2030 तक विकसित देशों को जीवाश्म ईंधन से करना होगा किनारा, कमजोर देशों को है मदद की दरकार

अमेरिका, ब्रिटेन, यूरोपियन यूनियन, जापान और ऑस्ट्रेलिया ने उत्सर्जन में जितनी कटौती का जिक्र अपने एनडीसी में किया है उन्हें निष्पक्ष रहने के लिए उससे कहीं ज्यादा करने की जरूरत है
भारत को करने चाहिए 2036 तक कोयले से दूर जाने के प्रयास; फोटो: आईस्टॉक
भारत को करने चाहिए 2036 तक कोयले से दूर जाने के प्रयास; फोटो: आईस्टॉक
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कॉप-28 के दौरान जारी एक नई रिपोर्ट में कनाडा, अमेरिका, नॉर्वे, ऑस्ट्रेलिया और यूनाइटेड किंगडम (यूके) को 2030 की शुरुआत तक कोयला, तेल और गैस जैसे जीवाश्म ईंधन का निष्कर्षण बंद करने की सलाह दी है।

गौरतलब है कि जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर चर्चा के लिए वार्ताओं का दौर 30 नवंबर से संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) में शुरू हो चुका है। 30 नवंबर से 12 दिसंबर 2023 तक चलने वाले इस सम्मलेन (कॉप-28) में जलवायु परिवर्तन के साथ-साथ उससे जुड़े कई अहम मुद्दों पर चर्चा की जाएगी।

सिविल सोसाइटी इक्विटी रिव्यू द्वारा जारी इस रिपोर्ट "इक्विटेबल फेजआउट ऑफ फॉसिल फ्यूल एक्सट्रैक्शन" का कहना है कि विकसित देश उत्सर्जन में कटौती के अपने वादों के मुताबिक उसे कम करने के लिए पर्याप्त प्रयास नहीं कर रहे हैं। मतलब की उत्सर्जन में कटौती और जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से निपटने के लिए उन्होंने जिन वादों का जिक्र अपने राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (एनडीसी) किया है वो उसे भी पूरा नहीं कर रहे हैं। बता दें कि इस रिपोर्ट का समर्थन 200 से ज्यादा संगठनों और सामाजिक समूहों ने किया है।

रिपोर्ट के मुताबिक अमेरिका, ब्रिटेन, यूरोपियन यूनियन, जापान और ऑस्ट्रेलिया ने उत्सर्जन में जितनी कटौती का जिक्र अपने एनडीसी में किया है उन्हें उससे कहीं ज्यादा करने की जरूरत है। इसका मतलब है कि यदि जलवायु परिवर्तन में उनकी हिस्सेदारी के लिहाज से देखें तो उन्हें अपने एनडीसी में किए वादों से दोगुने प्रयास करने की आवश्यकता है, तभी जाकर वो सही मायनों में अपने हिस्से की निचली सीमा को छू पाएंगें।

एक्शनएड, यूएसए की वरिष्ठ नीति विश्लेषक केली स्टोन का कहना है कि, "निष्पक्ष हिस्सेदारी न केवल नैतिक प्राथमिकता है, बल्कि यह व्यावहारिक भी है। यह रिपोर्ट हमें बताती है कि अमेरिका को अभी लंबा सफर तय करना है।" उनके मुताबिक हमें यह सुनिश्चित करने की जरूरत है कि अमेरिका और अन्य अमीर देश वह करें जो सही है। उन्हें उचित योगदान देने के लिए जवाबदेह होना होगा। उनका आगे कहना है कि, "यदि वे ऐसा करने में विफल रहते हैं तो वास्तव में यह उन समुदायों के लिए किसी आपदा से कम नहीं जो जलवायु में आते बदलावों से सबसे ज्यादा प्रभावित हैं।

किसी देश का उचित हिस्सेदारी कितनी है, इस बात की गणना इस आधार पर की जाती है कि वह बेहतर जीवन स्तर की अपनी आवश्यकताओं से परे कितना कुछ कर सकता है। साथ ही इसमें इस बात पर भी विचार किया जाता है कि जलवायु समस्या को बढ़ाने में उस देश के पिछले उत्सर्जन की कितनी हिस्सेदारी है। देखा जाए तो उसकी क्षमता और जलवायु परिवर्तन में उसकी हिस्सेदारी के लिहाज से यह तय किया जाता है कि उसे इस समस्या से निपटने में कितनी मदद करनी चाहिए।

1.5 डिग्री सेल्सियस के पथ से काफी हद तक भटक चुके हैं देश

देखा जाए तो तापमान को 1.5 डिग्री सेल्सियस पर सीमित करने के जो प्रयास किए जा रहे हैं, वो पर्याप्त नहीं हैं। 2023 प्रोडक्शन गैप रिपोर्ट में इस बात पर भी प्रकाश डाला गया है कि कंपनियां और देश 2030 में 1.5 डिग्री सेल्सियस पथ के दोगुने से अधिक जीवाश्म ईंधन निकालने की राह पर हैं।

क्लाइमेट इक्विटी रेफरेंस प्रोजेक्ट के वरिष्ठ शोधकर्ता सीसी होल्ज ने एक प्रेस वार्ता में जानकारी साझा करते हुए बताया कि 2015 से 2022 के बीच अमेरिका ने उत्सर्जन को कम करने की अपनी निष्पक्ष हिस्सेदारी से साढ़े छह गीगाटन अधिक उत्सर्जन किया था। उनके मुताबिक यदि भारत से तुलना करें तो बड़ी आबादी के बावजूद वो 2015 से 22 के बीच अपने हिस्से से केवल 400 मेगाटन दूर था।

इस रिपोर्ट में हर देश की जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता के आधार पर इस बात की गणना की है कि कितनी समय सीमा के भीतर उन्हें जीवाश्म ईंधन का उपयोग बंद कर देना चाहिए। उदाहरण के लिए यदि कोई देश इसका बहुत कम उपयोग कर रहे हैं तो उन्हें इसे जल्दी बंद कर देना चाहिए, और यदि वह बहुत अधिक इस पर निर्भर हैं तो इसमें अधिक समय लग सकता है। निष्कर्षों के मुताबिक चरणबद्ध समाप्ति की तारीख उस वर्ष को दर्शाती है, जिसमें 2023 की तुलना में जीवाश्म ईंधन का उत्पादन 90 फीसदी तक कम हो जाना चाहिए।

हालांकि रिपोर्ट के मुताबिक देशों को केवल यह बताना कि कब उन्हें जीवाश्म ईंधन का उपयोग बंद कर देना चाहिए, पर्याप्त नहीं है। ऐसे में सशक्त देश है उन्हें कमजोर देशों की वित्तीय रूप से मदद करनी चाहिए। ताकि वो देश भी जल्द से जल्द जीवाश्म ईंधन से मुक्ति पा सकें।

विश्लेषण के मुताबिक 2030 तक कोयले का उपयोग, जबकि 2031 तक चरणबद्ध तरीके से तेल और गैस का उत्पादन बंद कर देना चाहिए। वहीं उन्हें इसके लिए दूसरे देशों की जा रही मदद में 3.8 फीसदी का योगदान देना चाहिए।

इसी तरह जहां तक अमेरिका की बात है, उसे भी 2031 तक अपने जीवाश्म ईंधन जैसे कोयला, तेल और गैस का उपयोग बंद कर देना चाहिए। साथ ही उसे वैश्विक मदद में करीब 46.3 फीसदी का योगान करना चाहिए जो करीब 9,710 करोड़ डॉलर के बराबर है। देखा जाए तो अमेरिका और यूके दोनों की ही जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता बेहद कम है। साथ ही वो मदद के लिए कहीं ज्यादा प्रयास कर सकने के काबिल हैं।

भारत को करने चाहिए 2036 तक कोयले से दूर जाने के प्रयास 

रिपोर्ट में कुवैत और सऊदी अरब जैसे देशों के बारे में जो जीवाश्म ईंधन पर बहुत अधिक निर्भर है और जिनकी उत्पादन क्षमता भी बेहद ज्यादा है कहा है कि उन्हें क्रमशः 2037 और 2041 तक जीवाश्म  ईंधन का उत्पादन बंद कर देना चाहिए। साथ ही उन्हें वैश्विक मदद में 0.4 फीसदी और 1.5 फीसदी का योगदान भी करनी चाहिए। हालांकि रिपोर्ट में इस बात पर भी जोर दिया है कि इन देशों को अपनी अर्थव्यवस्थाओं में बदलाव के लिए और अधिक समय की जरूरत है।

जहां तक भारत की बात है, रिपोर्ट के मुताबिक उसे 2031 तक तेल और गैस जबकि 2036 तक कोयला का उपयोग बंद करने का प्रयास करना चाहिए। रिपोर्ट का कहना है कि चूंकि भारत, ट्यूनीशिया और पेरू की जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता कम है, ऐसे में उन्हें 2030 की शुरूआत तक तेजी से बदलाव का लक्ष्य रखना चाहिए। लेकिन यह तभी हो सकता है जब भारत को पर्याप्त समर्थन मिले, क्योंकि उसके पास बहुत अधिक क्षमता नहीं हैं।

वर्ल्ड वाइड फंड फॉर नेचर की शर्ली मैथेसन ने अपने एक बयान में कहा है कि, इन निष्कर्षों को ग्लोबल स्टॉकटेक समेत जलवायु वार्ताओं का मार्गदर्शन करना चाहिए। उनके मुताबिक यह इस बात की जांच करते हैं कि कोई देश कितना प्रयास कर रहा है। साथ ही यह इस महत्वपूर्ण दशक में महत्वाकांक्षा और कार्रवाई को साकार करने के लिए अपेक्षाएं भी निर्धारित करेगा। साथ ही यह अपेक्षाएं भी निर्धारित करता है कि इस बेहद महत्वपूर्ण दशक में हर किसी को कितना कुछ करने की जरूरत है।

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