हवा में मौजूद जिस धूल और रेत को हम अक्सर नजरअंदाज कर देते हैं, वो अपने आप में एक बड़ी समस्या बन चुके हैं। यूएनसीसीडी रिपोर्ट से पता चला है कि हर साल 200 करोड़ टन धूल और रेत के कण हमारे वातावरण में प्रवेश करते है। यह मात्रा कितनी ज्यादा है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इस धूल और रेत का कुल वजन गीजा के 350 महान पिरामिडों के बराबर है।
वहीं 2015 से 2019 के आंकड़ों को देखें तो अब तक करीब 42 लाख वर्ग किलोमीटर जमीन इस धूल की भेंट चढ़ चुकी है। यह धूल स्थानीय वायु गुणवत्ता, खाद्य सुरक्षा, ऊर्जा आपूर्ति और सार्वजनिक स्वास्थ्य पर गहरा असर डालती है।
हालांकि इसके बावजूद वैश्विक जलवायु में आता बदलाव इस धूल को कैसे प्रभावित कर रहा है, इस बारे में बेहद सीमित जानकारी उपलब्ध है। देखा जाए तो जलवायु में आता बदलाव एक वैश्विक घटना है, लेकिन इसका असर स्थानीय समुदायों पर महसूस किया जाता है, जो ज्यादातर मामलों में नकारात्मक होता है।
हालांकि इसका एक सकारात्मक पक्ष भी रिसर्च में सामने आया है, जिसके मुताबिक आर्कटिक में बढ़ते तापमान की वजह से पृथ्वी के कई हिस्सों में धूल का स्तर घट रहा है। गौरतलब है कि पिछले अध्ययन भी इस बात की पुष्टि करते हैं कि पिछले दो दशकों में उत्तर भारत, फारस की खाड़ी के तटवर्ती इलाकों और मध्य पूर्व के अधिकांश हिस्सों में धूल का स्तर कम हो रहा है, लेकिन ऐसा क्यों हो रहा है, इसका कारण स्पष्ट नहीं था।
हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के जॉन ए पॉलसन स्कूल ऑफ इंजीनियरिंग एंड एप्लाइड साइंसेज (एसईएएस) के नेतृत्व में अंतराष्ट्रीय शोधकर्ता ने इसी पहलू की जांच कि है कि कैसे वैश्विक जलवायु में आता बदलाव इन क्षेत्रों में धूल के स्तर को प्रभावित कर रहा है।
रिसर्च के मुताबिक धूल में आती इस कमी के लिए कहीं न कहीं तेजी से गर्म होता आर्कटिक जिम्मेवार है। जो पृथ्वी के अन्य इलाकों के मुकाबले कहीं ज्यादा तेजी से गर्म हो रहा है। इसे आर्कटिक एम्पलीफिकेशन के नाम से जाना जाता है। इस दौरान बर्फ के तेजी से पिघलने के कारण वातावरण में बदलाव आता है।
वैज्ञानिकों के मुताबिक आर्कटिक एम्पलीफिकेशन नामक यह प्रक्रिया जेट स्ट्रीम को अस्थिर कर देती है। इतना ही नहीं यह प्रक्रिया भारत और पाकिस्तान के बीच मौजूद धूल के प्रमुख स्रोतों जैसे अरब प्रायद्वीप और थार रेगिस्तान पर तूफान के रास्ते और हवा की दिशा को बदल देती है। जो उस क्षेत्र से आने वाले धूल में कमी का कारण बन सकता है।
उत्सर्जन में कटौती के साथ-साथ मरस्थलीकरण पर भी देना होगा ध्यान
यह अध्ययन प्रोफेसर माइकल बी मैकलेरॉय के नेतृत्व में किया गया है, जिसके नतीजे प्रोसीडिंग्स ऑफ द नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज (पनास) में प्रकाशित हुए हैं।
इस बारे में प्रोफेसर माइकल बी मैकलेरॉय ने प्रेस विज्ञप्ति में जानकारी साझा करते हुए कहा है कि निश्चित ही दक्षिण और पश्चिम एशिया में स्थानीय तौर पर की जा रही कार्रवाइयां धूल के स्तर को प्रभावित करती हैं। इनमें भूमि का स्थानीय प्रबंधन, तेजी से बढ़ता शहरीकरण और औद्योगीकरण जैसी गतिविधियां शामिल हैं।
लेकिन साथ ही जिस तरह से जलवायु परिवर्तन दुनिया भर में हवा के बहाव और पैटर्न में बदलाव कर रहा है, वो पश्चिम और दक्षिण एशिया में धूल के स्तर में आती हालिया गिरावट का कारण बन रहा है।
भविष्य में इस क्षेत्र में धूल के स्तर पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा, यह काफी हद तक इस बात पर निर्भर करेगा कि दुनिया उत्सर्जन में कैसे कटौती करती है। विडम्बना यह है कि यदि इस उत्सर्जन को रोकने के लिए दुनिया कार्बन से किनारा कर लेती है, तो उसके धूल पर बेहद गंभीर प्रभाव पड़ सकते हैं।
रिसर्च में इसे समझाते हुए लिखा है कि यदि मनुष्य आर्कटिक में बढ़ते तापमान को धीमा करने के लिए उत्सर्जन में पर्याप्त कटौती करते हैं तो उससे जेट स्ट्रीम और हवा का पैटर्न वापस उसी रूप में आ सकता है, जैसा वो बढ़ते तापमान की शुरूआत से पहले था। इससे धूल का स्तर फिर से बढ़ सकता है।
मैकलेरॉय ने इस बारे में प्रेस विज्ञप्ति में कहा है कि, बेशक इसका मतलब यह नहीं कि हमें कार्बन से किनारा नहीं करना चाहिए। लेकिन जैसे वैश्विक समुदाय जिस तरह बढ़ते उत्सर्जन में कटौती करने के प्रयास कर रहा है, उसी तरह सरकारों को भी मरुस्थलों को बढ़ने से रोकने की कोशिशें करनी चाहिए
उनका आगे कहना है कि स्थानीय स्तर पर हमें रेगिस्तान को फैलने से रोकने के लिए और अधिक प्रयास करने की जरूरत है। इसके लिए अधिक पेड़ लगाना और सिंचाई के प्रबंधन पर ध्यान देना अहम है। उनके मुताबिक इसके लिए जलवायु परिवर्तन से निपटने की योजनाओं के साथ-साथ शहरों में कितनी धूल है, इस पर भी कड़ी नजर रखने की जरूरत है।
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यूएन कन्वेंशन टू कॉम्बैट डेजर्टिफिकेशन (यूएनसीसीडी) का भी कहना है कि धूल और रेत भरे तूफानों की करीब 25 फीसदी घटनाओं के लिए कहीं न कहीं इंसानी गतिविधियों जिम्मेवार हैं।
इनमें खनन और जरूरत ज्यादा की जा रही पशु चराई के साथ भूमि उपयोग में आता बदलाव, अनियोजित कृषि, जंगलों का होता विनाश, जल संसाधनों का तेजी से किया जा रहा दोहन जैसी गतिविधियां शामिल है। इन सभी को जल्द से जल्द नियमित और नियंत्रित करने की आवश्यकता है।
इस मरुस्थलीकरण रोकने के लिए वानिकी के माध्यम से खराब मिट्टी में सुधार, पानी के उपयोग की दक्षता को बढ़ाना, मिट्टी का कटाव रोकना और बेहतर कृषि प्रणालियों को अपनाना फायदेमंद साबित हो सकता है। संयुक्त राष्ट्र ने भी माना है कि अगर राजनैतिक इच्छाशक्ति हो तो अगले 10 वर्षों में करीब 100 करोड़ हेक्टेयर जमीन का जीर्णोद्धार किया जा सकता है।