
5 अगस्त की दोपहर धराली में आकास्मिक बाढ़ यानी फ्लैश फ्लड का कारण उससे लगभग दोगुनी ऊंचाई वाले क्षेत्रों में हुई बारिश थी। धराली आपदा के कारणों का निरीक्षण करने के लिए गए एक वैज्ञानिक ने डाउन टू अर्थ को यह जानकारी दी। हालांकि उन्होंने यह भी कहा कि बादलों के कारण वहां की तस्वीरें बहुत साफ नहीं आ पाई हैं लेकिन इसमें कोई भ्रम नहीं है कि तीन और चार तारीख को वहां दिन-रात अच्छी-खासी बारिश हुई है। ग्लेशियरों का अध्ययन करने वाले इन वैज्ञानिक का मानना है कि तीखी ढाल की वजह से बारिश का पानी अपने साथ इतना सारा मलबा लाया।
वाडिया हिमालय भूविज्ञान संस्थान में ग्लेशियोलॉजिस्ट (हिम विज्ञानी) अमित कुमार धराली आपदा के कारणों का गठन करने के लिए बनाए गए दल का हिस्सा थे। डाउन टू अर्थ को उन्होंने बताया कि अभी वह रिपोर्ट तैयार कर रहे हैं और संभवतः एक हफ़्ते में इसे सरकार को सौंप दिया जाएगा। उन्हीं के शब्दों में पढ़िए कि इस फ्लैश फ्लड की संभावित वजहों को...
झील टूटने की संभावना खारिज
देखिए, ग्लेशियर या किसी और वजह से बनी किसी तरह की झील के चलते धराली में फ्लैश फ्लड आया यह बात बिल्कुल सही नहीं है, सबसे पहले तो आप इसे रूल आउट कर दीजिए। ऐसी कोई झील बनी नहीं है।
सेटेलाइट से ली गई तस्वीरों में कुछ साफ नहीं आ पाया है, क्योंकि उस क्षेत्र में बादल बहुत हैं। बादलों की वजह से ही हेलिकॉप्टर भी बहुत ऊपर तक नहीं जा पाया। इसके अलावा अभी पैदल जाने के लिए और वहां पर रुकने के लिए भी मौसम अनुकूल नहीं है, लेकिन जो पुरानी सेटेलाइट तस्वीरें हैं उनमें पानी नजर आ रहा है। होता क्या है कि जब गर्मियों में बर्फ के गलने का समय आता है तो चारों तरफ से पानी आकर वहां से निकल रहे नाले में आता है, यही वहां दिखाई दिया, लेकिन कोई बड़ी झील या फिर ऐसा ही कोई बड़ा ढांचा बना हो, ऐसा अभी तक डाटा में दिखा नहीं है।
वैसे नीचे से भी काफी चीजें साफ हुई हैं। स्पष्ट दिखता है कि पानी के साथ काफी मलबा आया है। वह घाटी बहुत बड़ी और उसकी ढाल बहुत तीखी है, ऐसा लगता है कि इसकी वजह से ये मलबा कहीं रुका नहीं और सीधा नीचे आ गया। हालांकि एक संभावना और है… क्योंकि नीचे जाकर घाटी बहुत छोटी यानी संकरी हो जाती है तो उसकी वजह से मलबा अगर पीछे से ज्यादा है तो वो एक साथ नहीं आ पाएगा और धीरे-धीरे करके आएगा। संभवतः यही धराली में दिखा।
तीन-चार अगस्त को हुई अच्छी खास बारिश
आईएमडी कहता है कि नीचे बारिश नहीं हुई है, तो उसकी वजह यह है कि आईएमडी के जितने भी मौसम केंद्र हैं, वे नीचे लगे हुए हैं। मतलब समुद्र तल से 2000 मीटर की ऊंचाई के आसपास, उससे नीचे इनका रेन गेज का स्टेशन हैं। उसी से हासिल डाटा के आधार पर मौसम विभाग ने कहा कि ज्यादा बारिश नहीं हुई है।
लेकिन वाडिया जैसे इंस्टीट्यूट, जो एक खास उद्देश्य से काम करते हैं, उनके भी अपने मॉनिटिरिंग स्टेशन होते हैं। हमारे ग्लेशियल मॉनीटरिंग सिस्टम पर हर्षिल से ज्यादा बारिश मिली है। हालांकि उसे बादल फटना नहीं कह सकते, क्योंकि आईएमडी की बादल फटने की परिभाषा अलग है, जो मैदानी क्षेत्रों के हिसाब से है। हालांकि मुझे लगता है कि पहाड़ों में 2000 मीटर से ऊपर बादल फटने की अलग परिभाषा दी जानी चाहिए।
ग्लेशियर्स पर नजर रखने के लिए धराली से ऊपर वाडिया के दो स्टेशन हैं। एक गंगोत्री में है और दूसरा डोकरियानी में। गंगोत्री का डाटा अभी नहीं मिला है क्योंकि रास्ता बंद होने की वजह से इसे लेकर आ रही टीम फंस गई है, लेकिन डोकरियानी ग्लेशियर के पास से डाटा आ गया है। वहां वाडिया इंस्टीट्यूट के दो कैंप है और दोनों में ही बारिश दर्ज हुई है। वहां से मिले डाटा के आधार पर कहा जा सकता है कि वहां तीन और चार तारीख को लगातार बारिश होती रही थी, दिन में भी और रात में भी।
यह अच्छी-खासी बारिश उत्तरी ढाल पर हुई है। ऐसा एक घाटी में ही नहीं हुआ है, यह दूसरी घाटी में भी हुआ है। धराली के नीचे हर्षिल है, उसके पीछे भी एक गदेरा (तेलूगाड़) था उसमें भी पानी आ गया। उसके नीचे सुक्की में भी ऐसा ही हुआ है। तो हम यह मान सकते हैं कि ऊपर के क्षेत्रों में हुई तीन-चार दिन की लगातार बारिश की वजह से ये घटना (धराली में फ्लैश फ्लड आना) हुई है।
इसके अलावा आप कैचमेंट को देखें। यह छोटा सा है और उसकी ढाल बहुत तीखी है, ख़ासतौर पर धराली की। उस ढाल पर अगर 20 मिमी से 50 मिमी तक की भी बारिश हो जाती है या तीन-चार दिन में ही 100 मिमी बारिश हो गई तो इस तरह की घटना हो जाएगी। अगर उस कैचमेंट में पहले से ही ग्लेशियर की भुरभुरी तलछट (मोरैन डिपॉजिट) है तो वह सब भी नीचे आया है उसके साथ।
‘बारिश की तीव्रता बढ़ी है’
मैं अभी जितना भी ऑब्जर्व कर पाया वहां पर, मुझे यही लगता है कि ग्लेशियर के जो भी कैचमेंट है ऊपर हाई एल्टीट्यूड (समुद्र तल से 4000 मीटर से ऊपर के इलाकों में) वहां हैंगिंग ग्लेशियर रहते ही हैं। 5500 मीटर से तो ऊपर परमानेंट बर्फ़ (स्नो) रहती है। उसके नीचे की बर्फ गलकर आती रहती है। यह प्रक्रिया 15 सितंबर तक चलती है। उस समय पर स्नो मेल्ट (गली हुई बर्फ) भी आई और ग्लेश्यिर के गलने से भी बर्फ (आइस मेल्ट) भी आई और उसके बाद बारिश भी हो गई तो पानी की मात्रा बढ़ी। कैचमेंट उसको होल्ड नहीं कर पाया और उसने उसे नीचे धकेल दिया।
हमारा काम (ग्लेश्योलॉजी) आईएमडी के कार्यक्षेत्र से ऊपर शुरू होता है। हमारे स्टेशन 3800 मीटर पर लगे हैं और वहां पर बारिश दर्ज होती है। आप कह सकते हैं कि करीब 4000 मीटर तक बारिश होती है। हो सकता है कि किन्हीं दो दिनों में ज्यादा हुई हो। ऐसी ही एक घटना पिछले साल गंगोत्री में भी हुई थी। उसमें हमारा एक स्टेशन बह गया था लेकिन होता क्या है कि जब ऐसी किसी घटना में कोई व्यक्ति प्रभावित होता है तभी लोगों को इस बारे में पता चलता है।
ऐसा लग रहा है कि बारिश की इंटेंसिटी (तीव्रता) दिन पर दिन बढ़ती जा रही है। हालांकि वैज्ञानिक रूप से इसे अभी पक्के तौर पर नहीं कहा सकता। जैसे कि इस बार हम चार दिन का रिकॉर्ड देख लेंगे। इससे पिछले साल तीन दिन में काफ़ी बारिश हुई थी। 2017 में भी ऐसे ही हुआ था लेकिन वैज्ञानिक रूप से इसे साबित करने के लिए करीब 30 साल का डाटा चाहिए होगा। तभी आप कह सकते हैं कि बारिश का ट्रेंड बदल गया है।
उच्च हिमालय पर बढ़ रहा है तापमान
जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से स्नोफॉल भी कम हो रहा है। स्नोफॉल कम हो रहा है तो ग्लेशियर की तलछट जो बर्फ में ढकी रहती है, वह बाहर के वातावरण के संपर्क में ज़्यादा आ रही है और फिर वह नीचे ढुलकने के लिए तैयार हो जाती है। ऐसे में बर्फ के गलने या भारी बारिश की स्थिति बनती है तो वह तेजी से नीचे आती है। जलवायु परिवर्तन का असर ऊंचाई वाले क्षेत्रों में ज्यादा पड़ने वाला है और निचले इलाकों में कम। इसे 'एलिवेशन डिपेंडेंट वार्मिंग' कहा जाता है। इसका असर आगे और दिखाई देगा।
समन्वय की जरूरत
धराली जैसी फ्लैश फ्लड का (जो मानवीय आबादी की वजह से आपदा बन जाती हैं) का पूर्वानुमान देना बड़ी चुनौती इसलिए भी है क्योंकि पहाड़ी क्षेत्रों में कोई भी एक ऐसी एजेंसी नहीं है जो डाटा एकत्र करके जानकारी का प्रसार कर सके, ताकि सभी डाटा का इस्तेमाल ज्यादा से ज्यादा करें।
मौसम विभाग का अपना क्षेत्र है, वह ऊपर काम नहीं करता। वाडिया जैसे संस्थान हैं, वह मशरूम की तरह अलग-अलग जगह पर हैं और सब अपनी ज़रूरतों, अपने हिसाब से काम करते हैं। जैसे कि आर्मी मौसम विभाग के डाटा का इस्तेमाल एवलॉन्च अलर्ट के लिए करती है और हम ग्लेशियर मेल्टिंग के लिए कर रहे हैं। इसके बावजूद सबकी एक समान जरूरत यह है कि आप ऊपर के क्षेत्रों में ये मेटोलॉजिकल स्टेशनों की डेंसिटी बढ़ाई जाए।