लैंगिक न्याय: जलवायु परिवर्तन एक अवरोध

बढ़ रही बेरोजगारी और गरीबी का सीधा प्रभाव महिलाओं की स्थिति पर पड़ रहा है। गरीबों में भी महिलाओं और लड़कियों का अनुपात ज्यादा है
Photo: Supriya singh
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वर्ष 2030 तक विश्व के सभी देश अपने वैश्विक एजेंडा के तहत गरीबी उन्मूलन,भुखमरी की समाप्ति, स्त्री-पुरुष के बीच समानता, लैंगिक न्याय, आर्थिक समता तथा अन्य असमानताओं को समाप्त करने के लक्ष्य को हासिल करने के लिए प्रयासरत हैं, जिससे भावी पीढि़यों के लिए स्वच्छ व स्वस्थ परिवेश सुनिश्चित किया जा सके। गौरतलब है कि ये लक्ष्य बहुआयामी हैं और सामाजिक, आर्थिक तथा पर्यावरणीय पहलुओं को समेकित रखने वाले हैं। वर्तमान जलवायु परिवर्तन के युग में 2030 तक सतत विकास लक्ष्यों (एसडीजी) को प्राप्त करना और कठिन हो जाएगा।

वस्तुतः जलवायु परिवर्तन से होने वाले आर्थिक और पर्यावरणीय नुकसान की चर्चा लगभग सभी मंचों पर होती है, किन्तु इन नुकसानों से उत्पन्न सामाजिक समस्याओं खासकर 'लिंग आधारित' समस्याओं पर बहस बहुत ही कम देखने को मिलती है। लैंगिक न्याय और लिंग समानता की अवधारणा अब व्यापक हो गयी है। इसमें महिलाओं के साथ-साथ अब थर्ड जेंडर समुदायों के भी अधिकारों को शामिल किया जा रहा है।

ऐतिहासिक रूप से तो महिलाएं और थर्ड जेंडर समुदाय (एलजीबीटीक्यू) कभी धर्म के नाम पर तो कभी सामाजिक-सांस्कृतिक परंपराओं, तो कभी आर्थिक विषमता के कारण लैंगिक भेदभाव और अन्याय का शिकार होती रही है; अब जलवायु परिवर्तन इनकी वंचना का एक प्रमुख कारण बनकर उभर रहा है। जलवायु परिवर्तन ने लैंगिक अन्याय व लैंगिक विषमता की समस्या को और भी ज्यादा जटिल बना दिया है।

जलवायु परिवर्तन मानव अधिकारों पर प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों ही तरह के खतरे पेश कर रहा है। इसने भोजन के अधिकार, पानी और स्वच्छता के अधिकार, सस्ती व्यावसायिक ऊर्जा हासिल करने के अधिकार और इसे विस्तार देते हुए विकेन्द्रीकृत व समतामूलक विकास के अधिकार को भी प्रभावित कर रही है।

मजबूरी में किए गए व्यापक स्तर पर पलायन, जलवायु से जुड़ी संघर्ष की स्थितियों के खतरे, स्वास्थ्य और स्वास्थ्य व्यवस्था को सीधे और परोक्ष खतरे तथा आपदाओं के कारण जमीन और जीविका पर होने वाले प्रभाव; ये मुद्दे दर्शाते हैं कि जलवायु परिवर्तन और मानव अधिकार संबंधी चिंताएं एक-दूसरे से अंतर्संबंधित हैं।

गरिमा और सम्मान के साथ जीने का अधिकार ही नहीं, बल्कि जीवन का अधिकार भी दांव पर है। जलवायु परिवर्तन किस तरह मौजूदा विषमताओं को और बढ़ाता है और यह भारत के लिए किस प्रकार हानिकारक हो सकता है, इसका उदाहरण है कि यहां, आर्थिक सम्पन्नता, जातीय और वर्ग संबंधी विषमताएं के साथ-साथ लैंगिक भेदभाव भी यह तय करती हैं कि किसी नागरिक को कितने मानवाधिकार हासिल होंगे।

ऐसे में यह स्वाभाविक है कि महिलाओं, थर्ड जेंडर समुदायों और बच्चियों को पर्यावरण क्षरण की स्थिति में सबसे ज्यादा तकलीफ उठानी पड़ेगी। इसका पहला कारण है कि समाज में संसाधनों पर अधिकार और पहुंच को लेकर भेदभाव बना हुआ है और कुछ खास वर्गों का विशेषाधिकार बना हुआ है।

दूसरा कारण ये कि जरुरी प्राकृतिक संसाधनों तक पहुंच के मामले में स्त्री और पुरुषों की स्थिति एक जैसी नहीं है। यह सत्य है कि जलवायु परिवर्तन प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से महिलाधिकारों को क्षति पहुंचा रहा है।

जलवायु परिवर्तन ने मौसमी घटनाओं में परिवर्तन की तीव्रता और बारम्बारता को बढ़ा दिया है, जिससे बाढ़ एवं सूखे की समस्या गम्भीर होती जा रही है, कृषि पर इसका बुरा प्रभाव पड़ा है। भारत में कृषि का अनुत्पादकीय और अलाभकारी होने के कारण यहां से तेजी से पलायन हो रहा है, जिससे न सिर्फ शहरों में जनसंख्या का भार बढ़ रहा है, बल्कि 'कृषि का महिलाकरण' एक बड़ी समस्या बनकर उभरा है। इससे महिलाओं पा कार्य का अतिरिक्त भार तो बढ़ा ही है साथ ही इससे इनकी खाद्य सुरक्षा और पोषण सुरक्षा पर बुरा प्रभाव पड़ा है। परिणामतः महिलाओं में कई स्वास्थ्य समस्याएं उत्पन्न हो रही है।

जलवायु परिवर्तन की समस्या के मूल में एक अनोखी विडंबना है— जो इस समस्या के लिए सबसे कम उत्तरदायी रहे हैं, वे ही इससे सबसे ज्यादा प्रभावित होने वाले हैं। जलवायु परिवर्तन का सबसे ज्यादा प्रभाव गरीबों पर खासकर गरीब महिलाओं पे देखने को मिलेगा।

बढ़ रही बेरोजगारी और गरीबी का सीधा प्रभाव महिलाओं की स्थिति पर पड़ रहा है। गरीबों में भी महिलाओं और लड़कियों का अनुपात ज्यादा है, जिसकी वजह से वे समस्या की चपेट में और ज्यादा आती हैं। इससे इनके सामने आजीविका का संकट और भी गहरा होता जा रहा है।

महिलायें चारा, इंधन ,पानी और भोजन इकट्ठा करने में मुख्य भूमिका निभाती हैं। इसलिए जंगलों या पर्यावरण में क्षरण होने के कारण इन कामों के लिए महिलाओं को और अधिक मेहनत करनी होती है और अधिक समय लगाना होता है। पानी की कमी, ईंधन की कमी का असर बच्चियों के स्वास्थ्य और उनके स्कूलों की शिक्षा पर भी पड़ता है।

ऐसा देखा गया है कि जहां ये समस्याएं ज्यादा जटिल हैं वहां बच्चियों का स्कूल ड्राप आउट अनुपात ज्यादा है ही; यहां बाल विवाह की दर,महिलाओं के प्रति होने वाले अन्य अपराध की दर भी ज्यादा है। इस कारण औसत रूप से महिलाओं की स्थिति कमजोर होती जाती है।

जलवायु परिवर्तन के कारण आपदाओं (बाढ़, सूखा, सुनामी आदि) की बारम्बारता और तीव्रता बढ़ गयी है। इन आपदाओं के असर पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं और बच्चों पर ज्यादा होता है। इसी तरह वर्ष 2004 में आए भूकंप और सुनामी ने दिखाया है कि आपदा के दौरान भारतीय महिलाएं कैसे ज्यादा प्रभावित होती हैं।

इस दौरान प्रभावित इलाकों में महिलाएं पुरुषों के मुकाबले चार गुना ज्यादा संख्या में मारी गईं। इसके अलावा हिंसा एवं आपदा प्रभावित क्षेत्रों में लैंगिक अपराध जैसे : इनके प्रति हिंसा, यौन दुर्व्यवहार, मानव दुर्व्यवहार, बलातश्रम, वेश्यावृत्ति जैसी समस्याएं काफी तेजी से बढ़ती है।

महिला सशक्तिकरण के विविध पहलुओं को ध्यान में रखते हुए, महिलाओं की स्थिति व अधिकारों के बारे में 1995 में हुए 'बीजिंग सम्मेलन' के 25 वर्ष पूरे होने के अवसर पर एक समीक्षा रिपोर्ट तैयार की गई है जिसमें यह दर्शया गया कि लैंगिक समानता को प्रोत्साहित करने वाली महत्वाकांक्षी योजना ‘बीजिंग प्लैटफ़ॉर्म फ़ॉर एक्शन’ को विभिन्न देशों में किस तरह लागू किया जा रहा है। साथ ही, रिपोर्ट में पुरुषों और महिलाओं के बीच ज्यादा समानता और न्याय सुनिश्चित करने का भी आह्वान किया गया है।

रिपोर्ट में लैंगिक समानता के क्षेत्र में धीमी रफ़्तार वाली प्रगति देखी गई है और रिपोर्ट ध्यान दिलाती है कि लिंग समानता के क्षेत्र में जो प्रगति अभी तक हासिल की गई है, वो व्यापक रूप में मौजूद असमानता, संघर्षों और बहिष्करण वाली राजनीति तथा जलवायु संकट के कारण पलटती नज़र आ रही है।

एक अन्य रिपोर्ट, जिसे संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी), महिला सशक्तिकरण के लिए काम करने वाली यूएन संस्था (यूएन वूमेन), संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) और यूएन के राजनैतिक और शान्ति निर्माण मामलों के विभाग (यूएनडीपीपीए) ने साझा रूप से तैयार की है-"जेंडर, क्लाइमेट एंड सिक्योरिटी: सस्टेनिंग इंक्लूसिव पीस ऑन दी फ्रंटलाइंस ऑफ क्लाइमेट चेंज" नामक यह रिपोर्ट जलवायु परिवर्तन, सुरक्षा संकट और लैंगिक समानता के बीच के सम्बन्ध से अवगत कराती ये रिपोर्ट नाज़ुक हालात वाले देशों में लैंगिक समानता व महिला सशक्तिकरण के लिए ज़्यादा निवेश और राजनैतिक व आर्थिक क्षेत्र में निर्णय प्रक्रियाओं में महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित करने को अहम बताता है। रिपोर्ट बताती है कि हिसंक संघर्ष और जलवायु परिवर्तन से प्रभावित समुदायों को दोहरे संकट का सामना करना पड़ रहा है।

यह रिपोर्ट दर्शाती है कि कोविड-19 महामारी के कारण खाद्य सुरक्षा,आजीविका,सामाजिक जुड़ाव और सुरक्षा जैसे मोर्चों पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव और ज़्यादा गहरे हो रहे हैं।विभिन्न रूपों में हाशिए का शिकार महिलाएं और लड़कियां अन्य इन्सानों की तुलना में आर्थिक मुश्किलों के बोझ से ज़्यादा पीड़ित हैं। 

हमें यह समझना होगा कि “जलवायु संकट महज़ जलवायु तक सीमित नही है; लैंगिकता, जलवायु और सुरक्षा के बीच गहरा सम्बन्ध है और इससे असरदार ढँग से निपटने के लिए – यह सुनिश्चित करना होगा कि कोई भी पीछे ना छूटने पाए।” इसके लिए हमें सतत प्रयास करते रहने होंगें। इसके लिए जरूरी है कि जलवायु परिवर्तन पर हो रही बहस समानता, ऊर्जा तक पहुंच और साझेदारी पर केंद्रित हो।

विकास सिर्फ आर्थिक और सामाजिक जरूरत नहीं, यह जलवायु परिवर्तन को ले कर अपनाया गया बेहतरीन उपाय भी है। संवेदनशील व सुभेद्य वर्गों के जीवन, स्वास्थ्य और जीविका के मौलिक मानवाधिकारों को सुरक्षित रखने के लिए यह जरूरी है कि हम ऐसे विकास को बढ़ावा दें जो चुनौतियों का सामना करने की ऐसे विशेष वर्ग की क्षमता, दक्षता तथा उनके कौशल को बढ़ा सके और साथ ही जलवायु परिवर्तन के उपायों को भी सफलतापूर्वक लागू कर सके। इस संदर्भ में अधिकार-आधारित नजरिये के जरिये ‘जिम्मेदारियों, असमानताओं और खतरों का विश्लेषण’ किया जा सकता है और ‘भेद-भाव तथा संसाधनों के असमान बंटवारे का समाधान’ कर सकती है।

जलवायु अनुकूलन और शमन की प्रक्रिया तब तक सफल नहीं होगी जब तक हम गरीबी उन्मूलन और लैंगिक न्याय को सुनिश्चित करने के सफल प्रयास नहीं करेंगे।हमें ऐसी विकेन्द्रीकृत व ऐसी सर्वसमावेशी नीतियों को प्रोत्साहित करना होगा जो जलवायु न्याय को सुनिश्चित करने के साथ-साथ लैंगिक समानता और महिलाधिकारों को प्रोत्साहित करता हो।

(इस लेख में लेखकों के अपने विचार हैं। ऐसा जरूरी नहीं है कि ये डाउन टू अर्थ से मेल खाते हों)

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