्माण कर लिए गए हैं। वह एक दिन टूटने ही हैं।

सभी को विकास चाहिए, लेकिन विनाश नहीं। किसी भी निर्माण से पहले एनवायरमेंट असेसमेंट पूरा हो। मलबा कहां डालना है, कितने बांध बनाने हैं, कितने 4 लेन बनाने हैं। यह सब सोचकर करना चाहिए, लेकिन यहां तो अंधी दौड़ लगी हुई है।

देहरादून भी अछूता नहीं

हिमाचल में कुल्लू में ब्यास नदी के साथ-साथ सड़क बना दी। इसी महीने देहरादून के आईटी पार्क और बाकी इलाक़ों में बारिश से तालाब जैसे नजर आ रहे थे, जबकि बारिश कुछ भी नहीं हुई। रिस्पना पहले डीएवी कॉलेज के पीछे से बहती थी, आज रिस्पना का क्या हाल हो गया है। जिस दिन मसूरी और देहरादून के कैचमेंट एरिया में पिछले रिकॉर्ड जितनी बारिश हो गई तो रिस्पना और बिंदाल सारा बहाकर ले जाएंगीं। विधानसभा, दून यूनिवर्सिटी नदी में बना दीं।

क्या होना चाहिए?

तो होना यह चाहिए कि सारे नदी-नालों-गदेरों-तालाबों का रिस्क असेसमेंट किया जाना चाहिए। सर्वे ऑफ इंडिया का टोपोग्राफ़िकल मैप इसमें मदद कर सकता है। निर्माण के लिए इसे आधार बनाया जाना चाहिए और नदी-नालों की जमीन पर  निर्माण प्रतिबंधित हो1 इस रिस्क असेसमेंट की जानकारी पटवारी स्तर तक उपलब्ध होनी चाहिए।

यह विचार भी एकदम बचकाना है कि हम दीवार बनाकर नदी को रोक देंगे. जिस दिन भयंकर बारिश आएगी, वह दीवार को नहीं देखेगी. पहाड़ की नदियां अपने साथ पत्थर, बोल्डर लेकर आती हैं। धराली वाली नदी को देखो, वह ढलान में तेज रफ़्तार के साथ बोल्डर लेकर आती है तो फिर उसके सामने क्या दीवार टिकेगी।  

जलवायु परिवर्तन एक ढाल है...

जलवायु परिवर्तन पर नजर रखने वाले कहते हैं कि ग्लोबल वॉर्मिंग से ग्लेशियर पिघल रहे हैं, नदियों में पानी ज़्यादा आ रहा है, बरसात कभी कम-कभी बहुत ज़्यादा हो रही है और इसकी वजह से फ्लैश फ्लड आ रहे हैं। पहाड़ों के गदेरों में बाढ़ नहीं फ्लैश फ्लड ही आता है, यह पहाड़ों का सामान्य फीचर है। बाढ़ आना भी जरूरी है। उससे नदी अपनी सफाई करती है और बाढ़ के पानी के साथ जो मिट्टी, तलछट से जाती है उससे मैदानी इलाके उपजाऊ बने रहते हैं।

दरअसल, जलवायु परिवर्तन सरकारों के लिए ढाल बन गया है।इससे मुद्दा भटक जाता है असली वजहों तक पहुंचना संभव नहीं होता। सरकारें, प्रशासनिक अधिकारी अपने हाथ झाड़ लेते हैं, जबकि आपदा की वजह यह है कि आपने लैंड यूज चेंज कर दिया, लैंड कवर चेंज कर दिया। 2030 तक सस्टेनेबल डेवलपमेंट के 17 लक्ष्य हासिल करने हैं, लेकिन सस्टेनेबल डेवलपमेंट कैसे होगा? जब प्लानिंग सही होगी, लैंड यूज सही होगा।

जरूरत मौसम को कोसने की नहीं, बल्कि मौसम के प्रति जागरूक होने की है। मौसम को अपने दिनचर्या में शामिल करने की है। मौसम की चेतावनी देखकर अपने काम की योजना बनाएं। नदी-नालों की जमीन से दूर रहें तो बारिश आपदा नहीं बनेगी। साथ ही यह भी ध्यान रखना होगा कि जब तक सिस्टम में गुड गवर्नेंस का अभाव रहेगा, तब तक पर्यावरण नहीं बचेगा, तब तक सस्टेनेबल डेवलपमेंट नहीं होगा।

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