आज, यानी 29 फरवरी को प्रकाशित एक शोध में जलवायु परिवर्तन और सामाजिक आर्थिक परिदृश्यों को लेकर छह देशों में भविष्य में जलवायु परिवर्तन से होने वाले खतरों का मूल्यांकन किया गया है। शोध में भारत, ब्राजील, चीन, मिस्र, इथियोपिया और घाना शामिल किए गए थे।
शोध में सदी के अंत तक जलवायु परिवर्तन के कारण भारत में भीषण लू और गर्मी के तनाव में भारी वृद्धि होने की आशंका जताई गई है।
शोध में सुझाव देते हुए कहा है कि पेरिस समझौते के ग्लोबल वार्मिंग को तीन डिग्री सेल्सियस की तुलना में 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने के तापमान लक्ष्यों का पालन करके भारत में गर्मी के तनाव की वजह से लोगों को होने वाले खतरों को 80 फीसदी तक से कम कर सकता है।
यूके में ईस्ट एंग्लिया विश्वविद्यालय (यूईए) के शोधकर्ताओं की टीम ने इस बात का पता लगाया कि दुनिया भर में तापमान बढ़ने के साथ ही राष्ट्रीय स्तर पर लोगों और प्राकृतिक प्रणालियों के लिए जलवायु परिवर्तन के खतरे किस तरह बढ़ जाते हैं।
शोध से पता चलता है कि सूखे, बाढ़, फसल की पैदावार में गिरावट और जैव विविधता और प्रकृति के विनाश के खतरे बढ़ते तापमान के हर अतिरिक्त डिग्री के लिए काफी बढ़ जाते हैं।
क्लाइमैटिक चेंज नामक पत्रिका में प्रकाशित शोध में कहा गया है कि भारत में तीन से चार डिग्री ग्लोबल वार्मिंग पर परागण की प्रक्रिया आधे से कम हो जाती है जबकि 1.5 डिग्री पर एक चौथाई की कमी होती है।
शोधकर्ताओं के मुताबिक, बढ़ते तापमान को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने से देश 50 फीसदी हिस्सों को जैव विविधता के लिए आश्रय के रूप में कार्य करने में मदद मिलती है, जबकि तीन डिग्री पर यह छह फीसदी रह जाता है।
शोधकर्ताओं ने बताया कि तीन डिग्री सेल्सियस तापमान में वृद्धि के साथ खेती की जमीन के लिए सूखे के खतरों में बहुत बड़ी वृद्धि देखी गई। अध्ययन किए गए प्रत्येक देश में 50 फीसदी से अधिक खेती की भूमि 30 से अधिक सालों में एक वर्ष से अधिक समय तक गंभीर सूखा पड़ने की आशंका जताई गई है।
हालांकि, दुनिया भर में बढ़ते तापमान को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने से खेती की जमीन के सूखे के खतरों में भारत में 21 फीसदी और इथियोपिया में 61 फीसदी के बीच वृद्धि कम हो जाएगी और साथ ही बाढ़ के कारण होने वाली आर्थिक क्षति भी कम हो जाएगी। ऐसा तब होता है जब नदियां और झरने अपने किनारे तोड़ देते हैं और पानी निकटवर्ती निचले इलाकों में घुस जाता है।
शोधकर्ताओं ने कहा कि छह देशों में गंभीर सूखा पड़ने से बचाने वाली वृद्धि भी तीन डिग्री सेल्सियस की तुलना में 1.5 डिग्री सेल्सियस पर 20 से 80 फीसदी कम है।
उन्होंने कहा कि तटीय देशों में समुद्र के स्तर में वृद्धि से जुड़ा आर्थिक नुकसान के बढ़ने के आसार हैं, लेकिन अगर तापमान वृद्धि 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित रही तो यह और धीरे-धीरे बढ़ेगी।
शोधकर्ताओं ने चेतावनी देते हुए कहा कि ग्लोबल वार्मिंग को कम करने के लिए और अधिक प्रयास की आवश्यकता है, क्योंकि वर्तमान में वैश्विक स्तर पर जो नीतियां चल रही हैं, उनके कारण ग्लोबल वार्मिंग में तीन डिग्री सेल्सियस की वृद्धि होने के आसार हैं।
शोध से पता चलता है कि छह देशों में कई इलाके पहले से ही 1.5 डिग्री सेल्सियस पर भारी प्राकृतिक पूंजी खतरे में हैं, जब बढ़ती मानव आबादी के प्रभावों को ध्यान में रखा जाता है। शोध के निष्कर्षों से यह भी पता चला कि जलवायु के अनुकूल जैव विविधता संरक्षण प्रदान करने के लिए संरक्षित क्षेत्र नेटवर्क का विस्तार आवश्यक है।
प्रमुख शोधकर्ता और यूईए के प्रोफेसर राचेल वॉरेन ने कहा, इस शोध के परिणाम पेरिस समझौते की सीमाओं के अनुरूप जलवायु नीतियों के कार्यान्वयन की आवश्यकता की पुष्टि करते हैं, अगर व्यापक और बढ़ते जलवायु परिवर्तन के खतरों से बचना है तो सुझावों पर अमल करना होगा।
वॉरेन ने कहा, शोध इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) 2022 रिपोर्ट में पाए गए ग्लोबल वार्मिंग के साथ जलवायु परिवर्तन के खतरों के तेजी से बढ़ने की अतिरिक्त पुष्टि करते हैं, जो ग्लोबल वार्मिंग में हर अतिरिक्त वृद्धि के साथ गंभीर परिणामों के खतरे कैसे बढ़ता है।
शोधकर्ताओं ने कहा, हालांकि ये अध्ययन केवल छह देशों के खतरों पर आधारित है, अन्य देशों को भी इसी तरह के कठिनाइयों का अनुभव होने का अनुमान है।
उन्होंने कहा कि लोगों और प्राकृतिक प्रणालियों दोनों के लिए खतरों में बड़ी वृद्धि से बचने के लिए जलवायु परिवर्तन शमन और जलवायु परिवर्तन अनुकूलन दोनों पर अधिक जोर देने की जरूरत है।
सह-शोधकर्ता जेफ प्राइस ने उदाहरण देते हुए कहा, प्राकृतिक प्रणालियों पर जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से निपटने और वायुमंडल से कार्बन सोखने का एक अच्छा तरीका पारिस्थितिक तंत्र को उनकी प्राकृतिक स्थिति में बहाल करना है। खासकर अगर वार्मिंग को दो डिग्री सेल्सियस या उससे कम तक रखा जा सकता है। इससे इन क्षेत्रों में प्रकृति को बहाल करने का अतिरिक्त फायदा है।
यह शोध बड़े देशों पर आधारित है क्योंकि वे दूसरों की तुलना में जलवायु परिवर्तन के अधिक खतरे में होते हैं। एशिया, अफ्रीका और दक्षिण अमेरिका महाद्वीपों में फैले, अध्ययन बड़े और छोटे दोनों देशों के उदाहरण प्रस्तुत करते हैं और सामाजिक-आर्थिक विकास के कई स्तरों को शामिल करते हैं।