आसान पहल से दूर हो सकता है मरुस्थलीकरण का संकट

मरुस्थलीकरण रोकने के लिए वानिकी के माध्यम से खराब मिट्टी में सुधार, पानी के उपयोग की दक्षता को बढ़ाना, मिट्टी का कटाव रोकना और बेहतर कृषि प्रणालियों को अपनाना होगा।
तारिक
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दुनिया भर के जलवायु वैज्ञानिकों को “पॉजिटिव फीडबैक लूप” नामक चिंता सता रही है। यह वह प्रक्रिया है जब किसी एक चीज में मात्रात्मक बदलाव लाने पर दूसरी चीज में परिवर्तन आ जाता है अथवा दूसरी चीज में मात्रात्मक बदलाव पहली चीज को प्रभावित करता है। वैज्ञानिकों को डर है कि यह पॉजिटिव फीडबैक लूपजलवायु के संकट को कई गुणा बढ़ाकर नियंत्रण से बाहर कर देगा।

मरुस्थलीकरण को पॉजिटिव फीडबैकलूप का एक उदाहरण माना जा सकता है। ठीक वैसे ही जैसे आर्कटिक में जमी बर्फ पिघल रही है, साइबेरियन फर्माफ्रोस्ट गल रहा है और समुद्र तल से बड़े पैमाने पर मीथेन गैस निकल रही है। जलवायु का संकट मरुस्थलीकरण बढ़ा रहा है, और दूसरी तरफ मरुस्थलीकरण भी इस समस्या को गंभीर कर रहा है। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि यह एक प्रकार का दुष्चक्र है जो लगातार जारी है।

इसे समझने की जरूरत है लेकिन पहले मैं स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि यह बेहद जटिल प्रक्रिया का सरलीकरण है।

हमारी धरती में मौजूद कार्बन का सबसे बड़ा भंडार मिट्टी में हैं। वातावरण में मौजूद कार्बन से तीन गुणा ज्यादा कार्बन मिट्टी में है। मिट्टी से कार्बन का निकलना तब से जारी है जब से हमने खेती शुरू की है लेकिन अब मरुस्थलीकरण ने इसे काफी बढ़ा दिया है। मिट्टी से कार्बन का उत्सर्जन वातावरण में पहुंचकर वैश्विक तापमान में वृद्धि कर रहा है।

ताजा आंकड़े बताते हैं कि दुनियाभर में 3.6-4.4 बिलियन टन कार्बन (कुल उत्सर्जन का 10-12 प्रतिशत) उत्सर्जन के लिए भू-क्षरण जिम्मेदार है। भारत में कुल उत्सर्जित कार्बन डाईऑक्साइड की तुलना में भू-क्षरण से 50 प्रतिशत अधिक कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जित हो रहा है। भारत दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा कार्बन उत्सर्जक है। यहां भू-क्षरण ने जलवायु संकट में बड़ा योगदान दिया है।

दूसरी तरफ जलवायु संकट सूखा, बाढ़, जंगलों में आग लगने की घटनाओं के जरिए मरुस्थलीकरण को भी बढ़ा रहा है। यह तापमान, सौर ऊर्जा और हवा की प्रकृति में भी बदलाव ला रहा है। इस तरह जलवायु संकट और मरुस्थलीकरण एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं।

इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) की स्पेशल रिपोर्ट ऑन ग्लोबल वार्मिंग ऑफ 1.5 डिग्री सेल्सियस में साफ कहा गया है कि हम वातावरण से बड़े पैमाने पर कार्बन को हटाए बिना 1.5 डिग्री सेल्सियस के लक्ष्य को हासिल नहीं कर सकते। कार्बन हटाने का सबसे बेहतर तरीका यह है कि इसे वनों, चारागाह और मिट्टी में समेट दिया जाए। 1.5 डिग्री सेल्सियस लक्ष्य को हासिल करने के लिए वातावरण से कार्बन को तेजी से सोखने की जरूरत है और यह काम प्राकृतिक कार्बन सिंक की क्षमता में वृद्धि करके हो सकता है। मरुस्थलीकरण से निपटने के लिए भी यह जरूरी है। हमें क्षरित भूमि को ठीक करने के लिए वनीकरण, वनस्पति कवर में सुधार, जल का दक्षतापूर्ण उपयोग और मिट्टी के कटाव को बेहतर कृषि पद्धति के जरिए कम करना होगा। ये तमाम उपाय मिट्टी में बायोमास उत्पादन और जैविक कार्बन कंटेंट में सुधार करेंगे। मरुस्थलीकरण और जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए एक ही तरीका है कि हम प्राकृतिक सिंक बढ़ाएं। ऐसे में सवाल उठता है कि 1.5 डिग्री सेल्सियस के लक्ष्य को हासिल करने के लिए हम इन उपायों को किस तरह और कितने पैमाने पर लागू कर सकते हैं?

2007 में आरईडीडी+ (रिड्यूसिंग एमिशंस फ्रॉम डिफॉरेस्टेशन एंड फॉरेस्ट अपग्रेडेशन) में इसकी रूपरेखा बनाई गई थी। इसमें ऊष्णकटिबंधीय देशों को वन संरक्षण के लिए मदद देने का प्रावधान था ताकि वे विकसित देशों को कार्बन क्रेडिड बेच सकें। अब तक दुनियाभर में 300 से ज्यादा आरईडीडी+ उपाय किए जा चुके हैं। एक दशक बाद भी प्रमाण नहीं हैं कि वनों की कटाई रोकने मेंइसने क्या योगदान दिया है। कार्बन मार्केट ढह गया है। आरईडीडी+ के लक्ष्यों को हासिल करने के लिए विकसित देशों से मिलने वाली मदद भी उम्मीदों से बहुत कम है। इस कारण आरईडीडी+ कामयाब नहीं हो पाया। लेकिन प्राकृतिक कार्बन सिंक को बढ़ाने के लिएइससे मिला सबक नया वैश्विक तंत्र बनाने में मददगार हो सकता है। इस नए वैश्विक तंत्र को हम सिंक मैकेनिजम का नाम दे सकते हैं। 

पहला सबक यह है कि भूमि और वन से संबंधित कोई भी तंत्र तभी कामयाब होगा, जब उन पर समुदाय का स्वामित्व हो। अध्ययन बताते हैं कि मूलनिवासियों और समुदाय के स्वामित्व से वन संरक्षण के शानदार नतीजे हासिल हुए हैं और वह भी बेहद कम निवेश पर। सिंक मैकेनिजम भी तभी कारगर होगा जब लाखों वनवासी और किसान साथ मिलकर भूमि और वन क्षरण को कम करने की दिशा में काम करें और वन व भूमि में कार्बन स्टॉक को बढ़ाएं।

दूसरा, कार्बन स्वनियोजन की धारणा भी जरूरी है। दूसरे शब्दों में कहें तो, सतत वनों और कृषि प्रबंधन की विधियों में सुधार का आधार यह तंत्र हो। इससे सामाजिक, आर्थिक और पारिस्थितिक लाभ सुनिश्चित होंगे।

तीसरा, भूमि और वन आधारित तंत्र कार्बन क्रेडिड से नहीं टिक सकता। इसे बाजार की दया पर नहीं छोड़ा जा सकता। इसे वित्त पोषित करने के लिए बाजार से इतर सोचना होगा। इसलिए हमें ऐेसा तंत्र विकसित करने की जरूरत हो जिसमें बाजार का दखल न हो और जहां फंड समुदाय की क्षमता में विकासऔर स्थानीय निकायों पर खर्च हो।उनके प्रदर्शन और कार्बन कम करने में योगदान देने के आधार पर उन्हें पुरस्कृत किया जाए।

अंत में, कोई भी वैश्विक तंत्र केवल अंतरराष्ट्रीय फंडिंग पर निर्भर नहीं रह सकता। आरईडीडी+ का अनुभव बताता है कि एक बार विदेशी फंडिंग रुकने पर परियोजनाएं टिक नहीं पातीं। इसलिए सिंक मिकैनिजम के लिए फंड घरेलू और अंतरराष्ट्रीय संसाधनों से मिलना चाहिए।

जंगलों का नुकसान रोककर और दोबारा लगाकर 2020 से 2050 के बीच 150-200 बिलियन टन कार्बन कम किया जा सकता है। इस अवधि में शुष्क क्षेत्रों में कृषि भूमि में अतिरिक्त 30-60 बिलियन टन कार्बन का संचय किया जा सकता है। जंगलों और कृषि की समस्या को कम करने वाले सिंक मिकैनिजम से एक तिहाई से ज्यादाजलवायु आपदा कम की जा सकती है।

अच्छी बात यह है कि विभिन्न देशों ने सिंक का महत्व समझना शुरू कर दिया है। देशों ने पेरिस समझौते के तहत अपने नेशनली डिटर्मिंड कंट्रीब्यूशन (एनडीसी) में कार्बन सिंक बढ़ाने में दिलचस्पी दिखाई है। एनडीसी का एक विश्लेषण बताता है कि 100 से ज्यादा देशों ने अपनी क्लाइमेट मिटिगेशन रणनीति के तहत भूमि उपयोग व वनों पर ध्यान केंद्रित किया है। अब जरूरत यह है कि सभी देशों को सिंक मैकेनिजम के लिए राजी किया जाए ताकि मुंह बाए खड़े जलवायु संकट से लड़ा जा सके।

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