नई सरकार, नई उम्मीदें : 2030 के जलवायु लक्ष्यों को ध्यान में रखकर होना चाहिए विकास

आर्थिक विकास का आकलन ऊर्जा के नए साधनों को अपनाने और जलवायु परिवर्तन को कम करने की जरूरतों को ध्यान में रखकर करना चाहिए। साथ ही, भारत के 2030 के जलवायु लक्ष्यों के अनुरूप ही आर्थिक विकास करना चाहिए
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जलवायु परिवर्तन से निपटने की तैयारी दिसंबर 2023 में यूएनएफसीसीसी को सौंपी गई भारत की तीसरी राष्ट्रीय रिपोर्ट के अनुसार, जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए देश को 2030 तक 56.68 लाख करोड़ रुपये (679 अरब अमेरिकी डॉलर) की जरूरत है। 'राष्ट्रीय जलवायु अनुकूलन कोष' जैसे माध्यमों का लक्ष्य उन राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को सक्षम बनाना है, जो जलवायु परिवर्तन से होने वाले प्रभावों के प्रति अधिक संवेदनशील हैं ताकि वे अनुकूलन की लागत को पूरा कर सकें। हालांकि, कोष के लिए बजट आवंटन बढ़ती जरूरतों के साथ तालमेल नहीं रख पाया है। पिछले दो वित्तीय वर्षों में तो कोई बजट आवंटन ही नहीं हुआ है। सरकार के लिए देश की अनुकूलन जरूरतों को प्राथमिकता देना महत्वपूर्ण है। अनुकूलन में कमियों का पता लगाने के लिए सामाजिक-आर्थिक प्रभावों पर गहन शोध आवश्यक है। तीसरी राष्ट्रीय रिपोर्ट में, केंद्र सरकार इस बात को रेखांकित करती है कि अधिकांश जोखिम आकलन अध्ययन केवल खतरों पर ही ध्यान केंद्रित करते हैं। अनुकूलन अनुसंधान में सुधार के लिए सरकार के निवेश, समुदाय प्रभाव अध्ययन, स्थानीय प्रशासन की क्षमता निर्माण और तकनीकी हस्तक्षेपों के माध्यम से जलवायु जोखिमों, संवेदनशीलता और विकास कार्यक्रमों की प्रभावशीलता का मूल्यांकन करने के लिए एक मानकीकृत ढांचे और कार्यप्रणाली की आवश्यकता है। इससे खासकर मध्यम और छोटे उद्यमों और कृषि जैसे संवेदनशील क्षेत्रों में लचीलापन बढ़ाने में मदद मिलेगी। जलवायु लक्ष्य और वैश्विक राजनीति भारत के जलवायु लक्ष्य कई बाहरी दबावों से भी प्रभावित होते हैं। इनमें ऊर्जा और उद्योग से जुड़ी वैश्विक राजनीति से लेकर हरित तकनीकों और जरूरी खनिजों की आपूर्ति श्रृंखलाओं को नियंत्रित करने की वैश्विक प्रतिस्पर्धा तक सब शामिल है। आजकल अंतरराष्ट्रीय राजनीति में संसाधनों की वास्तविकता सबसे अहम मानी जाती है। उदाहरण के लिए, कम कार्बन उत्सर्जन वाली तकनीकों के उत्पादन के लिए महत्वपूर्ण दुर्लभ मृदा धातुओं (रेयर अर्थ मेटल्स) को ही लीजिए। अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी के अनुसार, दुनिया के लगभग 85% दुर्लभ मृदा ऑक्साइड्स, जिनसे दुर्लभ मृदा धातु प्राप्त होते हैं, चीन में ही बनते हैं। देश तेजी से इस बात को समझ रहे हैं कि उत्पादन और प्रसंस्करण का इतना अधिक नियंत्रण एक हाथ में होने से आपूर्ति में बहुत बड़ा जोखिम है। यह जोखिम सौर ऊर्जा उपकरणों और इलेक्ट्रिक वाहनों की आपूर्ति श्रृंखलाओं तक भी फैला हुआ है, जिनमें से अधिकांश चीन में ही केंद्रित हैं। पश्चिमी देश सब्सिडी देकर खुद को इस दबाव से बचा रहे हैं, जिनका मुकाबला भारत नहीं कर सकता। साथ ही, यूरोपीय संघ का कार्बन बॉर्डर एडजस्टमेंट मैकेनिज्म (सीबीएएम) जैसी व्यवस्थाओं का भी इस्तेमाल कर रहा है, जो भारत की व्यापार प्रतिस्पर्धा को कमजोर कर सकता है। सीबीएएम के माध्यम से यूरोपीय संघ कुछ उत्पादों पर उनके कार्बन फुटप्रिंट के आधार पर टैक्स लगाने का प्रस्ताव करता है, जिसका भारत जैसे देशों के लिए बड़ा आर्थिक प्रभाव होगा। भारत यूरोपीय संघ को लोहा, इस्पात और एल्युमिनियम जैसे अधिक कार्बन उत्सर्जन वाले सामानों का निर्यात करता है। इन चुनौतियों को देखते हुए, देश की विदेश नीति को घरेलू हरित बदलाव में संसाधन सुरक्षा को प्राथमिकता देनी चाहिए। नीतियों में एकरूपता और प्रमुख प्रौद्योगिकी घटकों के देशी निर्माण, कच्चे माल की आपूर्ति श्रृंखलाओं के विविधीकरण और जलवायु सुरक्षा की आड़ में लिए जाने वाले संकीर्ण व्यापारिक फैसलों को उचित रूप से चुनौती देने के लिए स्पष्ट रणनीतियों की जरूरत होगी। जलवायु जोखिमों और संघर्षों से भरी दुनिया में, भारत के पास जलवायु नेतृत्व में मौजूदा खाली जगह को भरने का एक अनूठा अवसर है। यह अंतरराष्ट्रीय मंचों पर अपनी जलवायु संबंधी बातचीत को स्पष्ट और साहसी घरेलू कार्रवाई के साथ जोड़कर किया जा सकता है।  क्या करना जरूरी? 

  • हर क्षेत्र के लिए विस्तृत उत्सर्जन कम करने की योजना बनाई जाए, जिसमें छोटे और लंबे समय के लक्ष्य शामिल हों

  • जलवायु जोखिमों, संवेदनशीलता और विकास कार्यक्रमों का मूल्यांकन करने के लिए एक मानकीकृत ढांचे और कार्यप्रणाली के साथ जलवायु अनुकूलन में सुधार किया जाए

  • नीतियों में एकरूपता और स्पष्ट रणनीतियों के माध्यम से घरेलू हरित बदलाव में संसाधन सुरक्षा को प्राथमिकता दी जाए

  • राष्ट्रीय जलवायु अनुकूलन कोष के लिए पर्याप्त बजट आवंटित किया जाए


केंद्र में नई सरकार ने कामकाज शुरू कर दिया है। अब आगे सरकार की नीतियां और उनका तय किया गया रास्ता हमारा भविष्य तय करेगा। इस नई सरकार से देश को आखिर किन वास्तविक मुद्दों पर ठोस काम की उम्मीद करनी चाहिए ? नई सरकार, नई उम्मीदें नाम के इस सीरीज में हम आपको ऐसे ही जरूरी लेखों को सिलसिलेवार पेश किया जा रहा है।

भारत में 2024 के आम चुनाव ऐसे समय हुए, जब देश जलवायु से जुड़ी कई मुसीबतों और चुनौतियों का सामना कर रहा था। इसलिए आश्चर्य नहीं कि जलवायु परिवर्तन तकरीबन सभी पार्टियों के चुनाव घोषणा पत्रों में शामिल हो गया है। भारतीय जनता पार्टी ने ऊर्जा के नए स्रोतों की तरफ बढ़ते कदम को स्वीकारते हुए कहा है कि वे देश के बिजली उत्पादन में नवीकरणीय ऊर्जा की हिस्सेदारी बढ़ाना जारी रखेंगे। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने नवीकरणीय ऊर्जा क्षेत्र को बढ़ावा देने और हरित रोजगार पैदा करने के लिए 'ग्रीन न्यू डील इन्वेस्टमेंट प्रोग्राम' स्थापित करने का वादा किया। साथ ही, राष्ट्रीय और राज्य स्तर की जलवायु कार्य योजनाओं को लागू करने के लिए 'पर्यावरण संरक्षण और जलवायु परिवर्तन प्राधिकरण' बनाने का भी वादा किया गया है। नीति निर्माता भी इस बात को समझ रहे हैं कि भारत का विकास जलवायु परिवर्तन की हकीकत के साथ मिलकर चलना चाहिए। 

 सच तो ये है कि मौसम के पैटर्न में लगातार हो रहे बदलाव, समुद्र के बढ़ते जलस्तर और तेजी से बढ़ता तापमान पिछले दशकों में हासिल हुए विकास और आर्थिक प्रगति को खत्म कर सकता है। ये खाद्य सुरक्षा के लिए भी गंभीर खतरा हैं। ये बीमारियों को तेजी से फैला सकते हैं, पलायन को बढ़ावा दे सकते हैं और यहां तक कि संघर्ष भी पैदा कर सकते हैं। इसलिए, नई सरकार के सामने आर्थिक विकास सुनिश्चित करने के साथ-साथ जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से निपटने का भी मुश्किल काम है। इसे हासिल करने का एक तरीका स्वच्छ ऊर्जा की तरफ रुख करना है।

स्वच्छ ऊर्जा की तरफ बढ़ते कदम 

भारत ने नवीकरणीय ऊर्जा के क्षेत्र में काफी तरक्की की है। नीति आयोग के इंडिया क्लाइमेट एंड एनर्जी डैशबोर्ड के अनुसार, परमाणु ऊर्जा को छोड़कर, गैर-जीवाश्म ईंधन देश की कुल ऊर्जा उत्पादन क्षमता का 43.12% हिस्सा बनाते हैं। डैशबोर्ड के आंकड़ों के मुताबिक, 31 मार्च 2024 तक पिछले 8 वर्षों में सौर ऊर्जा की उत्पादन क्षमता 12 गुना बढ़ गई है। इसका मतलब है कि भारत 2030 तक अपनी आधी बिजली क्षमता गैर-जीवाश्म स्रोतों से हासिल करने के लिए सही रास्ते पर है- जो जलवायु परिवर्तन पर 2015 के पेरिस समझौते के तहत की गई प्रतिबद्धता है।

इस लक्ष्य को पाने के लिए व्यापक बदलाव की योजना बनानी होगी। अभी, डैशबोर्ड के अनुसार, देश की कुल ऊर्जा क्षमता में गैर-जीवाश्म ईंधन 43.12% हिस्सा तो रखते हैं, लेकिन कुल बिजली उत्पादन में इनका योगदान केवल 23.4% ही है। कोयले की हिस्सेदारी कुल ऊर्जा उत्पादन में कम होने का अनुमान है, लेकिन बिजली आपूर्ति तंत्र में ज्यादा मात्रा में नवीकरणीय ऊर्जा को शामिल करना जरूरी है। इसके लिए, बिजली आपूर्ति तंत्र को लचीला बनाने, ट्रांसमिशन और डिस्ट्रीब्यूशन इंफ्रास्ट्रक्चर को मजबूत करने, पंप्ड हाइड्रो और बैटरी जैसी ऊर्जा भंडारण तकनीकों में निवेश करना बहुत जरूरी होगा।

सरकार को उन राज्यों के बीच की खाई को पाटने का काम करना चाहिए जो तेजी से नवीकरणीय ऊर्जा अपना रहे हैं और जो पिछड़ रहे हैं। बिजली वितरण कंपनियों की खस्ता हालत जैसे बुनियादी मुद्दों को भी उठाना उतना ही जरूरी है। यह सब करते हुए, हमें ऊर्जा को आम लोगों के लिए किफायती बनाए रखना भी होगा।

कम कार्बन उत्सर्जन की रणनीति

2005 के मुकाबले 2019 तक भारत ने अपने सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के उत्सर्जन की मात्रा में 33 फीसदी की कमी कर ली है। इसका मतलब है कि देश 2030 तक अपने सकल घरेलू उत्पाद के उत्सर्जन की मात्रा को 45 फीसदी कम करने के अपने लक्ष्य को प्राप्त करने की राह पर अग्रसर है। लेकिन साथ ही, भारत का लक्ष्य 2047 तक अपनी अर्थव्यवस्था को मौजूदा आकार से 8 गुना बड़ा करना है। इसका मतलब है कि देश को घरेलू विकास की जरूरतों को पूरा करते हुए हर क्षेत्र में कार्बन उत्सर्जन कम करने की एक मजबूत योजना बनानी होगी। भारत ने 2022 में विभिन्न क्षेत्रों के लिए दिशानिर्देशों के साथ 'यूएन फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज' यानी संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन रूपरेखा सम्मेलन (यूएनएफसीसीसी) को एक लॉन्ग-टर्म लो एमिशन डेवलपमेंट स्ट्रैटिजी यानी 'दीर्घकालिक कम उत्सर्जन विकास रणनीति' (एलटी-एलईडीएस) सौंपी थी। लेकिन हमें अब हर क्षेत्र के लिए विस्तृत उत्सर्जन कम करने की योजनाओं की जरूरत है, जिनमें छोटे, मध्यम और दीर्घकालिक लक्ष्य शामिल हों।

भारत को कार्बन उत्सर्जन कम करने के उपायों को लागू करने में आने वाली दिक्कतों और इसके लिए जरूरी वित्त और तकनीकों की पहचान खुद ही करनी चाहिए। समाधान और संस्थागत हस्तक्षेप आदर्श रूप से घरेलू स्तर पर तय किए जाने चाहिए और ये ही वैश्विक वित्तीय और तकनीकी सहायता को भारत के लिए दिशा दें, न कि इसके उल्टा।

इससे कई तरह के फायदे हो सकते हैं, जैसे ताप बिजली पर निर्भरता कम करके वायु प्रदूषण के प्रभाव को कम करना और बेकार पड़ी परिसंपत्तियों के जोखिम को कम करना। इससे जलवायु परिवर्तन के सबसे खराब प्रभावों से बचने के लिए जलवायु अनुकूलन की जरूरत भी कम होगी और बदलते वैश्विक व्यापार और जलवायु व्यवस्था में आर्थिक और व्यापार प्रतिस्पर्धा को होने वाले नुकसान को भी कम किया जा सकेगा।

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