जलवायु में आते बदलावों के चलते पहाड़ों से बर्फ गायब हो रही है। इसका खामियाजा पहाड़ों के पारिस्थितिकी तंत्र को भुगतना पड़ रहा है। वैज्ञानिकों ने आशंका जताई है कि इसका असर दुनिया के प्रमुख स्कीइंग क्षेत्रों पर भी पड़ेगा। आशंका है कि बदलती जलवायु के साथ प्रमुख स्कीइंग क्षेत्र नाटकीय रूप से साल के उन दिनों में गिरावट का अनुभव करेंगे, जब वो बर्फ से ढके रहते हैं।
रिसर्च में वैज्ञानिकों ने इस बात का भी खुलासा किया है कि उच्च उत्सर्जन परिदृश्यों के तहत आठ में से एक स्की क्षेत्र इस सदी के दौरान ही अपने प्राकृतिक बर्फ के आवरण को पूरी तरह खो देंगें। यह अध्ययन बेयरुथ विश्वविद्यालय और ज्यूरिख विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं द्वारा किया गया है, जिसके नतीजे जर्नल प्लोस वन में प्रकाशित हुए हैं।
शोध के मुताबिक दुनिया में स्कीइंग के लिए लोकप्रिय क्षेत्र पहले ही जलवायु में आते बदलावों को अनुभव कर रहे हैं, जिसमें इन क्षेत्रों में बर्फबारी में आती गिरावट शामिल है। सामाजिक, आर्थिक और पारिस्थितिक रूप से महत्वपूर्ण होने के बावजूद, जलवायु में आता बदलाव वैश्विक स्तर पर स्की क्षेत्रों को कैसे प्रभावित करता है, इस पर बहुत कम शोध किए गए हैं। देखा जाए तो इसपर किए ज्यादातर अध्ययन यूरोप, उत्तरी अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया तक ही सीमित हैं।
यही वजह है कि अपने इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने दुनिया के सात प्रमुख स्कीइंग क्षेत्रों में जलवायु परिवर्तन के पड़ते प्रभावों की जांच की है और यह समझने का प्रयास किया है कि वो वहां साल दर साल जमा होने वाले प्राकृतिक बर्फ के आवरण को कैसे प्रभावित कर रहा है।
इन क्षेत्रों में यूरोपियन आल्प्स, एंडीज पर्वत, एपलाचियन पर्वत, ऑस्ट्रेलियाई आल्प्स, जापानी आल्प्स, न्यूजीलैंड स्थित दक्षिणी आल्प्स, और रॉकी पर्वत शामिल हैं। शोधकर्ताओं ने ओपन स्ट्रीट मैप का उपयोग करके इन क्षेत्रों स्कीइंग के दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण स्थानों की पहचान की है। बता दें कि इन क्षेत्रों में स्कीइंग के दृष्टिकोण से यूरोपीय आल्प्स बेहद महत्वपूर्ण है, जिसकी वैश्विक स्की बाजार में हिस्सेदारी 69 फीसदी है।
शोधकर्ताओं ने अपने अध्ययन में सार्वजनिक रूप से उपलब्ध जलवायु डेटाबेस सीएचईएलएसए का भी उपयोग किया है। इसकी मदद से उन्होंने कम, उच्च और बहुत उच्च कार्बन उत्सर्जन परिदृश्यों को ध्यान में रखते हुए हर एक स्की क्षेत्र में 2011 से 2040, 2041 से 2070, और 2071 से 2100 के बीच साल के उन दिनों की गणना की है जब वो क्षेत्र बर्फ से ढंके रहेंगें।
ऊंचे पहाड़ों की जैवविविधता पर पड़ेगा असर
इस अध्ययन के जो नतीजे सामने आए हैं, उनके मुताबिक उच्च उत्सर्जन परिदृश्य के तहत सदी के अंत तक 13 फीसदी स्की क्षेत्र अपने ऐतिहासिक औसत की तुलना में प्राकृतिक बर्फ के आवरण को पूरी तरह खो देंगें। इसके अतिरिक्त, 20 फीसदी क्षेत्रों में साल के उन दिनों की संख्या आधे से कम रह जाएगी, जब वो बर्फ से ढंके रहते थे।
इसी तरह सदी के अंत तक सालाना बर्फ के आवरण से ढंके रहने वाले दिनों में ऑस्ट्रेलियाई आल्प्स क्षेत्र में सबसे ज्यादा 78 फीसदी की गिरावट देखने को मिल सकती है। वहीं दक्षिणी आल्प्स क्षेत्र में साल के औसतन जितने दिन बर्फ का आवरण मौजूद रहता है, उनकी संख्या में 51 फीसदी की कमी आ सकती है।
जापानी आल्प्स में इन दिनों की संख्या में 50 फीसदी, एंडीज में 43 फीसदी, यूरोपीय आल्प्स में 42 फीसदी, और एपलाचियन पर्वत में 37 फीसदी की गिरावट आ सकती है। वहीं इसमें सबसे कम गिरावट रॉकी पर्वत में देखने को मिलेगी जो 23 फीसदी रहने की आशंका है।
रिसर्च में यह भी सामने आया है कि न केवल उच्च उत्सर्जन परिदृश्य में बल्कि अध्ययन किए गए सभी उत्सर्जन परिदृश्यों में बर्फ के आवरण से ढंके रहने वाले इन दिनों की संख्या में गिरावट आने का अंदेशा है।
इस बारे में जर्नल नेचर क्लाइमेट चेंज में प्रकाशित एक अन्य अध्ययन से पता चला है कि तापमान में चार डिग्री सेल्सियस की वृद्धि के साथ यूरोप के करीब 98 फीसदी स्की रिसॉर्ट प्राकृतिक बर्फ के लिए जद्दोजहद कर रहे होंगें। वहीं यदि हम वैश्विक तापमान में होती वृद्धि को दो डिग्री सेल्सियस पर सीमित रखने में कामयाब भी हो जाएं तो भी यूरोप के 53 फीसदी स्की रिसॉर्ट प्राकृतिक बर्फ की भारी कमी का सामना करने को मजबूर होंगें।
शोधकर्ताओं के मुताबिक बर्फ के आवरण में इस गिरावट के चलते स्की रिसॉर्ट को अधिक ऊंचाई पर कम आबादी वाले क्षेत्रों में शिफ्ट होना पड़ सकता है। जो उन क्षेत्रों में मौजूद जैवविविधता जैसे अल्पाइन पौधों और जानवरों के लिए खतरा पैदा कर सकता है। इसी तरह कृत्रिम बर्फ पर निर्भर रहने वाले रिसॉर्ट्स अधिक आम हो सकते हैं, हालांकि इसके बावजूद यह बदलाव वैश्विक स्तर पर स्की रिसॉर्ट्स को आर्थिक रूप से प्रभावित करेगा।
यह पर्वतीय जैव विविधता के लिए भी बेहद चिंताजनक हैं क्योंकि स्की क्षेत्र के विस्तार के साथ उच्च अक्षांशों पर पाई जाने वाली प्रजातियों को भी स्थान की कमी का सामना करना पड़ सकता है, जो पहले ही संघर्ष कर रही प्रजातियों के अस्तित्व के लिए खतरा पैदा कर सकता है।