फाइल फोटो: रोहित पराशर
फाइल फोटो: रोहित पराशर

आपदा नहीं अन्याय का शिकार हुए हिमाचल वासी

हिमाचल के लोग उस अपराध की सजा पा रहे हैं, जो उन्होंने किया ही नहीं है। ऐसा सभी हिमालयी राज्यों के साथ रहा है, इसलिए अब एक नई हिमालयी राजनीति की जरूरत है
Published on
Summary
  • हिमाचल में आई आपदाएं जलवायु परिवर्तन और विकास की गलत नीतियों का परिणाम हैं।

  • स्थानीय समुदायों की पारंपरिक समझ को दरकिनार कर दिया गया है, जिससे क्षेत्र में अस्थिरता बढ़ी है।

  • उच्च उत्सर्जन करने वाली अर्थव्यवस्थाएं और बहुराष्ट्रीय कंपनियां इस संकट के लिए जिम्मेदार हैं, जबकि स्थानीय लोग इसके दुष्प्रभाव झेल रहे हैं।

धराली के नदी किनारे से पहली चीखें तब सुनाई दीं, उस समय बारिश जारी थी। लोग उस गर्जना की ओर भागे, जहां से गाद लबालब सैलाब बहते हुए आ रहा था, जिसमें पेड़ों के तने, टिन की छतें और रसोई व दुकानों के टूटे-फूटे अवशेष बहते चले आ रहे थे। किसी ने चिल्लाकर कहा कि हर्षिल के पास ऊपर कहीं झील बन गई है। सेना पहले से ही वहां पानी निकालने के लिए रास्ता बनाने में जुटी थी, लेकिन मौसम की अपनी ही पटकथा थी।

एक दुकानदार ने कहा, “हम पीढ़ियों से इस नदी के साथ जी रहे हैं, लेकिन यह नदी अब हमारी नहीं रही। यह अब अजनबी बनकर आती है।”

इससे करीब एक महीने पहले हिमाचल प्रदेश के सेराज क्षेत्र के लोगों ने भी ऐसी ही आवाजें सुनी थी। 29 जून को बारिश ने विकराल रूप धारण कर लिया। नाले उफनती धाराओं में बदल गए, ढलान खिसक गए, घर बह गए और पुल ताश के पत्तों की तरह ढह गए। बखली–नाल और थुनाग के बीच पूरा इलाका कटा पड़ा था। कई दिनों तक कुछ गाँवों तक कोई राहत टीम नहीं पहुँच सकी; हफ्तों बाद जाकर बिजली और पानी की आपूर्ति किसी तरह बहाल हो पाई। एक बस्ती में एक बुजुर्ग महिला ने मुझसे कहा: “हमने पहले भी सैलाब देखे हैं, लेकिन तब पहाड़ टिके रहते थे। इस बार पहाड़ ही टूट गए। आने वाले दिनों में और बढ़ेगा यह संकट और भी बढ़ेगा।”

संकट के केंद्र में अन्याय

यहां यह स्पष्ट होना चाहिए कि ये आपदाएं “ईश्वर की इच्छा” नहीं हैं। ये जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न झटके हैं, उस क्षेत्र में जिसका इस समस्या को पैदा करने में लगभग कोई हाथ नहीं रहा। अब तक हिमालय औद्योगिक क्रांति के पूर्व के औसत के मुकाबले 1.8 डिग्री सेल्सियस अधिक गर्म हो चुका है, जो वैश्विक औसत से कहीं ज्यादा है, जबकि यहां के लोगों ने न तो कोयला जलाया, न धुआं देने वाले चिमनी के घर बनाए और न ही औद्योगिक फैलाव को आगे बढ़ाया। इन कारणों की ही वजह से यह स्थिति उत्पन्न हुई है।

असल दोषियों के नाम लेना कठिन नहीं है। उच्च उत्सर्जन करने वाली अर्थव्यवस्थाएं, जिनमें मुख्यतया ग्लोबल नॉर्थ और वे बहुराष्ट्रीय कॉर्पोरेट दिग्गज शामिल हैं, जिनकी सप्लाई चेन और संसाधनों के दोहन की वजह से बीते तीन-चार दशकों में ऐतिहासिक उत्सर्जन बढ़ा है।

अध्ययनों से पता चलता है कि केवल 40 बहुराष्ट्रीय कंपनियां ही वैश्विक कार्बन उत्सर्जन के 40 प्रतिशत से अधिक के लिए जिम्मेदार हैं। इनमें तेल और गैस की बड़ी कंपनियां, कोयला समूह और कृषि कारोबार की बड़ी कंपनियां शामिल हैं।

सबसे बड़ी हिस्सेदारी 4.3 प्रतिशत के साथ सऊदी अरामको की है, उसके बाद शेवरॉन 3.2 प्रतिशत, गैज़प्रोम 3.1 प्रतिशत, एक्सॉनमोबिल 2.9 प्रतिशत, नेशनल ईरानी ऑयल कंपनी 2.6 प्रतिशत, बीपी 2.5 प्रतिशत, रॉयल डच शेल 2.4 प्रतिशत, कोल इंडिया 1.9 प्रतिशत, पेमेक्स 1.7 प्रतिशत और पीडीवीएसए 1.6 प्रतिशत की हिस्सेदारी हैं। ये आंकड़े दर्शाते हैं कि वैश्विक कार्बन डाइआक्साइड उत्सर्जन में कुछ चुनिंदा बड़ी कंपनियों का कितना बड़ा प्रभाव रहा है।

हिमालय में जलवायु परिवर्तन अपराध नहीं, बल्कि अन्याय की कहानी है। यह ऐसा है, मानो आपको एक खतरनाक खेल खेलने के लिए मजबूर कर दिया गया हो, जिसमें आप कभी शामिल ही नहीं थे और मैदान पहले से ही आपके खिलाफ झुका हुआ है।

कैसे बिछा जाल

हिमालय का यह संकट संयोग नहीं है। 1990 के दशक में केंद्र सरकार ने इस क्षेत्र की वित्तीय संरचना को नए सिरे से गढ़ा। ऋण, प्रोत्साहन और नीतिगत संकेत, इन सबका लक्ष्य जलविद्युत, पर्यटन और रियल एस्टेट को तेजी से बढ़ावा देना था। जो राज्य नकदी की कमी से जूझ रहे थे और राजस्व के भूखे थे, इसे सहर्ष स्वीकार कर लिया।

स्थानीय समुदायों से कहा गया कि यह “विकास” है, जबकि हकीकत में यह दोहन था। पर्यावरणीय रूप से संवेदनशील क्षेत्रों में कटाई, पर्यावरणीय स्वीकृतियों को दरकिनार करना और पारंपरिक, सुरक्षित भूमि उपयोग प्रथाओं को पीछे धकेला गया।

एक बार यह रास्ता चुन लेने के बाद हिमालयी राज्यों के पास पीछे मुड़ने की सीमित गुंजाइश रह गई। केंद्रीकृत विकास मॉडल ने स्थिरता के बजाय गति को, और साझी संसाधन संस्कृति के बजाय कंक्रीट को प्राथमिकता दी। नतीजतन, लोगों के सामने यही विकल्प बचा कि या तो सड़क चौड़ीकरण और रिजॉर्ट या निर्माण वाली अर्थव्यवस्था में शामिल हो जाओ, या पूरी तरह नकदी प्रवाह से बाहर हो जाओ।

राज्य की नीतियां: चूक का हिसाब-किताब

उत्तराखंड की चारधाम राजमार्ग चौड़ीकरण परियोजना को ही देख लीजिए। 900 किलोमीटर लंबे इस प्रोजेक्ट को छोटे-छोटे हिस्सों में बांटकर अनुमति दी गई, ताकि व्यापक पर्यावरणीय मूल्यांकन से बचा जा सके। ढलानों को जरूरत से ज्यादा काटा गया, मलबा नदियों और नालों में डाला गया और जल निकासी की अनदेखी की गई। नतीजा यह हुआ कि भूस्खलन बढ़ गए। यह कोई “आश्चर्य” नहीं था, बल्कि हड़बड़ी की इंजीनियरिंग लागत थी।

हिमाचल का रिकॉर्ड भी इससे बेहतर नहीं है। सुप्रीम कोर्ट के प्रिस्टिन होटल्स फैसले के बाद इसी अगस्त में मैंने मुख्य सचिव को पत्र लिखकर रास्ता बदलने की गुहार लगाई थी। अदालत ने राज्य को याद दिलाया था कि विकास पर्यावरण को दरकिनार नहीं कर सकता। जलवायु आपदा से मुक्त रहने का अधिकार अब हमारे संवैधानिक अधिकारों का हिस्सा है। लेकिन हमारी योजनाएं अब भी पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील क्षेत्रों को “प्रीमियम प्लॉट्स” की तरह देखती हैं, जहां रिजॉर्ट और सेकंड होम (छुट्टियां बिताने के लिए दूसरा घर) बनाए जाएं।

शहरी मास्टर प्लान में शायद ही कभी खतरे वाले क्षेत्रों के नक्शे शामिल होते हैं। वहन क्षमता (कैरिंग कैपेसिटी) के अध्ययन या तो होते ही नहीं और यदि होते हैं तो उन्हें नजरअंदाज़ कर दिया जाता है। भवन निर्माण के बायलॉज (उप नियम ) जलवायु अनुमानों के प्रति अंधे बने हए हैं और हर अवैध निर्माण की “रेगुलराइजेशन” से बाकी लोगों को यह संदेश मिलता है कि यदि आपके पास पैसा या पहुंच है तो नियम आपके लिए लचीले हैं।

क्षीण होती पारंपरिक समझ

इस नुकसान को दोगुना त्रासद बना देता है यह तथ्य कि हिमालयी समाजों के पास कभी अपनी आपदा-नियंत्रण की परंपरागत संहिता हुआ करती थी। गांव नदी के बाढ़ क्षेत्र को खाली रखते थे, क्योंकि वे जानते थे कि गाद और फैलाव नदी की सांस लेने की जगह है। मकान पहाड़ी की धार (रिज) पर बनाए जाते थे, न कि खड़ी कटी ढलानों पर। झरनों के उद्गम क्षेत्र को सामुदायिक संपत्ति मानकर सुरक्षित रखा जाता था। छतें ढलानदार होती थीं, ताकि बर्फ फिसलकर गिर सके। खेतों को सीढ़ीनुमा बनाया जाता था ताकि पानी की रफ्तार धीमी हो।

सेराज में बुजुर्ग आज भी याद करते हैं कि बस्तियां कभी पुराने भूस्खलनों के मलबे वाली ढलानों से दूर बसाई जाती थीं, लेकिन यह समझ अब “व्यू प्रॉपर्टी” के लालच और राज्य सरकार द्वारा नदी किनारे होटलों को बढ़ावा देने की नीति के चलते पीछे छूट गई है। वही राज्य, जिसे सुरक्षित निर्माण सुनिश्चित करना चाहिए था, अब हर मानसून के बाद नुकसान का आकलन करता है और ऐसी क्षतिपूर्ति के चेक काटता है, जिन्हें टाला जा सकता था।

सीमाओं की अनदेखी

क्या हम भूगर्भीय सीमाओं तक पहुंच चुके हैं? हिमालय पर्वत युवा है, बेचैन है और भूकंपीय रूप से सक्रिय है। सीमाएं तो हमेशा से मौजूद थीं। फर्क इतना है कि हमने उन्हीं सीमाओं पर निर्माण कर डाला है।

जब किसी सड़क के लिए ढलान को जरूरत से ज्यादा काटा जाता है, जब किसी बाढ़ मैदान पर पार्किंग लॉट के लिए कंक्रीट बिछा दी जाती है, जब लंबवत परियोजनाओं के लिए जंगल काटे जाते हैं तो हम अपनी सुरक्षा की गुंजाइश को खत्म कर देते हैं। और जलवायु परिवर्तन अपने बादलों की फट पड़ने वाली बारिशों और गर्म होती तेज हवाओं के साथ उस शेष बची सुरक्षा को भी खत्म कर देता है।

सुप्रीम कोर्ट का आईना

प्रिस्टिन होटल्स का फैसला एक मोड़ साबित होना चाहिए था। इसने एक पर्यटन परियोजना को रद्द कर दिया था, जिसने ग्राम सभा की आवाजों और पर्यावरणीय मूल्यांकन को दरकिनार कर दिया था। अदालत ने वहन-क्षमता आधारित योजना, ढलान-संवेदी भूमि उपयोग और आईपीसीसी (जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी पैनल) की जलवायु विज्ञान से तालमेल की मांग की और यह भी याद दिलाया कि अब जलवायु की अनदेखी असंवैधानिक है।

भविष्य के लिए लड़ना होगा

धराली और सेराज की आपदाएं इस निराशावाद को जन्म दे सकती हैं कि पहाड़ अब बचने वाले नहीं, लेकिन मैं इसे स्वीकार नहीं करता। विकल्प साफ है और संभव भी, जैसे -

  • खतरे वाले क्षेत्रों की पहचान कर वहां ठोस नियम लागू किए जाएं।

  • पर्यटन, यातायात और जल दोहन के लिए वहन-क्षमता की सीमा तय करें।

  • भौगोलिक समाधानों को प्राथमिकता दें। जैसे- जंगलों को पुनर्स्थापित करें, झरनों की रक्षा करें।

  • पारंपरिक जल निकासी तंत्र को फिर से जीवित करें।

  • बहाव धीमा करने के लिए सीढ़ीनुमा खेतों को बढ़ावा दें।

  • उच्च-जोखिम वाले इलाकों में रहने वालों का सम्मानजनक पुनर्वास करें।

  • उचित प्रवेश शुल्क लगाएं। व्यस्त दिनो में वाहनों की सीमा तय करें

  • प्रवेश या अन्य शुल्कों से कचरा प्रबंधन व ढलान की देखरेख की जाए।

  • स्थानीय निगरानी तंत्र बनाएं। जैसे- मौसम केंद्र, मिट्टी की नमी मापक और सामुदायिक रूप से संचालित प्रारंभिक चेतावनी प्रणालियां स्थापित करें

एक नई हिमालयी राजनीति की ओर

जलवायु का दृष्टिकोण हमें नई दिशा में सोचने को बाध्य कर रहा है। उस क्षेत्र में, जहां बादल फटने की हर घटना पिछली त्रासदी की याद दिलाती है, वहां राजनीति को दोहन से लचीलापन (रेसिलेंस) की ओर मुड़ना होगा। इसका मतलब है कि उन परियोजनाओं को “ना” कहना, जो बैलेंस शीट पर तो लाभकारी दिखती हैं लेकिन पारिस्थितिकी को कंगाल बना देती हैं। इसका अर्थ है बजट, बायलॉज और निवेश को आईपीसीसी के जलवायु परिदृश्यों के अनुरूप करना होगा न कि पिछली सदी के मौसम के अनुमान पर।

यही हिमालयी राज्यों का नया राजनीतिक एजेंडा होना चाहिए। सम्मान के साथ अस्तित्व। यह किसानों को एकजुट कर सकता है, जिनके खेत ढह जाते हैं, होटल मालिकों को जिनकी बुकिंग हर बाढ़ के बाद कम हो जाती है, युवाओं को जो सड़कों के ढहने पर पलायन कर जाते हैं और वैज्ञानिकों को जो ग्लेशियरों को पिघलते हुए देखते हैं।

क्योंकि सच यह है कि आपदाएं हमें छोड़कर नहीं जाएंगी। सवाल यह है कि हम उनका सामना उसी मॉडल से करेंगे, जिसने हमें यहां पहुंचाया है या फिर लोगों, राजनीति और पहाड़ों के बीच एक एक नया समझौता करेंगे।

अगर धराली और सेराज की गर्जना हमें इस चुनाव के लिए झकझोर नहीं पाती, तो फिर कुछ भी नहीं हो सकता।

लेखक शिमला के उप महापौर रह चुके हैं और लेह विजन दस्तावेज से जुड़े रहे। वह वर्तमान में केरल अर्बन कमीशन के सदस्य हैं

Down to Earth- Hindi
hindi.downtoearth.org.in