यदि तापमान में हो रही बढ़ोतरी जारी रहती है तो सदी के अंत तक वैश्विक अर्थव्यवस्था को करीब 10 फीसदी का नुकसान उठाना पड़ सकता है। जबकि यदि ट्रॉपिक्स की बात करें तो यह नुकसान 20 फीसदी से अधिक हो सकता है। अनुमान है कि यदि सदी के अंत तक कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जन में कमीं नहीं आती तो तापमान में 4 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हो जाएगी।
हालांकि इससे पहले भी शोधकर्ताओं ने ग्लोबल वार्मिंग से अर्थव्यवस्था को होने वाले नुकसान का अनुमान लगाया है पर यह नुकसान उससे कहीं ज्यादा है। यह शोध पॉट्सडैम इंस्टीट्यूट फॉर क्लाइमेट इंपैक्ट रिसर्च (पीआईके) और मर्केटर रिसर्च इंस्टीट्यूट फॉर ग्लोबल कॉमन्स एंड क्लाइमेट चेंज (एमसीसी) के वैज्ञानिकों ने संयुक्त रूप से किया है। जो जर्नल ऑफ एनवायर्नमेंटल इकोनॉमिक्स एंड मैनेजमेंट में प्रकाशित हुआ है।
इस शोध से जुड़े शोधकर्ता लियोनी वेन्ज ने बताया कि तापमान में हो रही बढ़ोतरी उत्पादकता पर असर डाल रही है। जिससे विशेष रूप से कृषि, निर्माण और उद्योग पर असर पड़ रहा है और उसकी उत्पादकता में कमी आ रही है। जिस तरह से फसलों की उत्पादकता घट रही है उसका असर हमारी खाद्य सुरक्षा भी पड़ रहा है। इसे समझने के लिए हमने जो स्टैटिस्टिकल एनालिसिस किये हैं उससे पता चला है कि बढ़ते तापमान से अर्थव्यवस्था को जो क्षति हो रही है वो पहले के अनुमान से कहीं ज्यादा हो सकती है। उनके अनुसार पिछले शोधों में राष्ट्रीय औसत के आधार पर गणना की थी पर हमने क्षेत्रीय स्तर पर इसका अध्ययन किया है जिससे कहीं अधिक स्पष्ट तस्वीर सामने आई है।
शोधकर्ताओं के अनुसार पिछले शोधों के अनुसार हर साल तापमान में 1 डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी से अर्थव्यवस्था पर 1 फीसदी का असर पड़ता है। पर नए विश्लेषण में गर्म क्षेत्रों के उत्पादन में इससे तीन गुणा अधिक नुकसान का पता चला है। हालांकि यह नुकसान भी पूरी तरह सटीक नहीं हैं क्योंकि इसमें हमने अभी भी कई अन्य नुकसान को शामिल नहीं किया है जैसे जलवायु से जुड़ी आपदाओं (समुद्र तल में हो रही वृद्धि) से कहीं अधिक नुकसान हो रहा है जिसकी पूरी तरह किसी क्षेत्र विशेष के आधार पर गणना नहीं की जा सकती।
यह शोध दुनिया के 77 देशों के 1500 स्थानों के जलवायु और अर्थव्यवस्था से जुड़े आंकड़ों पर आधारित है। जहां औद्योगिक देशों में आंकड़ों की बेहतर उपलब्धता है वहीं अफ्रीकी देशों में आर्थिक आंकड़ों का आभाव है।
शोध के अनुसार यह नुकसान दीर्घकालिक नहीं है क्योंकि अभी भी इस बात की आशा बाकि है कि दुनिया के देश अपने उत्सर्जन में कटौती कर लें जिससे तापमान में हो रही बढ़ोतरी कम हो जाएगी। जिससे नुकसान भी घट जाएगा। सबसे महत्वपूर्ण यह नुकसान कहीं ज्यादा तो कहीं कम है। एक ओर जहां ट्रॉपिकल और गरीब देशों में यह नुकसान ज्यादा है वहीं उत्तर में मौजूद कुछ देशों को इससे फायदा भी हो सकता है।
शोधकर्ताओं के अनुसार यदि कार्बन डाइऑक्साइड की आर्थिक कीमत को देखें तो वो पुराने डाइस मॉडल से निकाले गए अनुमान से 4 गुना तक ज्यादा है। गौरतलब है कि जलवायु आर्थिक मॉडल डाइस को नोबेल पुरस्कार विजेता विलियम नॉर्डहॉस ने विकसित किया था। जिसके अनुसार इसका आर्थिक मूल्य करीब 37 डॉलर आंका गया था। जबकि नए अनुमान के अनुसार 2010 की कीमतों के आधार पर देखें तो 2020 में उत्सर्जित प्रति टन कार्बन की कीमत 73 से 142 अमेरिकी डॉलर के बराबर होगी। अनुमान है कि 2030 तक तापमान में हो रही बढ़ोतरी के कारण कार्बन की सामाजिक लागत पहले से लगभग 30 फीसदी अधिक हो जाएगी।
हमें समझना होगा कि पूर्व औद्योगिक काल की तुलना में अब धरती का तापमान करीब 1 डिग्री सेल्सियस बढ़ गया है। जिसके कारण बाढ़, सूखा, तूफान, हीटवेव जैसी आपदाओं की संख्या और तीव्रता में वृद्धि हो गयी है। ऐसे में जब सदी के अंत तक तापमान 3 से 4 डिग्री सेल्सियस अधिक होगा तो सोंचिये उसके कितने विनाशकारी परिणाम होंगे। सिर्फ प्राकृतिक आपदाएं ही नहीं, महामारी, फसलों को नष्ट होना, कीटों का हमला जैसी न जाने कितनी समस्याएं क्लाइमेट चेंज की वजह से सामने आ रही हैं। यदि हमने समय रहते जरुरी कदम न उठाये तो न जाने कितनी नयी समस्याएं और आएंगी जिनका हम अंदाजा भी नहीं लगा सकते। अब हम इसे और नजरअंदाज नहीं कर सकते। यदि हम आज नहीं संभले तो इसकी कीमत न केवल हमें बल्कि हमारे आने वाली पीढ़ियों को भी चुकानी होगी।