इलस्ट्रेशन: रितिका बोहरा
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साहित्य में पर्यावरण: असल संकट का चलचित्र

आम जीवन में दुख और बेबसी का एक बड़ा हिस्सा पर्यावरण संकट से जुड़ा है। यहां से सिहरन पैदा करने वाली सिनेमाई कहानियां भी जन्म ले रही हैं
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 - नील माधव पंडा-

किसी शहरी कंक्रीट जंगल में पैदा हुए और पले-बढ़े लोगों के लिए पर्यावरण संबंधी चिंताएं कम महत्वपूर्ण और सैद्धांतिक लग सकती हैं। लेकिन जो लोग प्रकृति के बीच पले-बढ़े हैं, उनके लिए पर्यावरणीय परिवर्तन किसी पारिवारिक संकट के समान है।

मैं बचपन में जमीन से उतना ही जुड़ा था, जितना अपने पिता के गर्म बिस्तर से। इसलिए जब बाढ़ आती है तो वह मेरे लिए व्यक्तिगत समस्या है। अपनी किशोरावस्था में अपने मध्य विद्यालय के रास्ते में पड़ने वाले एक गांव से मैं मशरूम एकत्र करता था।

इसी तरह, सूखा भी मेरे लिए एक व्यक्तिगत समस्या की तरह है। मेरी एक बहन की ससुराल सूखा-प्रभावित क्षेत्र में थी जबकि दूसरी बहन की नदी किनारे, ठीक मेरे गांव जैसी।

मेरे परिवार में कोई भी चर्चा पानी को एक संदर्भ बिंदु के रूप में रखके ही होती है क्योंकि हम पानी और इसकी अधिकता या कमी के बीच पले बढ़े हैं। इसलिए अगर मुझे यह बताना है कि मेरा सिनेमा पर्यावरण के मुद्दों के बारे में क्यों है, तो मुझे सबसे पहले नदी के साथ अपने अटूट संबंध की व्याख्या करनी चाहिए।

मैं दशराजपुर नामक एक गांव में पला-बढ़ा हूं, जो पहले उड़ीसा (अब ओडिशा) के अविभाजित बालंगिर जिले में था और जो महानदी के तट पर स्थित है।

महानदी (शाब्दिक रूप से, महान नदी) सुंदर और आकर्षक और परोपकारी तो है ही लेकिन कभी-कभी यह अपने दूसरे रंग भी दिखाती है। मैंने पूरी दुनिया की यात्रा की है और ऐसे लोगों से मिला हूं जिन्होंने मुझे गर्व से अपनी नदियां दिखाई हैं, सीधी, संकरी, शांत और मैं सोचा करता था कि क्या मेरी विशाल और मनमौजी महानदी की तुलना में ये धाराएं वास्तव में नदियां हैं?

दशराजपुर के पास नदी दायीं ओर मुड़ती है और इसलिए इसका पाट 3-3.5 किमी चौड़ा हो जाता है और यहां नदी अपने पूरे वेग में होती है। हर साल, जब बाढ़ आती है तो नदी का आकार और रूप बदल जाता है। हर बाढ़ के बाद नदी की रेत एक नए ही तरीके से जमा होती है।

नदी के तल पर पाए जानेवाले विशाल पत्थर कभी डूब जाते हैं तो कभी सतह के ऊपर आ जाते हैं। पुरानी झीलें प्रवाह में विलीन हो जाती हैं और नई झीलें बनती हैं। नदी का बदलता स्वरूप हमारे लिए चर्चा का एक महत्वपूर्ण विषय हुआ करता था और आज भी है। नदी जन्म से लेकर मृत्यु तक हमारे जीवन का हिस्सा है।

नवजात शिशु उसके पानी में नहाते हैं और हमारे अपने जो इस दुनिया को छोड़ जाते हैं उनकी राख नदी के हृदय में बिखेर दी जाती है। फसलें, फल, सब्जियां, सभी नदी पर निर्भर थे और विभिन्न मौसम में पाई जाने वाली तरह-तरह की मछलियां हमारे आहार का मुख्य हिस्सा थीं।

मेरे पिता पूरे गांव में सबसे पहले जागते थे और भोर होने के पहले ही वे मंदिर के लिए नदी से पानी लाते थे। मुझे नदी से ज्यादा लगाव इसलिए भी है क्योंकि मैं हमेशा उनके साथ पानी लाने जाया करता था, यहां तक कि सर्दियों में भी। गर्मियों में नदी के तट पर ठंडी हवा चलती थी और पूरा गांव वहीं सोता था।

बड़े होने पर हम नदी के किनारे पिकनिक मनाने लगे। हम नदी किनारे रहनेवाले भूत-प्रेतों के किस्से भी सुना करते थे और ये भूत भी मौसम के साथ बदलते रहते थे। एक डायनों का मौसम भी हुआ करता था, जब वे अलग-अलग गांवों से आकर नदी के तट पर बैठती थीं और जहां जाना हमारे लिए मना होता था।

हम नदी के पास ही पले-बढ़े और इसने हमेशा हमारी जरूरतें पूरी की। हमें कभी पानी की कमी महसूस नहीं हुई। नदी हमारे भोजन में, हमारे खून में और हमारे मन में भी बसी हुई है। आखिर मानव जीवन में नदी इतनी महत्वपूर्ण क्यों है? जो लोग नदी के किनारे पले-बढ़े हैं, वे जानते हैं कि ऐसा क्यों है, लेकिन जो लोग पानी से दूर रहते हैं, वे इसे और भी अधिक तीव्रता से महसूस करते हैं। सब कुछ नदी पर निर्भर है, नहाना, पीना, सब्जियां, फल, गाय, जानवर इत्यादि। यह आपकी आजीविका और जीवन का स्रोत है। मछली से लेकर सब्जियों के बगीचों के लिए पानी तक।

नदी हर मौसम में उत्पादक होती है। बारिश के कारण गिरे पेड़ और लट्ठे मानसूनी नदी की धार में बहकर नीचे आते जिन्हें इकट्ठा करके और सुखाकर हमारा तीन-चार महीने के जलावन का इंतजाम हो जाता। सबसे बड़ा लट्ठा किसे मिला ये गांव में चर्चा का विषय होता था। बरसात का मौसम सबसे अधिक उत्पादक होता था क्योंकि नदी के किनारे जंगली मशरूम उगते थे और बाढ़ के पानी से भरे खेतों में मछलियां होती थीं।

जब नदी में बाढ़ आती, तो हम स्कूल छोड़ देते और खेतों में मछली पकड़ना शुरू कर देते। कभी-कभी तो हमें इस तरह से स्कूल बंक करके मछलियां पकड़ने के लिए मार भी पड़ती थी। इन मछलियों को पकड़ना बहुत आसान था यानी की पानी में गमछा डालो और काम खत्म। अन्य मौसमों में केवल मछुआरे ही मछली पकड़ सकते हैं (क्योंकि आपको यह जानना है कि नदी में कहां जाना है और कैसे मछली पकड़ना है), लेकिन बारिश के दौरान कहीं भी मछलियां पकड़ना आसान होता है।

बारिश के मौसम में मछुआरों को घाटा होता था क्योंकि वे नदी में बड़ी मछलियां पकड़ने नहीं जा सकते थे और छोटी मछलियां तो बाढ़ के पानी में गांव से गुजरने वाली मुख्य सड़क पर भी मिल जाती थीं। डर सिर्फ बिना जहर वाले पानी के सांपों से था। नदी संबलपुर से होकर हमारे पास आती है, जहां प्रसिद्ध हीराकुंड बांध स्थित है। सोनपुर दशराजपुर से दो गांव दूर और नदी की दूसरी तरफ है। नदी का वह खंड न केवल चौड़ा है, बल्कि इसमें कई सुरम्य शिलाएं हैं और कई झीलें और छोटे हरे द्वीप हैं।

यह जगह काफी सुंदर है और एक प्रसिद्ध पिकनिक स्थल है। इसलिए भले ही हमारा गांव सूखाग्रस्त बालंगिर जिले के अंतर्गत आता हो, लेकिन हमें सूखे से ज्यादा नुकसान नहीं हुआ। गांव से 1.5 किमी दूर एक मैदान था और फिर नदी तक चट्टानें थीं। गर्मियों के मौसम में नदी चट्टानों के तल के पास होती थीं लेकिन पानी भरपूर होता था। बारिश के मौसम में नदी चट्टानों को पार कर गांव में प्रवेश कर जाती थीं। पहले, जब सिंचाई नहरें और पंप नहीं थे, जिले के अंदरूनी इलाकों में पानी का कोई स्रोत नहीं था।

इसलिए प्रत्येक गांव में वर्षा जल के संग्रहण और संरक्षण के लिए जलाशयों का निर्माण किया गया। लेकिन अगर उस वर्ष वर्षा अपर्याप्त होती तो जलाशय में पानी कम होता, जिससे सूखे की स्थिति पैदा हो जाती। लेकिन फिर भी, जो नदी के किनारे रहते थे, वे सूखे के प्रभाव से सुरक्षित रहते थे, कम से कम पीने और नहाने के लिए पानी तो था। गर्मियों में लोग 4 किमी दूर पंचमहल से साइकिल पर स्नान करने और अपने मिट्टी के बर्तनों में पीने के लिए पानी भरने के लिए आते थे।

ऐसा इसलिए था क्योंकि वे पानी के लिए हैंडपंप का इस्तेमाल करते थे, जिसमें अक्सर धातु की गंध आती थी, खासकर सूखे मौसम में। इसके अलावा सरकार की ओर से पानी में ब्लीचिंग पाउडर भी डाला जाता था। और इस तरह मैंने अपने पूरे बचपन के दौरान यह देखा कि उस इलाके में नदी के पास रहनेवाले लोग सबसे बड़े खजाने के मालिक हुआ करते थे।

कौन कितने पानी में (2015)

उड़ीसा में जब तक राज्य सरकार ने सिंचाई नेटवर्क का निर्माण नहीं किया, तब तक उन जिलों के अंदरूनी हिस्से सूखे से प्रभावित थे। सोनपुर,जो उससे पहले अविभाजित बलांगिर का हिस्सा था, 1992 में एक जिला बन गया, और अब मेरा गाँव उसी के अंतर्गत है। जैसे सोनपुर अविभाजित बलांगिर में था, वैसे ही नुआपाड़ा अविभाजित कालाहांडी में था।

नुआपाड़ा, कालाहांडी और बलांगिर सूखे के लिए प्रसिद्ध थे, जिसका मुख्य कारण जल स्रोतों का अभाव था। नदी के निकट होने के कारण, सोनपुर की स्थिति बेहतर थी । केवल बीरमहराजपुरैया के आसपास एक इलाका था जो ठेंगो डैम के निर्माण के पहले लगभग हर साल सूखे की चपेट में आता था। 90 के दशक में उड़ीसा सरकार ने नदी के पानी को 50 किमी तक अंदरूनी इलाकों में पहुंचाने के लिए एक बड़ी पंप परियोजना की शुरुआत की तब से हमारे गांव और अधिकांश अन्य गांवों में भी पानी की व्यवस्था है। सरकार ने नदी के पानी को सूखे क्षेत्रों में ले जाने के लिए नहरें भी बनवायीं लिहाजा कालाहांडी आज हरा-भरा है ।

2002 में मैंने "बूंद: ड्रॉप ऑफ होप" नामक एक फिल्म बनाई, जिसे संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) द्वारा कमीशन किया गया था। यूएनडीपी एवं ओडिशा सरकार साथ मिलकर जल संरक्षण के लिए लोगों को उनकी पारंपरिक तकनीक (प्रत्येक गांव में जलाशय ) का प्रयोग करने में मदद कर रही है और यह प्रोजेक्ट इसी को दर्शाने के लिए शुरू किया गया था ।

जब मैं 2002 में भुवनेश्वर से गाड़ी चलाकर कोमना (नए नुआपाड़ा जिले में) गया था तो मुझे ‘मरुस्थलीकरण’ शब्द की स्पष्ट भौतिक अभिव्यक्ति दिखाई दे रही थी। पृथ्वी बिल्कुल उजाड़ एवं काली पड़ चुकी थी और जमीन की नमी खत्म हो जाने की वजह से उसमें बड़ी-बड़ी दरारें पड़ गयी थीं । भंवर या बबूल (कांटेदार बबूल जोकि मरुस्थल में पाए जाते हैं ) के अलावा मीलों तक कोई पेड़ नहीं दिख रहा था।

यह ओडिशा के सबसे हताशापूर्ण एवं गरीबी से ग्रस्त इलाकों में से एक था, और यह उस गांव से बहुत दूर नहीं था जहां मेरा बचपन बीता था । गर्मियों में जब जमीन सूखे से झुलस जाती थी तब स्थानीय लोग बड़े पैमाने पर पड़ोसी राज्यों के शहरों जैसे रायपुर और हैदराबाद इत्यादि का रुख करते थे जहाँ वे प्रवासी मजदूरों के रूप में काम करते थे। इसलिए मैं अपनी फिल्म के लिए मानसून के दौरान कोमना गया था, क्योंकि मुझे पता था कि उस समय लोग अपने गांवों में होंगे।

कोमना में मैंने देखा कि पानी के बिना क्या हालत होती है। जब बारिश हुई तो मुझे एहसास हुआ कि पानी कितना महत्वपूर्ण है। जलाशय परियोजना में शुरुआती दौर में कई अड़चनें आईं। गांव वालों का कहना था कि अगर जलाशय में पानी पूरे गाँव में केवल एक ही जगह संग्रहित किया जाएगा तो उससे उन्हें क्या फायदा मिलेगा। बांध कहां बने इस पर भी सवाल उठे, आखिर पानी घर तक तो नहीं आएगा। मैं देख सकता था कि आगे एक लंबी लड़ाई थी। खैर संघर्ष के बाद इलाके की कायापलट हो गयी ।

मैं जब सोलह साल बाद कोमना वापस गया तब मैं उस जगह को पहचान नहीं पाया । बेजान काले रंग की स्लेट पर धूसर रिबन सी फैली वह सड़क अब हरे-भरे खेतों और पेड़ों से घिरी थी । मैं उसी ब्लॉक में वापस गया और उस ढाबे पर भी गया जहां हम बरसों पहले खाया करते थे । जिस ग्रामीण ने 2002 में पारंपरिक जलाशयों के बंद होने से उत्पन्न समस्याओं के बारे में बताया था, वह बदलाव का एक उदाहरण बन गया। उसके गांव के लोगों ने सरकार और यूएनडीपी की मदद से पानी बचाना शुरू कर दिया था।

पानी के इस भंडार की सहायता से वे फिर से छोटे पैमाने पर खेती शुरू करने में सक्षम हो गए । यह सूखे महीनों के दौरान रायपुर और हैदराबाद की ओर बड़े पैमाने पर होनेवाले पलायन को रोकने के लिए पर्याप्त था। लोग खेती के लिए गांवों में ही रुक गए और अपने जीवन यापन के लिए पर्याप्त अन्न उपजा लिया।

पारंपरिक जल-साझाकरण तकनीक के अनुसार जलाशयों के साथ छोटे नाले, या चैनल बनाए गए और सरकार के नेतृत्व वाले जल-बंटवारे और व्यक्तिगत जल-साझाकरण , दोनों तरीके अपनाए जाते थे। सापेक्षिक खुशहाली ने उस छोटे, बंजर गाँव को एक हलचल भरी बस्ती में बदल दिया था, और मेरे किसान मित्र ने एक ट्रैक्टर और मोटरबाइक खरीदने के अलावा अपनी बेटी की शादी भी कर दी थी, गांव में एक विद्यालय भी खुल गया था ।

इसने ‘कौन कितने पानी में’ के लिए प्रेरणास्रोत का काम किया । मैं पानी संग्रहित करने के फायदे देख चुका था । पानी पेट्रोल की तरह हो गया था - जिसके पास भी पानी था , वह फला-फूला । कोमना में मैंने महसूस किया कि जल संग्रह करने वाले गांवों का महत्व अधिक था। जिन गांवों में पानी संग्रहीत नहीं किया जाता था वे अपनी जरूरतों के लिए दूसरे गांवों से पानी लेने पर मजबूर थे।

फिल्म का शीर्षक, कौन कितने पानी में, एक वाक्यांश का संक्षिप्त संस्करण है जिसका मोटे तौर पर अर्थ है ‘हम देखेंगे कि कौन कितनी परेशानी में है’, लेकिन इसका शाब्दिक अनुवाद है ‘हम देखेंगे कि कौन कितने पानी में खड़ा है।’ फिल्म में, स्थानीय राजा की बेटी और दूसरी जाति के लड़के के बीच प्रेम होने के कारण शासक वर्ग अपने गांव से निचले वर्गों को निकाल देता है। प्रेमी जोड़े की हत्या कर दी जाती है और राजा दोनों समुदायों को विभाजित करने के लिए एक दीवार खड़ी करवा देता है।

निर्वासित प्रजा पानी का संरक्षण करती है और समय बीतने के साथ समृद्ध और शक्तिशाली हो जाती है, जबकि शासक वर्ग, आलसी होने के कारण दरिद्र और प्यासा रह जाता है। आखिरकार, क्रूर राजा का बेटा राजनीतिक कूटनीति का प्रयोग करके समझौता कराता है और निचले गाँव के पानी का इस्तेमाल कर पाने की शर्त रखता है ।

कड़वी हवा (2017)

‘कौन कितने पानी में’ (केकेपीएम) के बाद मैंने 'कड़वी हवा' बनाई। मैं इसके ठीक बाद 2015 में एक और फिल्म के लिए बुंदेलखंड गया था, और हम रास्ते में पान की दुकान पर रुक गए थे। दुकानदार ने पान से ज्यादा प्लास्टिक के छोटे-छोटे पाउच रखे थे, जिसे मैं देसी दारू समझ रहा था। लेकिन जब मैंने पूछा कि यह क्या है तो उन्होंने कहा ‘पानी’।

उनके पास पानी की पाउचों की खेप ले जाने वाले ट्रैक्टर थे और ग्रामीण एक-दो रुपये में पानी का एक पाउच खरीदकर गुजारा करते थे। उस गांव में मेरे जीवन का एक परेशान करने वाला अनुभव प्राप्त हुआ : लोग लापरवाही से कह रहे थे, फलां आदमी अभी दो महीने पहले मर गया था, यह आज चला गया, इत्यादि। घर-घर में मौत का आलम था।

एक के बाद एक किसान आत्महत्या कर रहे थे और यह बात इतनी सामान्य हो चुकी थी जैसे कुछ हुआ ही न हो। जब मैंने पढ़ना शुरू किया, तो पता चला कि ये सभी सूखे जलवायु परिवर्तन और पानी की कमी से संबंधित हैं।

इससे पहले, पानी के विषय में मेरी रुचि 1999 के सुपरसाइक्लोन के बारे में थी - यह वो तटीय क्षेत्र था जो पानी की अधिकता से पीड़ित था। मैंने बांग्लादेश में भी पानी की अधिकता देखी थी: मैं महिला सशक्तिकरण पर एक फिल्म के लिए नियमित रूप से वहां जा रहा था, और जब हवाई जहाज पहली दफा उतर रहा था तो मैं समझ ही नहीं पा रहा था कि हम कहां उतरेंगे।

नीचे जमीन से अधिक पानी था। बुंदेलखंड वहां से अधिक दूर नहीं है लेकिन दोनों जगहें मानों अलग दुनिया में हों। वहाँ हालात सीधे उलट गए। मुझे 2005 में बनाई अपनी फिल्म ‘क्लाइमेटस फर्स्ट ऑरफंस’ की याद आ गयी, जोकि ओडिशा में अक्सर आनेवाले चक्रवातों के बारे में थी । आखिर ऐसा क्यों हो रहा था और ये चरम जलवायु घटनाएं पहले ऐसी नियमितता के साथ क्यों नहीं होती थीं।

अब हम लोगों को किसी जगह से लोगों को निकाल सकते हैं, उनतक पानी पहुंचा सकते हैं , आपदा न्यूनीकरण का अभ्यास कर सकते हैं और चक्रवात आश्रय इत्यादि बना सकते हैं , जोकि अच्छी बात है लेकिन आखिर चक्रवातों के लगातार आने का कारण क्या है।

बचपन में, हम अक्सर एक कहावत सुनते थे,‘जला बहुने सर्वनासा, जल बिहुने सर्वनासा’: बहुत अधिक पानी आपदा का कारण बनता है, बहुत कम पानी आपदा का कारण बनता है। कड़वी हवा में ये दो चरम स्थितियां दर्शायी गईं । सूखा प्रभावित चंबल में एक बूढ़ा, अंधा आदमी सरकारी लोन कलेक्टर का मुखबिर बन जाता है और कर्जदारों ने अपना पैसा कहाँ छुपाया है इसकी जानकारी वह उसे दे देता था।

बदले में लोन कलेक्टर ने बूढ़े के बेटे का कर्ज माफ कर दिया था क्योंकि बूढ़े को डर था उसका बेटा भी अवसादग्रस्त होकर आत्महत्या कर लेगा। लोन कलेक्टर की अपनी अलग परेशानी है - वह अपने परिवार को ओडिशा में चक्रवात प्रभावित तटीय क्षेत्र से बाहर निकालने की कोशिश कर रहा है। एक दृश्य में बूढ़ा संजय मिश्रा पूछता है, तुम कहां से हो? लोन कलेक्टर रणवीर शौरी जवाब में कहते हैं, “उड़ीसा”।

बूढ़े के किरदार में संजय मिश्रा आह भरते हैं, ओडिशा - “तुम्हारे हर घर में एक तालाब है!” इतना पानी । और रणवीर रूखेपन से कहते हैं, “हां, थोड़ा ज्यादा”। हमने यह असंतुलन पैदा किया है। हम इस ग्रह के विनाश के निर्माता हैं।

मेघा का तलाक (2019)

मैंने 2019 में इंटरडिपेंडेंस नामक एक आंदोलन के लिए एक लघु फिल्म बनाई, जिसे एनजीओ आर्ट फॉर द वर्ल्ड द्वारा शुरू किया गया और संयुक्त राष्ट्र द्वारा संरक्षित था। इस अभियान का उद्देश्य जलवायु परिवर्तन पर प्रकाश डालना था।

मेरी फिल्म “मेघा का तलाक” के केंद्र में एक बच्चा है जो कभी स्क्रीन पर दिखाई नहीं देता, लेकिन जिसका खोया बचपन समस्या का प्रतीक है: दमा के रोगी बच्चे को उसकी मां देहरादून ले जाती है क्योंकि दिल्ली की हवा उसके लिए बहुत जहरीली है। एक पिता के रूप में, मैं उसी प्रतिबंध से स्तब्ध था: 2011 में, डॉक्टर ने मेरे बेटे, आत्मन को दौड़ने का अभ्यास करने के लिए पार्क में जाने से रोकने के लिए कहा।

आत्मान स्कूल में स्प्रिंट में अच्छा कर रहा था और वह एक धावक बनना चाहता था, लेकिन दिल्ली प्रदूषण की पूरी तरह से मानव निर्मित बाधा, ने उसके कदमों को रोक दिया । मैं कॉलेज के बाद सीधा दिल्ली आ गया था जहां मैंने अपना करियर और अपने परिवार के लिए एक घर बनाया। दिल्ली सही मायनों में मेरी कर्मभूमि रही है।

आत्मन अपने स्कूल से प्यार करता था और मैं एक गर्वीला पिता था जो उसे उसके अच्छे वातावरण से अलग करने के लिए तैयार नहीं था। लेकिन लाखों माता-पिता की तरह, मैं दिल्ली के पर्यावरण के बारे में कुछ नहीं कर सकता था, खासकर दिवाली के आसपास, जब शहर धुंध से घिर जाता है। और लोग खेत की आग से लेकर पटाखों तक सब कुछ को दोष देते हैं। अब जबकि आत्मन किशोर है, उसे दिल्ली से नफरत है। और वह भी समझता है कि दिल्ली की जहरीली हवा के लिए कौन जिम्मेदार है - हम, शहर के लोग।

कलीरा अतीता (बीता हुआ कल) - 2021 केकेपीएम फिल्म स्पष्ट रूप से एक संदेश देना चाहती है लेकिन इसका एक उद्देश्य मनोरंजन भी है। कड़वी हवा तुलनात्मक रूप से बहुत कठोर है: बंजर घाटियों में देखने योग्य कुछ नहीं है और कुछ है भी तो वह आसन्न मानव निर्मित विनाश की भावना को दूर करने के लिए बहुत कम है।

मेरी नवीनतम फिल्म कलीरा अतीता (बीता हुआ कल) बिल्कुल अलग है: फिल्म में एक चरित्र और एक ही स्थान है जो कि इसके कठोर प्रभाव को बढ़ाती है ।

कलीरा अतीता के बारे में मैंने तब सोचा जब ओडिशा का तटीय क्षेत्र एक चक्रवात से तबाह हो गया था और दूसरा आनेवाला था । मैं निराशा की गहराइयों में था और मुझे लग रहा था कि कुछ नहीं किया जा सकता - न मेरे द्वारा बल्कि किसी के भी द्वारा । मैंने अपने सहायक निर्देशक से कहा कि वह ओडिशा के सतभाया में फिल्म की शूटिंग के लिए एक क्रू को साथ लाए ।

हमारे पास कोई स्क्रिप्ट नहीं थी, कोई पटकथा नहीं थी, कोई संवाद नहीं था। यह किरदार कड़वी हवा के कलेक्टर गुनू का था, जिसका परिवार पिछले चक्रवात में मारा गया था। वह अगले चक्रवात से ठीक पहले अपने तटीय गांव लौटता है जब लोगों को सुरक्षित क्षेत्रों की ओर ले जाया जा रहा होता है । लेकिन जब हर कोई दूर जा रहा है, वह ज्वार के खिलाफ समुद्र की ओर चल पड़ता है , इस सोच में कि वहां अपने परिवार से मिल पाएगा । समुद्र उमड़ता है और उसके गांव को अपनी चपेट में ले लेता है ।

सतभया सात गांवों का एक संग्रह है, जिनमें से अधिकांश समुद्र की बलि चढ़ चुके हैं । एक हैंडपंप है, जो कभी गांव के बीच में था लेकिन अब समुद्र के किनारे है। यह क्षेत्र अब रहने योग्य नहीं है - यहां कुछ भी नहीं उगता है - और लोगों को अन्य अंदरूनी गांवों में स्थानांतरित कर दिया गया है। मैंने क्लाइमेटस फर्स्ट ऑरफंस की शूटिंग यहीं की थी और एक कामचलाऊ क्रू की मदद से कलीरा अतिता भी शूट किया था।

हम रात में कीड़ों, सांपों और जंगली जानवरों से जूझते हुए, फिल्म में दिखाई देने वाली सुनसान झोपड़ियों में सोए थे। पहले कुछ दिनों में अधिकतर लोग बीमार पड़ गए। पितोबाश, जो मुख्य किरदार निभा रहा था, ने लगभग हार ही मान ली थी ।

हमें हार मानकर शूट को बीच में बंद करना पड़ा । हालांकि बड़ी मुश्किल से मैंने एक ऐसी फिल्म की शूटिंग की, जो उस जगह की स्थिति, हमारे दल की और उस समय मेरे दिमाग की स्थिति को दर्शाती है। शायद मानवजाति का अब कुछ नहीं हो सकता और दुनिया का अंत तय है। एक कलाकार परेशान होने पर ज्यादा अभिव्यक्त करता है।

केवल छह वर्षों में, मैं जल संघर्ष को चित्रित करने से लेकर चरम मौसम की स्थिति तक, और फिर दुनिया के अंत तक पहुँच गया, जो कि कलिरा अतिता है। और हमने यह कैसे किया है ये मैं अपनी नयी फिल्म में बाताऊंगा । मेरी पर्यावरण की कहानियां दुख की कहानियां हैं। मैंने 1999 के सुपरसाइक्लोन से शुरुआत की और कोमना सकारात्मक बदलाव को दर्शाता है। अगले कुछ वर्षों तक मुझे लगा कि हम मनुष्य और प्रकृति के बीच का संबंध बेहतर बनाने की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं।

लेकिन 2005-06 तक (जब मैंने क्लाइमेटस फर्स्ट ऑरफंस बनाई ) हालात फिरसे बिगड़ने लगे। मैंने पानी को लेकर पहला संघर्ष 2014 में देखा था । केवल छह वर्षों में, मैं जल संघर्ष को चित्रित करने से लेकर चरम मौसम की स्थिति तक, और फिर दुनिया के अंत तक पहुँच गया, जो कि कलीरा अतीता है। और हमने यह कैसे किया है ये मैं अपनी नयी फिल्म में बाताऊंगा ।

(लेखक फिल्म निर्देशक हैं और उन्होंने पर्यावरण के मुद्दों पर अनेक फिल्मों का निर्देशन किया है)

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